लोगों की राय

विवेकानन्द साहित्य >> मेरी समर-नीति

मेरी समर-नीति

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :42
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5940
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

303 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक मेरी समर-नीति...

Meri Samar Niti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

‘मेरी समर-नीति’ पुस्तक का यह संस्करण पाठकों के सम्मुख रखते हमें प्रसन्नता हो रही है। स्वामी विवेकानन्दजी ने भारतवर्ष में जो स्फूर्तिप्रद, विचारोद्बोधक व्याख्यान दिये थे, वे काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। यह उन्हीं व्याख्यानों में से एक है। भारत की भावी सन्तान की मनोभूमि को संस्कारी बनाने के लिए स्वामीजी के रचनात्मक विचारों का समावेश इस व्याख्यान में पूर्ण रूप से पाया जाता है। आधुनिक वातावरण में, जब कि भारत प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होने की चेष्टा कर रहा है, यह पुस्तक भारतीयों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।

स्वर्गीय पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने, स्वामीजी के इस व्याख्यान को शुद्ध, सरल और मनोरम हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया है।
हमें अत्यंत हर्ष है कि हिन्दी भाषा-भाषियों ने इस पुस्तक का हृदय से स्वागत किया है।

प्रकाशक

मेरी समर-नीति

(मद्रास के विक्टोरिया हाल में दिया गया भाषण)

उस दिन अधिक भीड़ के कारण मैं भाषण समाप्त नहीं कर सका था, अतएव मद्रास-निवासी मेरे प्रति जो निरन्तर सदय व्यवहार करते आये हैं, उसके लिए आज मैं उन्हें अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। मैं यह नहीं जानता कि अभिनन्दनपत्रों में मेरे लिए जो सुन्दर विशेषण प्रयुक्त हुए हैं उनके लिए मैं किस प्रकार अपनी कृतज्ञता प्रकट करूँ। मैं प्रभु से इतनी ही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इन प्रशंसाओं के योग्य बना दें और इस योग्य भी कि मैं अपना सारा जीवन अपने धर्म और मातृभूमि की सेवा में अर्पण कर सकूँ।

मेरा ‘सन्देश’ वहन

मैं समझता हूँ कि मुझमें अनेक दोषों के होते हुए भी थोड़ा साहस है। मैं भारतवर्ष से पाश्चात्य देशों में कुछ सन्देश ले गया था, और उसे मैंने निर्भीकता से अमेरिका और इंग्लैन्डवासियों के सामने प्रकट किया। आज का विषय आरम्भ करने के पूर्व मैं साहसपूर्वक दो शब्द आप लोगों से कहना चाहता हूँ। कुछ दिनों से मेरे चारों ओर कुछ ऐसी अवस्थाएँ उपस्थित हो रही हैं, जो मेरे कार्य की उन्नति में विशेष रूप से विघ्न डालने की चेष्टा कर रही हैं; यहाँ तक कि, यदि सम्भव हो सके, तो वे मुझे एकबारगी कुचलकर मेरा अस्तित्व ही नष्ट कर डालें। पर ईश्वर को धन्यवाद कि ये सारी चेष्टाएँ विफल हो गयीं हैं,—और इस प्रकार की चेष्टाएँ सदैव विफल सिद्ध होती हैं।

मैं गत तीन वर्षों से देख रहा हूँ, कुछ लोग मेरे एवं मेरे कार्यों के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्त धारणाएँ किये हुए हैं। जब तक मैं विदेश में था, मैं चुप रहा; मैं एक शब्द भी नहीं बोला। पर आज मैं अपने देश की भूमि पर खड़ा हूँ, मैं उन भ्रामक बातों को स्पष्ट करने के लिए कुछ कह देना आवश्यक समझता हूँ। इन शब्दों का क्या फल होगा, अथवा ये शब्द आप लोगों के हृदय में किन-किन बातों का उद्रेक करेंगे, इसकी मैं परवाह नहीं करता। लोगों के मतामत की मुझे कोई अधिक चिन्ता नहीं; क्योंकि मैं वही संन्यासी हूँ जिसने लगभग चार वर्ष पहले अपने दण्ड और कमण्डल के साथ संन्यासी के वेष में आपके नगर में प्रवेश किया था और वही सारी दुनिया इस समय मेरे सामने पड़ी है।

