लोगों की राय

विवेकानन्द साहित्य >> राजयोग

राजयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5927
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

163 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक राजयोग....

Rajyog

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

द्वितीय (परिवर्धित) संस्करण का वक्तव्य

प्रस्तुत पुस्तक का यह नवीन द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथ में रखते हुए हमें बड़ी प्रसनन्ता हो रही है इस नए संस्करण में हमने पातंजल-योगसूत्र, उन सूत्रों के अर्थ और उन पर स्वामी विवेकानन्दजी की टीका भी सम्मिलित कर दी है। उससे पुस्तक की पृष्ठसंख्या पहले से लगभग अढाईगुनी बढ़ गई है। इस संस्करण में पुस्तक का गेट-अप भी सुन्दर कर दिया गया है। पातंजल-योगदर्शन एक विश्व-विख्यात ग्रन्थ है और हिन्दुओं के सारे मनोविज्ञान की नींव है। इसीलिए स्वामीजी स्वयं इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पर टीका लिख गए हैं। इस ग्रन्थ की माँग, विशेषकर स्वामीजी की टीका सहित, हिन्दी-जनता बहुत अरसे से कर रहा था। परमात्मा की कृपा से हम आज पाठकों की माँग पूरी करने में सफल हो सके-इसका हमें विशेष आनन्द हो रहा है।

प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त ज्ञान और शक्ति का आवास है। राजयोग उन्हें जाग्रत करने का मार्ग प्रदर्शित करता है। इसका एकमात्र उदेश्य है-मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे ‘समाधि’ नामवाली पूर्ण एकाग्रता की अवस्था में पहुंचा देना। स्वभाव से ही मानव-मन अतिशय चंचल है। वह एक क्षण के भी किसी वस्तु पर ठहर नहीं सकता। इस मन की चंचलता तो नष्ट कर उसे किस प्रकार अपने काबू में लाना, किस प्रकार उसकी इतस्ततः बिखरी हुई शक्तियों को समेटकर सर्वोच्य ध्येय में एकाग्र कर देना-यही राजयोग का विषय है। जो साधक प्राण का संयम कर, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान द्वारा इस समाधि-अवस्था की प्राप्ति करना चाहते हैं, उनके लिए यह ग्रन्थ बड़ा उपादेय सिद्ध होगा।

इस पुस्तक के आरम्भ से लेकर 96-97* पृष्ठ तक का अनुवाद पण्डित सूर्यकान्तजी त्रिपाठी ‘निराला’ ने किया है। उनके इस बहुमूल्य कार्य के लिए हम उनके परम कृतज्ञ है। 97-98* पृष्ठ से लेकर पुस्तक का शेष सब अंश (पातंजल-योगसूत्र को मिलाकर) प्राध्यापक श्री दिनेशचन्द्रजी गुह, एम,. ए., द्वारा
-----------------------------------------------------------------------
*पुनर्मुद्रण में यह पृष्ठसंख्याए क्रमशः 76-77 तथा 77-78 हैं।
अनुवादित हुआ है। उनके भी प्रति हम अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं।

हमें विश्वास है कि धर्म को व्यवहारिक जीवन में उतारने के प्रयत्नशील लोगों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होगी।

प्रकाशक

प्रथम संस्करण का वक्तव्य


प्रस्तुत पुस्तक स्वामी विवेकानन्द के न्यूयॉर्क (अमेरिका) में दिए गए व्याख्यानों का हिन्दी रूपान्तर है। जो साधक प्राणायाम, ध्यान-धारण द्वारा समाधि-अवस्थों को प्राप्त होना चाहते हैं, उन्हें इस पुस्तक में बडी उपयोगी सूचनायें प्राप्त होंगी। प्रत्येक व्यक्ति में अन्यन्त ज्ञान और शक्ति का आवास है। राजयोग उन्हें जागृत करने का मार्ग प्रदर्शित करता है। व्हावहारिक आध्यात्मिक जीवन यापन करनेवालों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होगी।
पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने इन व्याख्यानों का बहुत-सा भाग हिन्दी में रूपान्तरित किया है। अतः हम उनके परम कृतज्ञ हैं। हमें खेद है कि अस्वस्थ रहने के कारण वे सभी व्याख्यानों का अनुवाद-कार्य पूरा न कर सके। पुस्तक के अन्तिम बीस पृष्ठों का अनुवादन श्री प्राध्यापक दिनेशचन्द्र गुह, एम. ए. (कलकत्ता) ने किया है। अतः हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।

