व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> जीना सीखो जीना सीखोस्वामी जगदात्मानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक जीना सीखो...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यदि मनुष्य को अपनी दिव्यता तथा अपने में छिपी महाशक्ति पर विश्वास
हो, तो वह अद्भुद कर्म कर सकता है। वह बचपन से ही अपनी आत्म-धारणा से
संलग्न नकारात्मक तथा दुर्बलतापूर्ण भावों को दूर कर सकता है। ऊर्जा,
महिमा, पवित्रता, एकाग्रता तथा साहस-जीवन में उन्नति के लिए जरूरी ये है
सभी गुण आत्मविश्वास से आ जाते है।
हमें निर्बल बनानेवाली जो भी नकारात्मक भावनाएं हममें विकसित हो गई हैं, उन्हें हटाना होगा। हमें अपने आत्मविश्वास को सबल बनाने की पद्धति विकसित करनी होगी। यह एक दिन में नहीं हो सकता। आरम्भ में यह असम्भव भी प्रतीत हो सकता है, परन्तु धैर्य तथा सतत प्रयास से हमें कठिनाइयों को पार करने तथा आत्मविश्वास प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। हमारे भीतर निहित अनन्त ऊर्जा का भण्डार व्यक्त किए जाने की प्रतीक्षा कर रहा है- इसका बोध होना ही आत्मविश्वास है। इसके अभाव में चिन्ता, भय, शंका, अकुशलता तथा हर तरह की निर्बलता आ जाती है। यह आत्मविश्वास तथा शक्तिशाली लोगों की दया पर निर्भर होने से रोकता है, हमारे मन को घृणा तथा निराशा से बचाता है और हमें अपने पैरों पर खड़े होने को प्रेरित करता है। इसी आत्मविश्वास की भावना से जीवन में आनेवाले प्रत्येक अवसर का लाभ उठाकर सफल होने की प्रेरणा मिलती है।
हमें निर्बल बनानेवाली जो भी नकारात्मक भावनाएं हममें विकसित हो गई हैं, उन्हें हटाना होगा। हमें अपने आत्मविश्वास को सबल बनाने की पद्धति विकसित करनी होगी। यह एक दिन में नहीं हो सकता। आरम्भ में यह असम्भव भी प्रतीत हो सकता है, परन्तु धैर्य तथा सतत प्रयास से हमें कठिनाइयों को पार करने तथा आत्मविश्वास प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। हमारे भीतर निहित अनन्त ऊर्जा का भण्डार व्यक्त किए जाने की प्रतीक्षा कर रहा है- इसका बोध होना ही आत्मविश्वास है। इसके अभाव में चिन्ता, भय, शंका, अकुशलता तथा हर तरह की निर्बलता आ जाती है। यह आत्मविश्वास तथा शक्तिशाली लोगों की दया पर निर्भर होने से रोकता है, हमारे मन को घृणा तथा निराशा से बचाता है और हमें अपने पैरों पर खड़े होने को प्रेरित करता है। इसी आत्मविश्वास की भावना से जीवन में आनेवाले प्रत्येक अवसर का लाभ उठाकर सफल होने की प्रेरणा मिलती है।
प्रकाशकीय
आज हम एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। एक ओर तो विज्ञान तथा
प्रौद्यौगिक में हुई सद्भुद प्रगति के कारण वर्तमान युग मानव-इतिहास का एक
उत्कृष्ट काल प्रतीत होता है। आज मानव को ज्ञान तथा सुख के ऐसे साधन सुलभ
हो गए है, जिनकी पिछली शताब्दियों में कल्पना तक नहीं की जा सकती थी;
परन्तु साथ ही हमें जड़वादी दर्शन पर आधारित स्वार्थ एवं भोगवाद नग्न
नृत्य भी देखने को मिलता है। पूरे देश में इसका फल चारित्रिक ह्यास के रूप
में देखने को मिल रहा है।
