धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
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जीवन का अत्यंत उपलब्ध और साथ ही अनुपलब्ध आत्मतत्त्व....
Aatmtattva a hindi book by Swami Vivekanand - आत्मतत्त्व - स्वामी विवेकानन्द
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तावना
स्वामी विवेकानन्दकृत ‘‘आत्मतत्त्व’’ पुस्तक का यह संस्करण पाठकों के सम्मुख रखते हुए हमें अतीव हर्ष हो रहा है। स्वामी विवेकानन्दजी के कुछ महत्त्वपूर्ण व्याख्यान तथा उनके कुछ प्रवचनों का सारांश ‘‘आत्मतत्त्व’’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ‘आत्मा’, ‘आत्मा : उसके बन्धन तथा मुक्ति’, ‘आत्म, प्रकृति तथा ईश्वर’, आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य’ आदि पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में स्वामीजी ने आत्मा के स्वरूप, उनके बन्धन तथा मुक्ति का विवेचन किया है। स्वामीजी का कथन है- आत्मानुभूति-उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि के द्वारा अज्ञान के बंधनों से मुक्त होना ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है।
आत्मस्वरूप की मीमांसा करनेवाले तीन मत-द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत का विश्लेषण कर स्वामीजी ने इस पुस्तक में स्पष्टत: दर्शा दिया है कि ये तीनों मत परस्पर विरोधी नहीं, अपितु परस्पर पूरक हैं। स्वामीजी ने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला है कि आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए बाह्य और आन्तर प्रकृति पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है तथा विजय-लाभ, वासना-त्याग एवं अन्त:शुद्धि के बिना संभव नहीं। मानव-जीवन सफल होने के लिए सच्चे सुख एवं शान्ति का अधिकारी बनने के लिए आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्यता आवश्यक है और इसलिए इस पुस्तक में स्वामीजी ने जो मार्गदर्शन कराया है वह सभी के लिए निश्चयरूपेण श्रेयस्कर है।
पुस्तक में संग्रहीत व्याख्यान तथा प्रवचन अद्वैत आश्रम मायावती द्वारा प्रकाशित ‘विवेकानन्द साहित्य’ में संकलित किये है।
आत्मस्वरूप की मीमांसा करनेवाले तीन मत-द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत का विश्लेषण कर स्वामीजी ने इस पुस्तक में स्पष्टत: दर्शा दिया है कि ये तीनों मत परस्पर विरोधी नहीं, अपितु परस्पर पूरक हैं। स्वामीजी ने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला है कि आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए बाह्य और आन्तर प्रकृति पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है तथा विजय-लाभ, वासना-त्याग एवं अन्त:शुद्धि के बिना संभव नहीं। मानव-जीवन सफल होने के लिए सच्चे सुख एवं शान्ति का अधिकारी बनने के लिए आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्यता आवश्यक है और इसलिए इस पुस्तक में स्वामीजी ने जो मार्गदर्शन कराया है वह सभी के लिए निश्चयरूपेण श्रेयस्कर है।
पुस्तक में संग्रहीत व्याख्यान तथा प्रवचन अद्वैत आश्रम मायावती द्वारा प्रकाशित ‘विवेकानन्द साहित्य’ में संकलित किये है।
प्रकाशक
आत्मतत्त्व
आत्मा
(अमेरिका में दिया गया व्याख्यान)
तुममें से बहुतों ने मैक्समूलर की सुप्रसिद्ध पुस्तक- ‘वेदान्त दर्शन पर तीन व्याख्यान’ (Three Lectures on the Vedanta Philosophy) को पढ़ा होगा और शायद कुछ लोगों ने इसी विषय पर प्रोफेसर डायसन की जर्मन भाषा में लिखित पुस्तक भी पढ़ी हो। ऐसा लगता है कि पाश्चात्य देशों में भारतीय धार्मिक चिन्तन के बारे में जो कुछ लिखा या पढ़ाया जा रहा है, उसमें भारतीय दर्शन अद्वैतवाद नामक शाखा प्रमुख स्थान रखती है। यह भारतीय धर्म का अद्वैतवादवाला पक्ष है, और कभी-कभी ऐसा भी सोचा जाता है कि वेदों की सारी शिक्षाएँ इस दर्शन में सन्निहित हैं। खैर, भारतीय चिन्तन धारा के बहुत सारे पक्ष हैं; और यह अद्वैतवाद तो अन्य वादों की तुलना में सब से कम लोगों द्वारा माना जाता है।
अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत में अनेकानेक चिन्तन-धाराओं की परम्परा रही है, और चूँकि शाखा-विशेष के अनुयायियों द्वारा अंगीकार किये जानेवाले मतों को निर्धारित करने वाला कोई सुसंघटित या स्वीकृत धर्मसंघ अथवा कतिपय व्यक्तियों के समूह वहाँ कभी नहीं रहे, इसलिए लोगों को सदा से ही अपने मन के अनुरूप धर्म चुनने, अपने दर्शन को चलाने तथा अपने सम्प्रदायों को स्थापित करने की स्वतन्त्रता रही।
फलस्वरूप हम पाते हैं कि चिरकाल से ही भारत में मत-मतान्तरों की बहुतायत रही है। आज भी हम कह नहीं सकते कि कितने सौ
धर्म वहाँ फल रहे हैं और कितने नये धर्म हर साल उत्पन्न होते हैं। ऐसा लगता है कि उस राष्ट्र की धार्मिक उर्वरता असीम है।
भारत में प्रचलित इन विभिन्न मतों को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, आस्तिक और नास्तिक। जो मत हिन्दू धर्मग्रन्थों अर्थात वेदों को सत्य शाश्वत निधि (श्रुति) मानते हैं, उन्हें आस्तिक कहते हैं, और जो वेदों को न मानकर अन्य प्रमाणों पर आधारित है, उन्हें भारत में नास्तिक कहते हैं। आधुनिक नास्तिक हिन्दू मतों में दो प्रमुख हैं : बौद्ध और जैन। आस्तिक मतावलम्बी कोई-कोई कहते हैं कि शास्त्र हमारी बुद्धि के अधिक प्रामाणिक हैं, जब कि दूसरे मानते हैं कि शास्त्रों के केवल बुद्धिसम्मत अंश को ही स्वीकार करना चाहिए, शेष को छोड़ देना चाहिए।
आस्तिक मतों की भी फिर तीन शाखाएँ हैं : सांख्य, न्याय और मीमांसा। इनमें से पहली दो शाखाएँ किसी सम्प्रदाय की स्थापना करने में सफल न हो सकीं, यद्यपि दर्शन के रूप में उनका अस्तित्व अभी भी है। एकमात्र सम्प्रदाय जो अभी भारत में प्राय: सर्वत्र प्रचलित है, वह है उत्तर मीमांसा अथवा वेदान्त। इस दर्शन को ‘वेदान्त’ कहते हैं। भारतीय दर्शन की समस्त शाखाएँ वेदान्त, यानी उपनिषदों से ही निकली हैं, किन्तु अद्वैतवादियों ने यह नाम खासकर अपने लिए रख लिया, क्योंकि वे अपने सम्पूर्ण धर्म-ज्ञान तथा दर्शन