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विवेकानन्द साहित्य >> भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास एवं अन्य प्रबंध

भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास एवं अन्य प्रबंध

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5950
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास एवं अन्य प्रबंध

Bharat Ka Atihasik Kramvikas Evam Anya Praband a hindi book by Swami Vivekanand - भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास एवं अन्य प्रबंध - स्वामी विवेकानन्द

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

स्वामी विवेकानन्दकृत ‘‘भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास एवं अन्य प्रबन्ध’’ पुस्तक का पंचम संस्करण प्रकाशित करते हमें प्रसन्नता होती है। इस पुस्तक में स्वामीजी के कुछ महत्त्वपूर्ण बन्ध संकलित हैं। इन लेखों के विषय भिन्न भिन्न होते हुए भी, इन सभी से धर्म, संस्कृति, इतिहास, सामाजिक उन्नति आदि विषयों के सम्बन्ध में स्वामीजी का आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्रकट होता है। भारत धर्मभूमि है—साथ ही अनेक संस्कृतियों का सम्मिलन-क्षेत्र भी। भारतीय संस्कृति का विश्लेषण कर स्वामीजी ने दर्शाया है कि संसार को भारत की क्या देन है। भारत के ऐतिहासिक क्रमविकास का जो वर्णन स्वामीजी ने प्रस्तुत पुस्तक में किया है, वह अत्यन्त मौलिक तथा मननयोग्य है। स्वामीजी ने अपने वैशिष्ट्यपूर्ण शैली में यह भी दिखलाया है कि धर्म का यथार्थ रहस्य क्या है तथा मानव के विकास के लिए वह किस प्रकार सहायक हो सकता है। साथ ही, मातृभूमि के प्रति स्वामीजी का अगाध प्रेम तथा उसके उद्धार के लिए उनकी तीव्र आकांक्षा भी प्रस्तुत पुस्तक में अनायास ही प्रकट होती है।
पुस्तक में संगृहीत सभी प्रबन्ध अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा प्रकाशित ‘‘विवेकानन्द साहित्य’’ से संकलित किये गये हैं।

प्रकाशक

भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास एवं अन्य प्रबन्ध

भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास
ॐ तत् सत्
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय

नासतो सत् जायते !—असत् से सत् का आविर्भाव नहीं हो सकता।..
सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भाव सम्भव नहीं। कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं है, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति, इस जाति के मन्त्रदृष्टा कवियों ने उसका गौरव-गान गाया है, इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया है, और उसको वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन की समग्र योजना स्थिर करता है।

आरम्भ में इस जाति में एक अपूर्व जिज्ञासा थी, जिसका शीघ्र ही निर्भीक विश्लेषण में विकास हो गया। यद्यपि आरम्भिक प्रयासों का परिणाम एक भावी धुरन्धर शिल्पी के अनभ्यस्त हाथों के प्रयास जैसा भले ही हो, किन्तु शीघ्र ही उसका स्थान विशिष्ट विज्ञान, निर्भीक प्रयत्नों एवं आश्चर्यजनक परिणामों ने ले लिया।

इस निर्भीकता ने इन आर्य ऋषियों को स्वनिर्मित यज्ञ-कुण्डों की हर एक ईंट परीक्षण के लिए प्रेरित किया, उन्हें अपने धर्मग्रन्थों के शब्द-शब्द के विश्लेषण, प्रेषण और मन्थन के लिए उकसाया। इसी कारण उन्होंने धर्मकाण्ड को व्यवस्थित किया, उसमें परिवर्तन और पुनः परिवर्तन किया, उसके विषय में शंकाएँ उठायीं, उसका खण्डन किया और उसकी समुचित व्याख्या की। देवी-देवताओं के बारे में गहरी छानबीन हुई और उन्होंने सार्वभौम, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी सृष्टिकर्ता को, अपने पैतृक स्वर्गस्थ परम पिता को, केवल एक गौण स्थान प्रदान किया; या उसे व्यर्थ कहकर पूर्णरूपेण बहिष्कृत कर दिया गया और उसके बिना ही ऐसे विश्व-धर्म का सूत्रपात्र किया गया, जिसके अनुयायियों की संख्या आज भी अन्य धर्मालम्बियों की अपेक्षा अधिक है। विविध प्रकार की यज्ञ-वेदियों के निर्माण में ईंटों के विन्यास के आधार पर उन्होंने ज्यामित-शास्त्र का विकास किया और अपने ज्योतिष के उस ज्ञान से सारे विश्व को चकित कर दिया, जिसकी उत्पत्ति पूजन एवं अर्ध्यदान का समय निर्धारित करने के प्रयास में हुई। इसी कारण अन्य किसी अर्वाचीन या प्राचीन जाति की तुलना में गणित को इस जाति का योगदान सर्वाधिक है। उनके रसायन शास्त्र, औषधियों में धातुओं के मिश्रण, संगीत के स्वरों के सरगम के ज्ञान तथा उनके धनुषीय यन्त्रों के आविष्कारों से आधुनिक यूरोपीय सभ्यता के निर्माण में विशेष सहायता मिली है। उज्जवल दन्तकथाओं द्वारा, बाल मनोविकास के विज्ञान का आविष्कार इन दोनों ने किया। इन कथाओं को प्रत्येक सभ्य देश की शिशुशालाओं या पाठशालाओं में सभी बच्चे चाव से सीखते हैं और उनकी छाप जीवन भर बनी रहती है।

मेरी इस मातृभूमि के प्रति अर्पित है। और यदि मुझे हजार जीवन भी प्राप्त हों, तो प्रत्येक जीवन का प्रत्येक क्षण, मेरे देशवासियों, मेरे मित्रों, तुम्हारी सेवा में अर्पित रहेगा।

क्योंकि मेरा जो कुछ भी है—शारीरिक, मानसिक और आत्मिक—सब का सब इसी देश की देन है; और यदि मुझे किसी अनुष्ठान में सफलता मिली है, तो कीर्ति तुम्हारी है, मेरी नहीं। मेरी अपनी तो केवल दुर्बलताएँ और असफलताएँ हैं; क्योंकि जन्म से ही जो महान् शिक्षाएँ इस देश में व्यक्ति को अपने चतुर्दिक बिखरी और छायी मिलती हैं, उनसे लाभ उठाने की मेरी असमर्थता से इन दुर्बलताओं और असफलताओं की उत्पत्ति हुई है।

और कैसा है यह देश ! जिस किसी के भी पैर इस पावन धरती पर पड़ते है वही, चाहे वह विदेशी हो, चाहे इसी धरती का पुत्र यदि उसकी आत्मा जड़पशुत्व की कोटि तक पतित नहीं हो गयी तो, अपने आपको पृथ्वी के उन सर्वोत्कृष्ट और पावनतम पुत्रों के जीवन्त विचारों से घिरा हुआ अनुभव करता है, जो शताब्दियों से पशुत्व को देवत्व तक पहुँचाने के लिए श्रम करते रहे हैं और जिनके प्रादुर्भाव की खोज करने में इतिहास असमर्थ है। यहाँ की वायु भी आध्यात्मिक स्पन्दनों से पूर्ण है। यह धरती दर्शन-शास्त्र, नीति-शास्त्र और आध्यात्मिकता के लिए, पुनः सब के लिए जो पशु को बनाये रखने के हेतु चलनेवाले अविरत संघर्ष से मनुष्य को विश्राम देता है, उस समस्त शिक्षा-दीक्षा के लिए जिससे मनुष्य पशुता का जामा उतार फेंकता और जन्म-मरणहीन सदानन्द अमर आत्मा के रूप में आविर्भूत होता है,—पवित्र है।

यह वह धरती है, जिसमें सुख का प्याला परिपूर्ण हो गया था और दुःख का प्याला और भी अधिक भर गया था; अन्ततः यहीं सर्वप्रथम मनुष्य को यह ज्ञान हुआ कि यह तो सब निस्सार है; यहीं सर्वप्रथम यौवन के मध्याह्न में वैभव-विलास की गोद में, ऐश्वर्य के शिखर पर और शक्ति के प्राचुर्य में मनुष्य ने माया की श्रृंखलाओं को तोड़ दिया। यहीं, मानवता के इस महासागर में; सुख और दुःख, शक्ति और दुर्बलता, वैभव और दैन्य, हर्ष और विषाद, स्मित और आँसू तथा जीवन और मृत्यु के प्रबल तरंगाघातों के बीच, चिरन्तन शान्ति और अनद्विग्नता की घुलनशील लय में, त्याग का राजसिंहासन आविर्भूत हुआ !

यहीं, इसी देश में जीवन और मृत्यु की, जीवन की तृष्णा की, और जीवन के संरक्षण के निमित्त किये गये मिथ्या और विक्षिप्त संघर्षों की महान् समस्याओं से सर्वप्रथम जूझा गया और उनका समाधान किया गया ऐसा समाधान जो न भूतो न भविष्यति—क्योंकि यहाँ पर, और केवल यहीं पर इस तथ्य की उपलब्धि हुई कि जीवन भी स्वतः एक अशुभ है, किसी एकमात्र सत् तत्त्व की छाया मात्र। यही वह देश है। जहाँ और केवल जहाँ पर धर्म व्यवहारिक और यतार्थ था; और केवल यहीं पर नर-नारी लक्ष्य सिद्धि के लिए—परम पुरुषार्थ के लिए साहसपूर्वक कर्मक्षेत्र में कूदे, जैसे अन्य देशों में लोग अपने दुर्बल अपने ही बन्धुओं को लूटकर जीवन के भोगों को प्राप्त करने के लिए विक्षिप्त होकर झपटते हैं। यहाँ और केवल यहीं पर मानव-हृदय इतना विस्तीर्ण हुआ कि उसने केवल मनुष्य-जाति को ही नहीं, वरन् पशु, पक्षी और वनस्पति तक को भी अपने में समेट लिया—सर्वोच्च देवताओं से लेकर बालू के कण तक, महानतम और लघुतम सभी को मनुष्य के विशाल और अनन्त वर्धित हृदय में स्थान मिला।

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