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मन की शक्तियाँ तथा जीवन-गठन की साधनाएँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :36
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5942
आईएसबीएन :00000

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मन की शक्तियाँ तथा जीवन-गठन की साधनाएँ

Man Ki Shaktiyan Tatha Jeevan Gathan Ki Sadhnayein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

‘‘मन की शक्तियाँ तथा जीवन-गठन की साधनाएँ’’ यह पुस्तक पाठकों के हाथ में देते हमें प्रसन्नता हो रही है। मनुष्य यदि जीवन के चरम लक्ष्य अर्थात् पूर्णत्व को प्राप्त करने का इच्छुक है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने मन के स्वभाव को भलीभाँति परख ले। मन की शक्तियाँ सचमुच बड़ी ही आश्चर्यजनक हैं। स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताये हैं। स्वामीजी स्वयं एक सिद्ध महात्मा थे; उन्हें उन साधनाओं का पूर्ण ज्ञान था, जिनके सहारे एक साधक चरम उद्देश्य अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त कर सकता है। यह सत्य है कि ये साधानाएँ भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के स्वभाव तथा उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग हो सकती हैं। इस पुस्तक में स्वामीजी ने उन साधानाओं का व्यवहार में लाने के लिए जो उपदेश तथा सुझाव दिये हैं वे साधक के लिए वास्तव में बड़े उपयोगी सिद्ध होंगे।
हमें विश्वास है कि इस पुस्तक से पाठकों का निश्चय ही हित होगा।

प्रकाशक

मन की शक्तियाँ तथा जीवन-गठन की साधनाएँ

***
मन की शक्तियाँ

(लास एन्जल्स, कैलिफोर्निया, में दिया हुआ भाषण, 8-1-1900)

सारे युगों से, संसार के सब लोगों का अलौकिक घटनाओं में विश्वास चला आ रहा है। हम सभी ने अनेक अद्भुत चमत्कारों के बारे में सुना है और हममें से कुछ ने उनका स्वयं अनुभव भी किया है। इस विषय का प्रारम्भ आज मैं स्वयं देखे हुए चमत्कारों को बतलाकर करूँगा। मैंने एक बार ऐसे मनुष्य के बारे में सुना जो किसी के मन के प्रश्न का उत्तर प्रश्न सुनने के पहले ही बता देता था। और मुझे यह भी बतलाया गया है कि वह भविष्य की बातें भी बताता है। मुझे उत्सुकता हुई और अपने कुछ मित्रों के साथ मैं वहाँ पहुँचा। हममें से प्रत्येक ने पूछने का प्रश्न अपने मन में सोच रखा था। ताकि गलती न हो, हमने वे प्रश्न कागज पर लिखकर जेब में रख लिये थे। ज्योंही हममें से एक वहाँ पहुँचा, त्योंही उसने हमारे प्रश्न और उनके उत्तर कहना शुरू कर दिया ! फिर उस मनुष्य ने कागज पर कुछ लिखा, मोड़ा और उसके पीछे मुझे हस्ताक्षर करने के लिए कहा, और बोला, ‘‘इसे पढ़ो मत, जेब में रख लो, तब तक कि मैं इसे फिर न माँगू।’’

इस तरह उसने हर एक से कहा। बाद में उसने हम लोगों को हमारे भविष्य की कुछ बातें बतलायीं। फिर उसने कहा, ‘‘अब किसी भी भाषा का कोई शब्द या वाक्य तुम लोग अपने मन में सोच लो।’’ मैंने संस्कृत का एक लम्बा वाक्य सोच लिया। वह मनुष्य संस्कृत बिलकुल न जानता था। उसने कहा, ‘‘अब अपने जेब का कागज निकालो।’’ कैसा आश्चर्य। ‘‘वहीं संस्कृति का वाक्य उस कागज पर लिखा था ! और नीचे यह भी लिखा था कि ‘जो कुछ मैंने इस कागज पर लिखा है, वही यह मनुष्य सोचेगा।’ और यह बात उसने एक घण्टा पहले ही लिख दी थी ! फिर हममें से दूसरे को, जिसके पास भी उसी तरह का एक कागज था, कोई एक वाक्य सोचने को कहा गया। उसने अरबी भाषा का एक फिकरा सोचा। अरबी भाषा का जानना तो उसके लिए और भी असम्भव था। वह फिकरा था ‘कुरान शरीफ’ का। लेकिन मेरा मित्र क्यों देखता है कि वह भी कागज पर लिखा है ! हममें से तिसरा था वैद्य। उसने किसी जर्मन की वैद्यकीय पुस्तक का वाक्य अपने मन में सोचा। उसके कागज पर वह वाक्य भी लिखा था !

यह सोचकर की कहीं पहले मैंने धोखा न खाया हो, कई दिनों बाद मैं फिर दूसरे मित्रों को साथ लेकर वहाँ गया। लेकिन इस बार भी उसने वैसी ही आश्चर्यजनक सफलता पायी।

एक बार जब मैं हैदराबाद में था, तो मैंने एक ब्राह्मण के विषय में सुना। यह मनुष्य न जाने कहाँ से कई वस्तुएँ पैदा कर देता था। वह उस शहर का व्यापारी था, और ऊँचे खानदान का था। मैंने उससे अपने चमत्कार दिखलाने को कहा। इस समय ऐसा हुआ वह मनुष्य बीमार था। भारतवासियों में यह विश्वास है कि अगर कोई पवित्र मनुष्य किसी के सिर पर हाथ रख दे, तो उसका बुखार उतर जाता है। यह ब्राह्मण मेरे पास आकर बोला, ‘‘महाराज, आप अपना हाथ मेरे पर रख दें जिससे मेरा बुखार भाग जाय।’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है, परन्तु तुम हमें अपना चमत्कार दिखलाओ।’’ वह राजी हो गया। उसकी इच्छानुसार मैंने अपना हाथ उसके सिर पर रखा और बाद में वह अपना वचन पूरा करने आगे बढ़ा। वह केवल एक दुपट्टा पहने था। उसके अन्य सब कपड़े हमने अपने पास ले लिये थे। अब मैंने उसे केवल एक कम्बल ओढ़ने के लिए दिया, क्योंकि ठण्ड के दिन थे, और उसे एक कोने में बिठा दिया। पचास आँखें उसकी ओर ताक रही थीं।

उसने कहा, ‘‘अब आप लोगों को जो चाहिए, वह कागज पर लिखिए।’’ हम सब लोगों ने उन फलों के नाम लिखे, जो उस प्रान्त में पैदा तक न होते थे-अंगूर के गुच्छे, सन्तरे इत्यादि। और हमने वे कागज उसके हाथ में दे दिये। कैसा आश्चर्य ! उसके कम्बल में से अंगूर के गुच्छे तथा सन्तरे आदि इतनी संख्या में निकले कि अगर वजन किया जाता, तो वे सब उस आदमी के वजन से दुगने होते ! उसने हमसे उन फलों को खाने के लिए कहा। हममें से कुछ लोगों ने यह सोचकर कि शायद यह जादू टोना हो, खाने से इन्कार किया। लेकिन जब उस ब्राह्मण ने ही खुद खाना शुरू कर दिया, तो हमने भी खाया। वे सब फल खाने योग्य ही थे।

अन्त में उसने गुलाब के ढेर निकाले। हरएक फूल पूरा खिला था। पँखुड़ियों पर ओस बिन्दु थे। कोई भी फूल न टूटा था। और न दबकर खराब ही हुआ था। और उसने ऐसे एक-दो नहीं, वरन् ढेर-के-ढेर निकाले ! जब मैंने पूछा कि यह कैसे किया, तो उसने कहा, ‘‘यह सिर्फ हाथ की सफाई है !’’
यह चाहे जो कुछ हो, परन्तु केवल हाथ की सफाई होना तो असम्भव था। इतनी बड़ी संख्या में वह ये चीजें कहाँ से पा सकता था ?

हाँ, तो मैंने इसी तरह की अनेक बातें देखी। भारतवर्ष में घूमते समय भिन्न-भिन्न स्थानों में तुम्हें ऐसी सैकड़ों बातें दिखेंगी। ये चमत्कार सभी देशों में हुआ करते हैं। इस देश में भी इस तरह के आश्चर्यकारक काम देखोगे। हाँ यह सच है कि इनमें अधिकांश धोखेबाजी होती है। परन्तु जहाँ धोखेबाजी देखते हो, वहाँ तुम्हें यह भी मानना पड़ता है कि यह किसी की नकल है। कहीं-न-कहीं कोई सत्य होना ही चाहिए, जिसकी यह नकल की जा रही है। अविद्यमान वस्तु की कोई नकल नहीं कर सकता। किसी विद्यमान वस्तु की ही नकल की जा सकती है।



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