आज ऐसे साहित्य की महती आवश्यकता है, जो हमारी करुण पीढ़ी को नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की ओर आकृष्ट करके, उनकी आशा-आकाक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उनके चरित्र में उत्तम गुणों का समावेश करके जीवन को सर्वांगीण रूप से सफल बनाने में सहायक हो।
रामकृष्ण संघ के एक प्रवीण संन्यासी स्वामी जगदात्मानन्द जी ने युवकों को इसी जरूरत को ध्यान में रखकर कन्नड़ भाषा में एक पुस्तक लिखी थी, जो विगत अनेक वर्षो से अतीव लोकप्रिय रही है इसका अंग्रेजी अनुवाद पहले रामकृष्ण मिशन, सिंगापुर, द्वारा ‘Gospel of Life Sublime’ और बाद में रामकृष्ण मठ, चेन्नै, द्वारा ‘Learn to Live, Vol. l’ नाम से प्रकाशित हुआ है।
दिल्ली के डाक्टर कृष्ण मुरारी द्वारा हिन्दी में अनूदित तथा स्वामी विदेहात्मानन्द द्वारा सम्पादित होकर ‘विवेक-ज्योति’ मासिक के जनवरी 2000 से अगस्त 2001 ई. के 20 अंकों में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ था। नयी पीढ़ी के छात्रों के मार्गदर्शन में इसकी विशेष उपयोगिता का बोध करते हुए हम इसे पुस्तकाकार प्रकाशित कर रहे हैं।
आज ऐसे साहित्य की महती आवश्यकता है, जो हमारी करुण पीढ़ी को नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की ओर आकृष्ट करके, उनकी आशा-आकाक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उनके चरित्र में उत्तम गुणों का समावेश करके जीवन को सर्वांगीण रूप से सफल बनाने में सहायक हो।
रामकृष्ण संघ के एक प्रवीण संन्यासी स्वामी जगदात्मानन्द जी ने युवकों को इसी जरूरत को ध्यान में रखकर कन्नड़ भाषा में एक पुस्तक लिखी थी, जो विगत अनेक वर्षो से अतीव लोकप्रिय रही है इसका अंग्रेजी अनुवाद पहले रामकृष्ण मिशन, सिंगापुर, द्वारा ‘Gospel of Life Sublime’ और बाद में रामकृष्ण मठ, चेन्नै, द्वारा ‘Learn to Live, Vol. l’ नाम से प्रकाशित हुआ है।
दिल्ली के डाक्टर कृष्ण मुरारी द्वारा हिन्दी में अनूदित तथा स्वामी विदेहात्मानन्द द्वारा सम्पादित होकर ‘विवेक-ज्योति’ मासिक के जनवरी 2000 से अगस्त 2001 ई. के 20 अंकों में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ था। नयी पीढ़ी के छात्रों के मार्गदर्शन में इसकी विशेष उपयोगिता का बोध करते हुए हम इसे पुस्तकाकार प्रकाशित कर रहे हैं।
प्रकाशक
भूमिका
जीवन के लिए कुछ आदर्श बड़े जरूरी हैं, पर आज का शिक्षा-प्रणाली ने उन पर
ध्यान नहीं दिया है। आत्मविश्वास तथा उत्साह जगाने वाले इन आदर्शों के
प्रति हमारे युवकों की रुचि कैसे बढ़ाई जाए -इस पर मैंने काफी विचार किया
मुझे स्कूलों तथा कालेजों के युवा विद्यार्थियों को सम्बोधित करने के अनेक
अवसर मिले और मुझे अनुभव हुआ कि उन्हें केवल सिद्वान्तों का उपदेश देने के
स्थान पर, दृष्टान्तों के द्वारा सहज ही महत्त्वपूर्ण सत्यों को हृदयंगम
कराया जा सकता है। आज की शिक्षा तथ्यों के संग्रह पर बल देती है, पर
युवकों के चरित्र-गठन में विफल सिद्ध होती है। इस कारण हमारे युवक
आध्यात्मिक दृष्टि से सशक्त साहसी निर्भय तथा ईमानदार बनाने के साधनों से
वंचित रह गए है। अध्ययन के द्वारा बुद्धि तीक्ष्ण होती है। तो क्या हमारे
मनःसंयम तथा हृदय के विकास हेतु भी वैसा ही प्रशिक्षण नहीं होना चाहिए ?
हमारे बुद्धि जीवी अब तक चरित्र-गठन-विषयक कोई रचनात्मक योजना नहीं दे सके
हैं। कहावत है। ‘सैकड़ों सलाहों से एक सत्सर्ग भला।’
सफल
व्यक्तियों के लाभकारी अनुभव तथा घटनाएँ, रोचक तथा महत्त्वपूर्ण होने के
साथ ही चरित्र-गठन में भी सहायक होती है। पश्चिमी देशों में सच्ची घटनाओं
तथा अनुभवों पर आधारित अनेक पुस्तकें निकली हैं, जो हमारे युवकों को
प्रेरणा तथा मार्गदर्शन प्रदान कर सकती है।
ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो निर्बल तथा आत्मविश्वासहीन युवकों को निन्दा, दोषारोपण तथा डाँट-फटकार के द्वारा सुधारने की चेष्टा करते हैं। बुद्धिमान होते हुए भी, उन्हें बोध नहीं हो पाता कि एक युवक के स्वाभिमान को क्षति पहुंचाकर वे उसके जीवन का सत्यानास कर डालते हैं। उन लोगों ने अब तक इस समस्या को हल करने का कोई सच्चा प्रयास भी नहीं किया है। वैसे गलत मार्ग पर चलनेवालों को डाँटने और यहाँ तक कि दण्ड देने की भी जरूरत हो सकती है, पर इसी को सभी समस्याओं का एकमात्र हल नहीं माना जा सकता। युवकों की उग्रतापूर्वक निन्दा तथा शब्द-प्रहार करने अथवा निकम्मा बताने के स्थान पर उन्हें जिन चीजों की आवश्यकता है, वे हैं- उचित, प्रेरक दृष्टान्त और सही मार्गदर्शन। हमारे युवकों को परेशान कर रही इन समस्याओं का हल ढूँढ़ने का प्रयास ही इस पुस्तक का उद्देश्य है।
यदि युवक राष्ट की सम्पदा है, तो क्या उनमें ऐसे राष्ट्रनिर्माता भी हैं, जो अन्य राष्ट्रों के बीच उसका सिर ऊँचा कर सकें ? जो शिक्षा उन्हें दी गई है, उसकी सहायता से क्या वे अपनी तथा देश की रक्षा करने में समर्थ है ? क्या उनके मन में शताब्दियों से दलित तथा शोषित करोड़ों निर्धन लोगों के बारे में-जिनके श्रम से उन्हें शिक्षा व्यवसाय तथा अन्य सुविधाएँ पाने का अवसर मिला है भी थोड़ी चिन्ता, सद्भाव तथा सहानुभूति है ? कम-से-कम क्या उन्हें अपने क्षेत्र में कुछ कर दिखाने की तीव्र इच्छा है ? जो शरीर से निर्बल और आराम तथा विलासिता के दास हैं, जो आलसी व परोपजीवी हैं, जो राष्ट्र का रक्त चूस रहे है, ऐसे युवकों से राष्ट्र क्या अपेक्षा कर सकता है ? हमारे युवकों में परिश्रम के प्रति स्वाभाविक प्रेम का उदय क्यों नहीं हुआ ? मजबूरी-वश जैसे-तैसे और अनमने भाव से काम करने में भला क्या प्रशंसनीय है ? स्वार्थ की तीव्र धारा में बहते हुए पतन की खाई की ओर बढ़ रहे युवकों को रोकने में सक्षम क्या कोई सिद्धान्त या समाधान नहीं है?
युवक ही राष्ट्र के उत्साह, ऊर्जा तथा आशा के प्रतीक है। यदि हम उनकी इस अदम्य शक्ति को उचित तथा उपयोगी दिशा में न लगा सके, तो हमारी राष्ट्रीय योजनाएँ व्यर्थ हो जाएँगी। जनता के धन तथा कठिन परिश्रम के फल से शिक्षा पाए युवकों का मन आज किस ओर अग्रसर हो रहा है ? क्या उनके मन में श्रम के लिए सम्मान का भाव है ? लड़कों के पढ़-लिखकर परीक्षा पास करके काम-धन्धे में लग जाने या धन कमाना शुरू कर देने पर शिक्षक व माता –पिता अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। बच्चे उत्तम गुण अर्जित करके अच्छे इनसान बन रहे हैं या नहीं-इसकी किसी को चिन्ता नहीं।
ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो निर्बल तथा आत्मविश्वासहीन युवकों को निन्दा, दोषारोपण तथा डाँट-फटकार के द्वारा सुधारने की चेष्टा करते हैं। बुद्धिमान होते हुए भी, उन्हें बोध नहीं हो पाता कि एक युवक के स्वाभिमान को क्षति पहुंचाकर वे उसके जीवन का सत्यानास कर डालते हैं। उन लोगों ने अब तक इस समस्या को हल करने का कोई सच्चा प्रयास भी नहीं किया है। वैसे गलत मार्ग पर चलनेवालों को डाँटने और यहाँ तक कि दण्ड देने की भी जरूरत हो सकती है, पर इसी को सभी समस्याओं का एकमात्र हल नहीं माना जा सकता। युवकों की उग्रतापूर्वक निन्दा तथा शब्द-प्रहार करने अथवा निकम्मा बताने के स्थान पर उन्हें जिन चीजों की आवश्यकता है, वे हैं- उचित, प्रेरक दृष्टान्त और सही मार्गदर्शन। हमारे युवकों को परेशान कर रही इन समस्याओं का हल ढूँढ़ने का प्रयास ही इस पुस्तक का उद्देश्य है।
यदि युवक राष्ट की सम्पदा है, तो क्या उनमें ऐसे राष्ट्रनिर्माता भी हैं, जो अन्य राष्ट्रों के बीच उसका सिर ऊँचा कर सकें ? जो शिक्षा उन्हें दी गई है, उसकी सहायता से क्या वे अपनी तथा देश की रक्षा करने में समर्थ है ? क्या उनके मन में शताब्दियों से दलित तथा शोषित करोड़ों निर्धन लोगों के बारे में-जिनके श्रम से उन्हें शिक्षा व्यवसाय तथा अन्य सुविधाएँ पाने का अवसर मिला है भी थोड़ी चिन्ता, सद्भाव तथा सहानुभूति है ? कम-से-कम क्या उन्हें अपने क्षेत्र में कुछ कर दिखाने की तीव्र इच्छा है ? जो शरीर से निर्बल और आराम तथा विलासिता के दास हैं, जो आलसी व परोपजीवी हैं, जो राष्ट्र का रक्त चूस रहे है, ऐसे युवकों से राष्ट्र क्या अपेक्षा कर सकता है ? हमारे युवकों में परिश्रम के प्रति स्वाभाविक प्रेम का उदय क्यों नहीं हुआ ? मजबूरी-वश जैसे-तैसे और अनमने भाव से काम करने में भला क्या प्रशंसनीय है ? स्वार्थ की तीव्र धारा में बहते हुए पतन की खाई की ओर बढ़ रहे युवकों को रोकने में सक्षम क्या कोई सिद्धान्त या समाधान नहीं है?
युवक ही राष्ट्र के उत्साह, ऊर्जा तथा आशा के प्रतीक है। यदि हम उनकी इस अदम्य शक्ति को उचित तथा उपयोगी दिशा में न लगा सके, तो हमारी राष्ट्रीय योजनाएँ व्यर्थ हो जाएँगी। जनता के धन तथा कठिन परिश्रम के फल से शिक्षा पाए युवकों का मन आज किस ओर अग्रसर हो रहा है ? क्या उनके मन में श्रम के लिए सम्मान का भाव है ? लड़कों के पढ़-लिखकर परीक्षा पास करके काम-धन्धे में लग जाने या धन कमाना शुरू कर देने पर शिक्षक व माता –पिता अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। बच्चे उत्तम गुण अर्जित करके अच्छे इनसान बन रहे हैं या नहीं-इसकी किसी को चिन्ता नहीं।
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