थियोसोफिकल सोसायटी

बिना और अधिक भूमिका के मैं अब अपने विषय को आरम्भ करता हूँ। सब से पहले मुझे थियोसोफिकल सोसायटी के सम्बन्ध में कुछ कहना है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उक्त सोसायटी से भारत का कुछ भला हुआ है। और इसके प्रत्येक हिन्दू उक्त सोसायटी और विशेषकर श्रीमती बेसेन्ट का कृतज्ञ है। यद्यपि मैं श्रीमती बेसेन्ट के सम्बन्ध में बहुत कम जानता हूँ, पर जो कुछ भी उनके बारे में मालूम है, उसके आधार पर मेरी धारणा है कि वे हमारी मातृभूमि की सच्ची हितचिन्तक और यथाशक्ति उसकी उन्नति की चेष्टा कर रही हैं; इसलिए वे प्रत्येक सच्ची भारत-सन्तान की विशेष कृतज्ञता की अधिकारिणी हैं। प्रभु उन पर तथा उनसे सम्बन्धित सभी लोगों पर आशीर्वाद की वर्षा करें ?

परन्तु यह एक बात है, और थियोसोफिकल सोसायटी के कार्य में हाथ बँटाना एक दूसरी बात। भक्ति श्रद्धा और प्रेम एक बात है, और कोई मनुष्य जो कुछ कहे, उसे बिना विचारे, बिना तर्क किये, बिना उसका विश्लेषण किये निगल जाना सर्वथा दूसरी बात है। एक बात चारों ओर फैल रही है और वह यह कि अमेरिका और इंग्लैण्ड में जो कुछ काम मैंने किया है, उसमें थियोसोफिस्टों ने मेरी सहायता की है। मैं आप लोगों को स्पष्ट शब्दों में बता देना चाहता हूँ कि इस बात का प्रत्येक शब्द झूठ है। हम लोग इस जगत् में उदार भावों एवं भिन्न मतवालों के प्रति सहानुभूति के सम्बन्ध में बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें सुना करते हैं। यह है तो बहुत अच्छी बात, पर कार्यतः हम देखते हैं कि जब तक कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य की सब बातों में विश्वास करता है, केवल तभी तक वह उससे सहानुभूति पाता है; पर ज्योंहि वह किसी विषय में उससे भिन्न विचार रखने का साहस करता है, त्योंही वह सहानुभूति गायब हो जाती है, वह प्रेम समाप्त हो जाता है।

ब्राह्मसमाज और मिशनरी

फिर, कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनका अपना एक-एक स्वार्थ रहता है। और यदि किसी देश में ऐसी कोई बात हो जाय, जिससे उनके स्वार्थ में कुछ धक्का लगता हो, तो उनके हृदय में इतनी ईर्ष्या और घृणा उत्पन्न हो जाती है कि वे उस समय क्या कर डालेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता। यदि हिन्दू अपना अपना घर साफ करने की चेष्टा करते हों तो इससे ईसाई मिशनरियों का क्या बिगड़ता है ?

यदि हिन्दू प्राणपण से अपना सुधार करने का प्रयत्न करते हों, तो इसमें ब्रह्मसमाज और अन्यान्य सुधार-समितियों का क्या बिगड़ता है ? ये लोग हिन्दुओं के सुधार के विरोध में क्यों खड़े हों ? ये लोग इस आन्दोलन के प्रबलतम शत्रु क्यों हैं ? क्यों ?—यही मेरा प्रश्न है। मेरी समझ में तो उनकी घृणा और ईर्ष्या की मात्रा इतनी अधिक है कि इस विषय में उनसे किसी प्रकार का प्रश्न करना भी सर्वथा निरर्थक है।

थियोसोफिकल सोसायटी

अब मैं पहले थियोसोफिस्टों के बारे में कहूँगा। आज से चार वर्ष। पहले जब मैं अमेरिका जा रहा था—सात समुद्र पार, बिना किसी परिचय-पत्र के, बिना किसी जान-पहचान के, एक धनहीन, मित्रहीन, अज्ञात संन्यासी के रूप में—तब मैंने थियोसोफिकल सोसायटी के नेता से भेंट की। स्वभावतः मैंने सोचा था कि जब ये अमेरिकावासी हैं और भारत-भक्त हैं, जो सम्भवतः अमेरिका के किसी सज्जन के नाम मुझे एक परिचय-पत्र दे देंगे।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai