लोगों की राय

विवेकानन्द साहित्य >> मरणोत्तर जीवन

मरणोत्तर जीवन

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :26
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5931
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

174 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक मरणोत्तर जीवन...

Marottar Jeevan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

प्रस्तुत पुस्तक का चतुर्दश संस्करण पाठकों के सम्मुख रखते हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। यह पुस्तक स्वामी विवेकानन्दजी के मौलिक अंग्रेजी लेखों का हिन्दी अनुवाद है। इस पुस्तक में स्वामी जी ने पुनर्जन्म के संबंध में हिन्दू मत तथा पाश्चात्य मत दोनों की बड़ी सुन्दर रूप से विवेचना की है और इन दोनों मतों की पारस्परिक तुलना करते हुए इस विषय को भलीभाँति समझा दिया है कि हिन्दुओं का पुनर्जन्मवाद वास्तव में किस प्रकार नितान्त तर्कयुक्त है, साथ ही यह भी मनुष्य की अनेकानेक प्रवृत्तियों का स्पष्टीकरण केवल इसी के द्वारा किस प्रकार हो सकता है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे इस प्रकाशन से समस्त जनता का विशेष हित होगा।

प्रकाशक


मरणोत्तर जीवन

क्या आत्मा अमर है ?


‘‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।

(भगवद्गीता, 2/17)

उस बृहत् पौराणिक ग्रन्थ ‘‘महाभारत’’ में एक आख्यान है जिसमें कथानायक युधिष्ठिर से धर्म ने प्रश्न किया कि संसार में सब से आश्चर्यजनक क्या है ? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि मनुष्य अपने जीवन भर प्राय: प्रतिक्षण अपने चारों ओर सर्वत्र मृत्यु का ही दृश्य देखता है, तथापि उसे ऐसा दृढ़ और अटल विश्वास है कि मैं मृत्युहीन हूँ। और मनुष्य-जीवन में यह सचमुच अत्यन्त आश्चर्यजनक है। यद्यपि भिन्न-भिन्न मतावलम्बी भिन्न-भिन्न जमाने में इसके विपरीत दलीलें करते आये और यद्यपि इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य और अतीन्द्रिय सृष्टियों के बीच जो रहस्य का परदा सदा पड़ा रहेगा उसका भेदन करने में बुद्ध असमर्थ है, तथापि मनुष्य पूर्ण रूप से यही मानता है कि वह मरणहीन है।

हम जन्म भर अध्ययन करने के पश्चात् भी अन्त में जीवन और मृत्यु की समस्या को तर्क द्वारा प्रामाणित करके, ‘‘हाँ’’ या ‘‘नहीं’’ में उत्तर देने में असफल  रहेंगे। हम मानव-जीवन की नित्यता या अनित्यता के पक्ष में या विरोध में चाहे जितना बोले या लिखें, शिक्षा दे या उपदेश करे, हम इस पक्ष के या उस पक्ष के प्रबल या कट्टर पक्षपाती बन जायँ; एक से एक पेचीदे सैकड़ों नामों का आविष्कार करके क्षण भर के लिए इस भ्रम में पड़कर भले ही शान्त हो जाएँ कि हमने समस्या को सदा के लिए हल कर डाला; हम अपनी शक्ति भर किसी एक विचित्र धार्मिक अन्धविश्वास या और भी अधिक आपत्तिजनक वैज्ञानिक अन्धविश्वासों से चाहे चिपकें रहें, परन्तु अन्त में तो यही देखेंगे कि हम तर्क की संकीर्ण गली में खिलवाड़ ही कर रहे हैं और केवल बार-बार मार गिराने के लिए मानो एक के बाद एक बौद्धिक गोटियाँ उठाते और रखते जा रहे हैं।

परन्तु केवल खेल की अपेक्षा बहुधा अधिक भयानक परिणामकारी इस मानसिक परिश्रम और व्यथा के पीछे एक यथार्थ वस्तु है- जिसका इस मानसिक परिश्रम और व्यथा के पीछे एक यथार्थ वस्तु है- जिसका प्रतिवाद नहीं हुआ है और प्रतिवाद हो नहीं सकता- वह सत्य, वह आश्चर्य जिसे महाभारत ने ‘अपने ही नाश (या मृत्यु) को सोच सकने की हमारी मानसिक असमर्थता’ कहकर बताया है। यदि मैं अपने नाश (या मृत्यु) की कल्पना करूँ भी, तो मुझे साक्षीरूप से खड़े होकर उसे देखते रहना होगा।

अच्छा, अब इस अद्भुत बात का अर्थ समझने का प्रयत्न करने के पूर्व हमें यह ध्यान में रखना है कि इसी एक तथ्य पर सारा संसार टिका हुआ है या खड़ा है। बाह्यजगत् की नित्यता अटूट संबंध अन्तर्जगत् की नित्यता से है। और चाहे विश्व के विषय में वह सिद्धान्त- जिसमें एक को नित्य और दूसरे को अनित्य बताया गया है- कितना ही युक्ति-संगत क्यों न दिखे, ऐसे सिद्धान्तवाले को स्वयं ही अपने ही शरीररूपी यन्त्र में पता चल जायेगा कि ज्ञानपूर्वक किया हुआ एक भी ऐसा कार्य सम्भव नहीं है जिसमें कि आन्तरिक और बाह्य संसार दोनों की नित्यता उस कार्य के प्रेरक कारणों का एक अंश न हो। यद्यपि यह बिलकुल सच है कि जब मनुष्य का मन अपनी मर्यादा के परे पहुँच जाता है तब तो वह द्वन्द्व को अखण्ड ऐक्य में परिणत हुआ देखता है। उस असीम सत्ता के इस ओर सम्पूर्ण बाह्य संसार-अर्थात् वह संसार जो हमारे अनुभव का विषय होता है- उसका अस्तित्व विषयी (ज्ञाता) के लिए है ऐसा ही जाना जाता है, या केवल ऐसा ही जाना जा सकता है। और यही कारण है कि हमें विषयी के विनाश की कल्पना करने के पूर्व विषय के विनाश की कल्पना करनी होगी।

यहाँ तक तो स्पष्ट है। परन्तु कठिनाई अब इसके बाद होती है। साधारणत: मैं स्वयं अपने को देह के सिवाय और कुछ हूँ, ऐसा सोच नहीं सकता। मैं देह हूँ यह भावना मेरी अपनी नित्यता की भावना के अन्तर्गत है, परन्तु देह को स्पष्ट ही उसी तरह अनित्य है जैसी कि सदा परिवर्तनशील स्वभाववाली समस्त प्रकृति।
तब फिर यह नित्यता है कहाँ ?

हमारे जीवन से संबंध रखनेवाली एक और अद्भुत वस्तु है- जिसके बिना ‘‘कौन जी सकेगा और और कौन क्षण भर के लिए भी जीवन का सुख भोग सकेगा ?’’- और वह है ‘स्वाधीनता की भावना’।

यही भावना हमें पग पग पर प्रेरित करती है, हमारे कार्यों को सम्भव बनाती है और हमारा एक दूसरे से परस्पर-संबंध नियमित करती है- इतना ही नहीं, मानवी जीवन रूपी वस्त्र का ताना और बाना यही है। तर्क-ज्ञान उसे अपने प्रदेश से अंगुल अंगुल हटाने का प्रयत्न करता है, उसके प्रान्त का एक एक नाका छीनता जाता है और प्रत्येक पद को कार्य-कारण की लोहनिर्मित श्रृंखला से दृढ़ता के साथ लोह-बन्धन में कस दिया जाता है। पर वह तो हमारे इस प्रयत्नों को देखकर हँसती है। और आश्चर्य तो यह है कि कार्य-कारण के जिस बृहत्पुंज के भीतर दबाकर उसका हम गला घोंटना चाहते थे, उसी के ऊपर वह अपने को प्रतिष्ठित किये हुए हैं !

 इसके विपरीत हो भी कैसे सकता है ? असीम वस्तु के उच्चतर सामान्यीकरण (Generalisation) द्वारा ही सदैव ससीम वस्तु को समझा जा सकता है। बुद्ध को मुक्त के द्वारा ही, सकारण को अकारण द्वारा ही समझा जा सकता है। बद्ध को मुक्त के द्वारा ही कारण को अकारण द्वारा ही समझा सकते हैं। परन्तु यहाँ भी पुन: वही कठिनाई है। मुक्त कौन है ? शरीर, या मन भी, क्या स्वाधीन है ? यह तो स्पष्ट है कि वे भी नियम से उतने ही बद्ध हैं, जितने कि संसार के और सब पदार्थ।

अब तो समस्या इस दुविधा का रूप धारण कर लेती है : या तो सारी सृष्टि केवल सदा परिवर्तनशील वस्तुओं का ही सामुदायिक रूप है- उसके सिवाय और कुछ नहीं है- और वह कार्यकारण के नियम ले ऐसी जकड़ी हुई है कि छूट नहीं सकती, उसमें से किसी अणुमात्र को भी स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त नहीं है, तथापि वह नित्यता और स्वतन्त्रता का एक अमिट भ्रम आश्चर्यजनक रूप में उत्पन्न कर रही है- अथवा हममें और सृष्टि में कोई ऐसी वस्तु है जो नित्य और स्वतन्त्र है, जिससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के मन का यह मौलिक प्राकृतिक विश्वास भ्रम नहीं है। यह विज्ञान का काम है कि उच्चतर सामान्यीकरण द्वारा सभी घटनाओं को समझाये। अत: जिस बात की सत्यता को समझाना है उसी के किसी बात का खण्डन करके शेष अंश को उपयुक्त बताकर समझाने की युक्ति वैज्ञानिक कदापि नहीं हो सकती, चाहे वह और कुछ भले ही क्यों न हो।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai