लोगों की राय

विवेकानन्द साहित्य >> चिन्तनीय बातें

चिन्तनीय बातें

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :77
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5943
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

294 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक चिन्तनीय बातें...

Chintniy Baten

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

(प्रथम संस्करण)
विविध महत्त्वपूर्ण विषयों पर स्वामी विवेकानन्दजी के कुछ लेखों की ‘चिन्तनीय बातें’ के रूप में हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वामीजी ने अपनी मौलिक शैली में ‘हमारी वर्तमान समस्या’, ‘ज्ञानार्जन’, ‘चिन्तनीय बातें’ इत्यादि विषयों पर अपने विचार प्रकट किये हैं और उनके द्वारा व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय जीवन की कुछ धार्मिक तथा सामाजिक समस्याओं को सामने रखते हुए उन्हें सुलझाने का मार्ग दिग्दर्शित किया है। धर्मप्राण भारत आज प्रकृत धर्म को खोजकर सामाजिक, व्यवस्थानों के अपने महान् आदर्श को भूलकर पतन की किस गहराई तक उतर चुका है, इसकी स्पष्ट झाँकी स्वामीजी ने दर्शाई है, और व किस प्रकार पुनः अपनी खोयी हुई आध्यात्मिकता को लाभ कर पूर्ववत्-नहीं, पहले से भी अधिक उन्नत हो सकता है तथा संसार के समस्त राष्ट्रों का अग्रणी बन सकता है यह भी उन्होंने अपूर्व ढंग से समझाया है। ये सब बातें हमारे लिए विशेषरूप से चिन्तनीय हैं।

प्राध्यापक श्री सुशील कुमार चन्द्र, एम.ए. के हम बड़े आभारी हैं, जिन्होंने मूल बंगला से प्रस्तुत पुस्तक के लेखों का अनुवाद किया है। सुन्दर भाषा में स्वामीजी के भावों को अक्षुण्ण बनाये रखने में उन्होंने जो सफलता पाई है, वह सराहनीय है।
हमारा यह पूर्ण विश्वास है कि स्वामीजी के ये चार पाठकों को सुचारु रूप से अपना जीवन गढ़ने तथा सामाजिक एवं राष्टीय पुनरुत्थान के पथप्रदर्शन में बड़े सहायक होंगे।

प्रकाशक

चिन्तनीय बातें

हमारी वर्तमान समस्या

भारत की प्राचीन कथाएँ एक देवतुल्य जाति के अलौकिक उद्यम, अद्भुत चेष्टा, असीम उत्साह, अप्रतिहत शक्तिसमूह और सर्वोपरि, अत्यन्त गम्भीर चिन्ताओं से परिपूर्ण हैं। ‘इतिहास’ शब्द का अर्थ यदि केवल राजे-रजवाड़ों की कथाएँ ही ली जायें, उनके काम-क्रोध-व्यसनादि के द्वारा समय समय पर डाँवाडोल और उनकी सुचेष्टा या कुचेष्टा से रंग बदलते हुए समाज के चित्र ही यदि इतिहास माने जायें, तो कहना होगा कि इस प्रकार का समस्त इतिहास सम्भवतः भारत का है ही नहीं।

किन्तु भारत के समस्त धर्मग्रन्थ, काव्यसिन्धु, दर्शनशास्त्र और विविध वैज्ञानिक पुस्तकें अपने प्रत्येक पद और पंक्ति से, राजादि पुरुषविशेषों का वर्णन करनेवाली पुस्तकों की अपेक्षा सहस्रों गुना, अधिक स्पष्ट रूप से, भूख-प्यास-काम-क्रोधादि से परिचालित सौन्दर्यतृष्णा से आकृष्ट, महान् अप्रतिहत बुद्धिसम्पन्न उस बहत् जनसंघ के अभ्युदय के क्रमविकास का गुणगान कर रही हैं, जिस जनमानस ने सभ्यता के प्रत्यूष के पहले ही नाना प्रकार के भावों का आश्रय ले नाना विध पथों का अवलम्बन् कर इस पूर्णता की अवस्था को प्राप्त  स्वामीजी ने उपर्युक्त निबन्ध 14 जनवरी 1899 से प्रकाशित होनेवाले रामकृष्ण मिशन के पाक्षिक पत्र ‘उद्बोधन’ (जिसने बाद में मासिक रूप धारण कर लिया) के उपोद्घात के तौर पर लिखा था।

किया था। प्राचीन भारतवासियों ने प्रकृति के साथ युग-युगान्तर-व्यापी संग्राम में जो असंख्य जयपताकाएँ संग्रह की थीं, वे झंझावत के झकोरे में पड़कर यद्यपि आज जीर्ण हो गयी हैं, किन्तु फिर भी वे भारत में अतीत गौरव की जयघोषणा कर रही हैं।

इस जाति ने मध्य-एशिया, उत्तर यूरोप अथवा सुमेरु पहाड़ के निकटवर्ती बर्फीले प्रदेशों से धीरे-धीरे उतरकर पवित्र भारत-भूमि को तीर्थ में परिणत किया था, अथवा यह तीर्थभूमि भारत ही उनका आदिम निवास स्थान था—इसके निश्चय करने का अब तक भी कोई साधन उपलब्ध नहीं है, अथवा भारतवर्ष की ही या भारतवर्ष की सीमा के बाहर किसी देश में रहनेवाली एक विराट् जाति ने नैसर्गिक नियम के अनुसार स्थानभ्रष्ट होकर यूरोपादि देशों में उपनिवेश स्थापित किये, और इस जाति के मनुष्यों का रंग सफेद था या काला, आँखें नीली थीं या काली, बाल सुनहरे थे या काले—इन बातों को निश्चयात्मक रूप से जानने के लिए कतिपय यूरोपीय भाषाओं के साथ संस्कृत भाषा के सादृश्य के अतिरिक्त कोई यथेष्ट प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। वर्तमान भारतवासी उस विराट् जाति के मनुष्य के ही वंशज हैं या नहीं अथवा भारत की किस जाति में किस परिणाम में उनका रक्त है, इन प्रश्नों की मीमांसा भी सहज नहीं है।
जो भी हो, इन प्रश्नों की यदि निश्चित रूप से मीमांसा नहीं भी होती तो भी हमारी कोई विशेष हानि नहीं है।

पर एक बात ध्यान में रखनी होगी, और वह यह कि जो प्राचीन भारतीय जाति सभ्यता की रश्मियों से सर्वप्रथम उन्मीलित हुई और जिस देश में सर्वप्रथम चिन्ताशील का पूर्ण विकास हुआ, उस जाति और उस स्थान में उसके लाखों वंश--मानसपुत्र—उसके भाव एवं चिन्तनराशि के उत्तराधिकारी अब भी मौजूद हैं। नदी, पर्वत और समुद्र लाँघकर, देशकाल की बाधाओं को नगण्य कर, स्पष्ट या अज्ञात अनिवर्चनीय सूत्र से भारतीय चिन्तन की रुदिरधारा धरातल पर रहनेवाली अन्य जातियों की नसों में बही और अब भी बह रही है।

शायद हमारे हिस्से में सार्वभौमिक पैतृक सम्पत्ति का कुछ अधिक अंश है।
भूमध्यसागर के पूर्व की ओर सुन्दर दीपमाला-परिवेष्टित, प्रकृति के सौंदर्य से विभूषित एक छोटे देश में, थोड़े से किन्तु सर्वांगसुन्दर, सुगणित, मजबूत, अटल अध्यवसायी, पार्थिव सौन्दर्य-सृष्टि के एकाधिराज, अपूर्व क्रियाशील प्रतिभाशील मनुष्यों की एक जाति थी।
अन्यान्य प्राचीन जातियाँ उनको ‘यवन’ कहती थीं। किन्तु वे अपने को ‘ग्रीक’ कहते थे।
मानवी इतिहास में यह मुष्टिमेय अलौकिक जाति एक अपूर्व दृष्टान्त है। जिस किसी देश के मनुष्यों ने समाजनीति, युद्धनीति, देशशासन, शिल्पकला आदि पार्थिव विद्याओं में उन्नति की है या जहाँ अब भी उन्नति हो रही है, वहीं ग्रीस की छाया पड़ी है। प्राचीन काल की बात छोड़ दीजिये; आधुनिक समय में भी आधी शताब्दी से इन यवन गुरुओं का पदानुकरण कर यूरोपीय साहित्य के द्वारा जो ग्रीसवालों का प्रकाश आया है, उसी प्रकाश से अपने गृहों को उज्ज्वल करके हम आधुनिक बंगाली अभिमान और स्पर्धा का अनुभव कर रहे हैं।

समग्र यूरोप आज सब विषयों में प्राचीन ग्रीस का छात्र और उत्तराधिकारी है; यहाँ तक कि इंग्लैंड के एक विद्वान् ने कहा भी है कि, ‘‘जो कुछ प्रकृति ने उत्पन्न नहीं किया है, वह ग्रीसवालों की सृष्टि है।’’
सुदूरस्थित विभिन्न पर्वतों (भारत और ग्रीस) से उत्पन्न इन दो महानदों (आर्य और ग्रीक) का बीच बीच में संगम होता रहता है; और जब कभी इस प्रकार की घटना घटती है, तभी जनमानस में एक बड़ी आध्यात्मिक तरंग उठकर सभ्यता की रेखा का दूर दूर तक विस्तार कर देती है और मानवसमाज में भ्रातृत्वबन्धन को अधिक दृढ़ कर देती है।

अत्यन्त प्राचीन काल में एक बार भारतीय दर्शनविद्या ग्रीक उत्साह के साथ मिलकर रूसी, ईरानी आदि शक्तिशाली जातियों के अभ्युदय में सहायक हुई। सिकन्दर शाह के दिग्विजय के पश्चात् इन दो महाजलप्रतापों के संघर्ष के फलस्वरूप ईसा आदि नाम से प्रसिद्ध आध्यात्मिक तरंग ने प्रायः अर्ध भूभाग को प्लावित कर दिया। पुनः इस प्रकार के मिश्रण से अरब का अभ्युदय हुआ, जिससे आधुनिक यूरोपीय सभ्यता की नींव पड़ी एवं ऐसा जान पड़ता है कि वर्तमान समय में भी पुनः इन दो महाशक्तियों का सम्मिलन-काल उपस्थित हुआ है।
अब की बार (उनका) केन्द्र है भारतवर्ष।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book