हम पं. शुकदेव प्रसादजी तिवारी (श्री विनयमोहन शर्मा) एम. ए., एल-एल.बी,. प्राध्यापक, नागपुर महाविद्यालय के बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के कार्य में हमें बड़ी सहायता दी है।
हमें विश्वास है, पाठकों का इस प्रकाशन के आशातीत लाभ होगा।

प्रकाशक

प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।
बाह्य एवं अन्तःप्रकति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।
कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ।
बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठानपद्धतियाँ, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।

स्वामी विवेकानन्द

ग्रन्थकार की भूमिका


ऐतिहासिक जगत् के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान काल तक मानव-समाज में अनेक अलौकिक घटनाओं के उल्लेख देखने को मिलते है। आज भी जो समाज आधुनिक विज्ञान के भरपूर आलोक में रह रहे हैं, उनमें भी ऐसी घटनाओं की गवाही देनेवाले लोगों की कमी नहीं है। पर हाँ ऐसे प्रमाणों में अधिकाँश विश्वास योग्य नहीं; क्योंकि जिन व्यक्तियों से ऐसे प्रमाण मिलते है। उनमें से बहुतेरे अज्ञ हैं, अन्धविश्वासी हैं अथवा धूर्त हैं। बहुधा यह भी देखा जाता है कि लोग जिन घटनाओं को अलौकिक कहते हैं वे वास्तव में नकल है। पर प्रश्न उठता है, किसकी नकल ? यथार्थ अनुसंधान किये बिना कोई बात बिल्कुल उड़ा देना सत्यप्रिय वैज्ञानिक-मन का परिचय नहीं देता। जो वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी नहीं, वे मनोराज्य की नाना प्रकार की अलौकिक घटनाओं की व्याख्या करने में असमर्थ हो उन सब का अस्तित्व ही उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं। अतएव वे तो उन व्यक्तियों से अधिक दोषी हैं। जो सोचते हैं कि बादलों के ऊपर अवस्थित कोई पुरुषविशेष या बहुत–से पुरुषगण उनकी प्रार्थनाओं को सुनते हैं और उनके उत्तर देते हैं

अथवा उन लोगों से जिनका विश्वास है कि ये पुरुष उनकी प्रार्थनाओं के कारण संसार का नियम ही बदल देंगे। क्योंकि इन बाद के व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि वे अज्ञानी हैं, अथवा कम से कम यह कि उनकी शिक्षाप्रणाली दूषित रही है, जिसने उन्हें ऐसे अप्राकृतिक पुरुषों का सहारा लेने की सीख दी और निर्भरता अब उनके अनवत स्वभाव का एक अंग ही बन गयी है। पूर्वोंत्त शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो ऐसी किसी दुहाई की गुंजाइश नहीं।

हजारों वर्षों से लोगों ने ऐसी अलौकिक घटनाओं का पर्यवेक्षण किया है उनके सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन किया है और फिर उनमें से साधारण तत्त्व निकाले है; यहाँ तक कि मनुष्य का धर्मप्रवृत्ति का आधारभूमि पर भी विशेष रूप से, अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ, विचार किया गया है। इन समस्त चिन्तन और विचारो का फल यह राजयोग-विद्या है। यह राजयोग आजकल के अधिकांश वैज्ञानिकों की अक्षम्य धारा का अवलम्बन नहीं करता-वह उनकी भाँति उन घटनाओं के अस्तित्व को एकदम उड़ा नहीं देता, जिनकी व्याख्या दुरुह हो; प्रत्युत वह तो धीर भाव से, पर स्पष्ट शब्दों में, अन्धविश्वास से भरे व्यक्ति को बता देता है

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai