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विवेकानन्द साहित्य >> विवेकलहरी

विवेकलहरी

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5928
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक विवेकलहरी...

Viveklahari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तृतीय (परिवर्तित एवं संवर्धित) संस्करण की भूमिका

विवेकलहरी नाम से परिवर्तित एवं नवीन शीर्षकवाली यह पुस्तक कुछ इससे पूर्व इस पुस्तक का शीर्षक कवितावली था, जिसका संस्करण 1949 में प्रकाशित किया गया था। 1964 में कवितावला से परिवर्धित संस्करण में समाविष्ट अधिकांश काव्यानुवाद सुमित्रानन्दन पन्तकृत था तथा अल्पांश विनयमोहन शर्माकृत था। प्रस्तुत संस्करण में स्वामी विवेकान्दजी की जिन भी काव्यरचनाओं का हिन्दी में काव्यानुवादन है वह या तो सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ कृत है अथवा सुमित्रानन्दन पन्तकृत है।

 विवेकानन्द साहित्य के नवम खण्ड से ‘निराला’ कृत तथा दशम खण्ड से पन्तकृत काव्यानुवाद लिया गया है। काव्यानुवादित प्रत्येक कविता के शीर्षकवाले पृष्ठ पर पादटिप्पणी में काव्यानुवादक नाम दिया गया है ‘निराला जी ने तो रामकृष्ण-विवेकान्द भावधारा के घनिष्ठ सम्पर्क में आए थे। पन्तजी ने भी स्वामी विवेकानन्दजी ने अपनी रचनानाएँ अंग्रेजी, बंगला, संस्कृति एवं हिन्दी-इन चारों भाषाओं में की थीं। अतः पाठकों की सुविधा हेतु इस पुस्तक के क्रमशः चार विभाग किए गए हैं। अनुवाद की दृष्टि से इस पुस्तक में ये काव्यरचनाएं या तो 1) केवल काव्यनुवादित रूप में हैं, या 2) सुबोध होने के भी कारण केवल मूल में है, अथवा 3) मूल रूप में भी है। उनका गद्यानुवाद भी दिया गया है। इस संस्करण के संवर्धनरूप में इसके तृतीत विभाग में श्रीरामकृष्णस्तोत्रम-4, आमन्त्रम् तथा श्रीरामकृष्णवन्दना नामक शीर्षकवाली संस्कृत रचनाएं भी समाविष्ट की गई हैं।

जहाँ तक हो सका है। काव्यरचनाओं के काल, स्थान तथा पृष्ठभूमि की परिस्थितियों के विवरण सहित इन (काव्यरचनाओं) के मर्मार्थ को पाठकों के लिए अधिकाधिक सुबोध बनाने में सहायता, तथा साथ ही स्वामी के उच्च एवं उदार आध्यात्मिक मनोभावों का किंचित आभास करानेवाली पादटिप्पणियाँ भी बढ़ाई गई हैं पादटिप्णियों सहित इस संस्करण में किए गए अन्य परिवर्तनों एवं संवर्धनों के लिए हमने कोलकाता के अद्वैत आश्रम द्वारा प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य अथवा द कम्पलीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानन्द (अंग्रेजी) से तथा कोलकाता के ही उद्वोधन कार्यालय द्वारा प्रकाशित स्वामी विवेकानन्देर बाणी ओ रचना (बंगला) से ही सहायता ली है।

आध्यात्मिक सन्तों के अलौकिक अनुभवों की अभिव्यक्ति कभी कभी उनकी काव्यप्रतिभा में प्रकट होती है। स्वामीजी की काव्यरचनाओं में भी उनकी दिव्य अनुभूति का प्रत्यय हमें आता है। इस काव्यसंग्रह के नये संस्करण से पाठक अवश्य लाभान्वित होंगे ऐसा हमें विश्वास है।

प्रकाशक

प्रथम संस्करण का वक्तव्य


इस कवितावली में स्वामी विवेकानन्द जी की कुछ चुनी हुई कविताओं का हिन्दीं अनुवाद है। स्वामी जी की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी; वे केवल एक देशभक्त तथा उच्च कोटि के महात्मा ही नहीं वरन् एक श्रेष्ठ कवि भी थे। दैवी प्रेरणा ही उनकी कविताओं का मूल प्रस्त्रवण है। उनकी इस कवित्वशक्ति की पार्श्वभूमि गम्भीर आध्यात्मिक अनुभूति ही है। यही कारण है कि उनकी कविताएँ इतनी रोचक एवं हृदयग्राह्य हैं।
श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने स्वामी जी की इन कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया जाता है तथा श्री श्यामसुंदर जी खत्री, कलकत्ता, ने स्वामीजी की ‘Song of the Sannyasin’ नामक कविता का।

इन दिनों मित्रों ने यह अनुवाद का कार्य बड़ी सफलता पूर्वक किया है उन्होंने मूल कविताओं का भाव तथा शैली ज्यों की त्यों रखी है। उनके इस अनुवादकार्य के लिए हम परम कृतज्ञ हैं।
श्री पं. शुकदेव प्रसाद जी तिवारी (श्री विनयमोहन शर्मा), एम.ए. एल-एल. बी. प्राध्यापक नागपुर महाविद्यालय के भी हम बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के कार्य में हमें बहुमूल्य सूचनाएँ दी हैं।
हमें आशा है कि जनता हमारे इस प्रकाशन से लाभान्वित होगी।

प्रकाशक

विवेकलहरी

प्रथम विभाग

(अंग्रेजी काव्यरचनाओं का काव्यानुवाद)

संन्यासी का गीत


छोडो हे वह गान, अनंतोद्भव अबन्ध वह गान
विश्व-ताप से शून्य गह्ररों में गिरि के अम्लान
निभृत अरण्य प्रदेशों में जिसका सुचि जन्मस्थान,
जिनकी शांन्ति न कनक काम-यश लिप्सा का निःश्वास
भंग कर सका, जहाँ प्रवाहित सत् चित् की अविलास  
स्त्रोतस्विनी, उमड़ता जिसमें वह आनन्द अयास,
गाओ, बढ़ वह गान, वीर संन्यासी, गूँजे व्योम,

 ओम् तत्सत् ओम् !

Thousand lsland Park (सहस्त्रद्वीपोद्यान), न्यूयार्क में जुलाई 1994 ई. में रचित The song of the Sannyasin नामक कविता का काव्यानुवादक-सुमित्रानन्दन पन्त।
सन 1994 में (15 जून-7 अगस्तः सात सप्ताह) सेंट लारेंस नदी में Thausand lsland Park (सहस्त्रद्वीपोद्यान) में आश्रमसदृश निर्जनस्थान-वासकाल में एकत्र शिष्यवृन्द को स्वामीजी ने जो प्रेरणादीप्त उपदेश दिए थे वही परवर्तीकाल में दैवीवाणी (Inspired talks) नामक पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए थे। उन्हीं दिनों एक दिन अपरान्ह में त्याग की महिमा एवं गैरिक का अन्तर्निहित आनन्द एवं आत्मा की स्वाधीनता की बात करते रहते सहसा स्वामीजी अपने कक्ष में चले गए एवं कुछ काल पश्चात यह कविता लिख लाए तथा पाठ करते हुए शिष्यों को सुनाने लगे। इस कविता में वेदान्तोक्त साधना की एवं जीवमुक्ति की बात अपूर्व व्यज्जनापूर्वक अभिव्यक्ति है। यह कविता ब्रह्मवादिन (अंग्रेजी) पत्रिका के अंक 2, (सितम्बर 1894) में प्रथम बार प्रकाशित हुई थी।


तोड़ो सब श्रृंखला, उन्हें निज जीवन-बन्धन जान,
हों उज्जवल कांचन के अथवा क्षुद्र धातु के म्लान,
प्रेम-घृणा, सद-असद, सभी ये द्वन्द्वों के संधान !
दास सदा ही दास, समादृत वा ताड़ित- परतंत्र,
स्वर्ण निगड़ होने से क्या वे सुदृढ़ न बन्धन-यंत्र ?
अतः उन्हें संन्यासी तोड़ो, छिन्न करो, गा यह मंत्र,

ओम् तत्सत् ओम् !

अंधकार हो दूर, ज्योति-छल जल-बुझ बारंबार,
दृष्टि भ्रमित करता, तह पर तह मोह तमस् विस्तार !
मिटे अजस्त्र तृषा जीवन की, जो आवागम द्वार,
 जन्म-मृत्यु के बीच खींचती आत्मा को अनजान,
विश्वजयी वह आत्मजयी जो, मानों इसे प्रमाण,
अविचल अतः रहो संन्यासी, गाओ निर्भय गान,

ओम् तत्सत् ओम् !


 ‘बोओगे पायोगे,’ निश्चित कारण-कार्य-विधान !
कहते, ‘शुभ का शुभ औ’ अशुभ अशुभ का फल’, धीमान्
‘दुर्निवार यह नियम, जीव के नाम-रूप परिधान
बंधन हैं’, सच है, पर दोनों नाम रूप के पार
नित्य मुक्त आत्मा करती है। बंधनहीन विहार !
तुम वह आत्मा हो संयासी, बोलो वीर उदार,

ओम् तत्सत् ओम्

 ज्ञानशून्य वे, जिन्हें सूझते स्वप्न सदा निःसार-
माता, पिता, पुत्र औ’ भार्या, बांधव–जन, परिवार !
लिंगमुक्त है आत्मा ! किसका पिता, पुत्र या दार ?
किसका शत्रु, मित्र वह, जो है एक अभिन्न अनन्य,
 उसी सर्वगत आत्मा का अस्तित्व, नहीं अन्य।
कहो ‘तत्त्वमसि’ संन्यासी, गाओ हे, जग हो धन्य,

ओम् तत्सत् ओम् !

एकमात्र है केवल आत्मा, ज्ञाता, चिर निर्मुक्त,
नामहीन वह रूपहीन, वह है रे चिह्न अयुक्त,
उसके आश्रित माया, रचती स्वप्नों का भवपाश,
साझी वह, जो पुरुष प्रकृति में पाता नित्य प्रकाश !
तुम वह हो बोलो संन्यासी, छिन्न करो तम-तोम

ओम् तत्सत् ओम् !

कहाँ खोजते उसे सखे, इस ओर कि या उस पार ?
मुक्ति नहीं हैं यहां, वृथा सब शास्त्र, देव-गृहद्वार !
व्यर्थ यत्न सब, तुम्हीं हाथ में पकड़े हो वह पाश
खींच रहा जो साथ तुम्हें ! तो उठो, बनो न हताश,
छो़ड़ो कर से दाम, कहो, संन्यासी, विहँस रोम,
ओम् तत्सत् ओम् !

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