विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
कृपा और स्व-प्रयास
शिष्य - महाराज, कृपा का क्या कोई नियम है?
स्वामीजी - है भी और नहीं भी।
शिष्य - यह कैसे?
स्वामीजी - जो तन, मन, वचन से सर्वदा पवित्र रहते हैं, जिनकी भक्ति प्रबल है, जो सत्-असत् का विचार करनेवाले हैं और ध्यान तथा धारणा में संलग्न रहते हैं, उन्हीं पर भगवान् की कृपा होती है। श्री गुरुदेव कभी ऐसा भी कहते थे, “पूरी तरह उनके ही सहारे रहो, आँधी में (उड़ रहे) सूखे पत्तल बन जाओ।" कभी कहते थे, “ईश्वर की कृपा रूपी हवा तो चल ही रही है, तुम अपनी पाल उठा दो।" (६.५०)
शिष्य - परन्तु कायमनोवाक्य से यदि संयम कर सके तो फिर कृपा की आवश्यकता ही क्या है! तब तो साधक स्वयं अपनी ही चेष्टा से अध्यात्म मार्ग में आत्मोन्नति करने के योग्य हो जायेगा !
स्वामीजी - भगवान् उस साधक पर अति प्रसन्न होते हैं जो प्राणपण से आत्मानुभूति के लिये संघर्ष करता है। उद्यम या प्रयत्न न करके बैठे रहो तो कभी कृपा न होगी। (६.१४१)
शिष्य - श्री गिरीशचन्द्र घोष महाशय ने एक दिन मुझसे कहा था कि कृपा का कोई नियम नहीं है। यदि है तो उसे कृपा नहीं कहा जा सकता। वहाँ पर सभी गैरकानूनी कार्रवाइयाँ हो सकती हैं।
स्वामीजी - घोष महाशय ने जिस स्थिति की बात कही है, वहाँ पर कोई उच्चतर अज्ञात कानून या नियम अवश्य है। वास्तव में ये शब्द तो उस एकमात्र अन्तिम उन्नत अवस्था के लिये हैं जो देश, काल और निमित्त से परे है। परन्तु जब हम उस अवस्था में पहुँचते हैं तो वहाँ कौन किस पर कृपालु होगा जहाँ कार्य-कारण सम्बन्ध ही नहीं है। वहाँ पर पूजक-पूज्य, ध्याता-ध्येय, ज्ञाता-ज्ञेय सब एक हो जाते हैं। उसे चाहे कृपा कहो या ब्रह्म वह तो एक ही, समरस, समरूप सत्ता है। (६.१४२)
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