को एकमात्र वेदान्त पर ही आधारित करना चाहते थे। आगे चलकर वेदान्त ने प्राधान्य प्राप्त किया। और, भारत में अब जो अनेकानेक सम्प्रदाय हैं, वे किसी न किसी रूप में उसी की शाखाएँ हैं। फिर भी ये विभिन्न शाखाएँ अपने विचारों में एकमत नहीं हैं। हम देखते हैं कि वेदान्तियों के तीन प्रमुख भेद हैं। पर एक विषय पर सभी सहमत हैं। वह यह कि ईश्वर के अस्तित्व में भी विश्वास करते हैं। सभी वेदान्ती यह भी मानते हैं कि वेद शाश्वत आप्तवाक्य हैं, यद्यपि उनका ऐसा मानना उस तरह का नहीं, जिस तरह ईसाई अथवा मुसलमान लोग अपने-अपने धर्मग्रन्थों के बारे में मानते हैं। वे अपने ढंग से ऐसा मानते हैं। उनका कहना है कि वेदों में ईश्वर संबंधी ज्ञान सन्निहित है और चूँकि ईश्वर चिरन्तन है, अत: उसका ज्ञान भी शाश्वत रूप से उसके साथ है। अत: वेद भी शाश्वत है।
दूसरी बात जो सभी वेदान्ती मानते हैं, वह है सृष्टि संबंधी चक्रीय सिद्धान्त। सब यह मानते हैं कि सृष्टि चक्रों या कल्पों में होती है। सम्पूर्ण सृष्टि का आगम और विलय होता है। आरम्भ होने के बाद सृष्टि क्रमश: स्थूलतर रूप लेती जाती है, एक अपरिमेय अवधि के पश्चात् पुन: सूक्ष्मतर रूप में बदलना शुरू करती है तथा अन्त में विघटित होकर विलीन हो जाती है। इसके बाद विराम का समय आता है। सृष्टि का फिर उद्भव होता है और फिर इसी क्रम में आवृत्ति होती है। ये लोग दो तत्त्वों को स्वत: प्रमाणित मानते हैं : एक को ‘आकाश’ कहते हैं, जो वैज्ञानिकों के ‘ईथर’ से मिलता-जुलता है और दूसरे को ‘प्राण’ कहते हैं, जो एक प्रकार की शक्ति है। ‘प्राण’ के विषय में इनका कहना है कि इसके कम्पन से विश्व की उत्पत्ति होती है।
जब सृष्टि-चक्र का विराम होता है, तो व्यक्त प्रकृति क्रमश: सूक्ष्मतर होते-होते आकाश तत्त्व के रूप में विघटित हो जाती है, जिसे हम न देख सकते हैं और न अनुभव ही कर सकते हैं, किन्तु इसी से पुन: समस्त वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। प्रकृति में हम जितनी शक्तियाँ देखते हैं, जैसे, गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण, विकर्षण अथवा विचार, भावना एवं स्नायविक गति- सभी अन्ततोगत्वा विघटित होकर प्राण में परिवर्तित हो जाती हैं और प्राण का स्पन्दन रुक जाता है। इस स्थिति में वह तब तक रहता है, जब तक सृष्टि का कार्य पुन: प्रारम्भ नहीं हो जाता। उसके प्रारम्भ नहीं हो जाता। उसके प्रारम्भ होते ही ‘प्राण’ में पुन: कम्पन्न होने लगते हैं। इस कम्पन का प्रभाव ‘आकाश’ पर पड़ता है और तब सभी रूप और आकार एक निश्चित क्रम में बाहर प्रक्षिप्त होते हैं।
सब से पहले जिस दर्शन की चर्चा मैं तुमसे करूँगा, वह द्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। द्वैतवादी यह मानते हैं कि विश्व का स्रष्टा और शासक ईश्वर शाश्वत रूप से प्रकृति एवं जीवात्मा से पृथक् है। ईश्वर नित्य है, प्रकृति नित्य है तथा सभी आत्माएँ भी नित्य हैं। प्रकृति तथा आत्माओं की अभिव्यक्ति होती है एवं उनमें परिवर्तन होते हैं परन्तु ईश्वर ज्यों का त्यों रहता है। द्वैतवादियों के अनुसार ईश्वर सगुण है; उसके शरीर नहीं है, पर उसमें गुण हैं। मानवीय गुण उसमें विद्यमान हैं,
अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत में अनेकानेक चिन्तन-धाराओं की परम्परा रही है, और चूँकि शाखा-विशेष के अनुयायियों द्वारा अंगीकार किये जानेवाले मतों को निर्धारित करने वाला कोई सुसंघटित या स्वीकृत धर्मसंघ अथवा कतिपय व्यक्तियों के समूह वहाँ कभी नहीं रहे, इसलिए लोगों को सदा से ही अपने मन के अनुरूप धर्म चुनने, अपने दर्शन को चलाने तथा अपने सम्प्रदायों को स्थापित करने की स्वतन्त्रता रही।
फलस्वरूप हम पाते हैं कि चिरकाल से ही भारत में मत-मतान्तरों की बहुतायत रही है। आज भी हम कह नहीं सकते कि कितने सौ
धर्म वहाँ फल रहे हैं और कितने नये धर्म हर साल उत्पन्न होते हैं। ऐसा लगता है कि उस राष्ट्र की धार्मिक उर्वरता असीम है।
भारत में प्रचलित इन विभिन्न मतों को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, आस्तिक और नास्तिक। जो मत हिन्दू धर्मग्रन्थों अर्थात वेदों को सत्य शाश्वत निधि (श्रुति) मानते हैं, उन्हें आस्तिक कहते हैं, और जो वेदों को न मानकर अन्य प्रमाणों पर आधारित है, उन्हें भारत में नास्तिक कहते हैं। आधुनिक नास्तिक हिन्दू मतों में दो प्रमुख हैं : बौद्ध और जैन। आस्तिक मतावलम्बी कोई-कोई कहते हैं कि शास्त्र हमारी बुद्धि के अधिक प्रामाणिक हैं, जब कि दूसरे मानते हैं कि शास्त्रों के केवल बुद्धिसम्मत अंश को ही स्वीकार करना चाहिए, शेष को छोड़ देना चाहिए।
आस्तिक मतों की भी फिर तीन शाखाएँ हैं : सांख्य, न्याय और मीमांसा। इनमें से पहली दो शाखाएँ किसी सम्प्रदाय की स्थापना करने में सफल न हो सकीं, यद्यपि दर्शन के रूप में उनका अस्तित्व अभी भी है। एकमात्र सम्प्रदाय जो अभी भारत में प्राय: सर्वत्र प्रचलित है, वह है उत्तर मीमांसा अथवा वेदान्त। इस दर्शन को ‘वेदान्त’ कहते हैं। भारतीय दर्शन की समस्त शाखाएँ वेदान्त, यानी उपनिषदों से ही निकली हैं, किन्तु अद्वैतवादियों ने यह नाम खासकर अपने लिए रख लिया, क्योंकि वे अपने सम्पूर्ण धर्म-ज्ञान तथा दर्शन को एकमात्र वेदान्त पर ही आधारित करना चाहते थे। आगे चलकर वेदान्त ने प्राधान्य प्राप्त किया। और, भारत में अब जो अनेकानेक सम्प्रदाय हैं, वे किसी न किसी रूप में उसी की शाखाएँ हैं। फिर भी ये विभिन्न शाखाएँ अपने विचारों में एकमत नहीं हैं। हम देखते हैं कि वेदान्तियों के तीन प्रमुख भेद हैं। पर एक विषय पर सभी सहमत हैं। वह यह कि ईश्वर के अस्तित्व में भी विश्वास करते हैं। सभी वेदान्ती यह भी मानते हैं कि वेद शाश्वत आप्तवाक्य हैं, यद्यपि उनका ऐसा मानना उस तरह का नहीं, जिस तरह ईसाई अथवा मुसलमान लोग अपने-अपने धर्मग्रन्थों के बारे में मानते हैं। वे अपने ढंग से ऐसा मानते हैं। उनका कहना है कि वेदों में ईश्वर संबंधी ज्ञान सन्निहित है और चूँकि ईश्वर चिरन्तन है, अत: उसका ज्ञान भी शाश्वत रूप से उसके साथ है। अत: वेद भी शाश्वत है।
दूसरी बात जो सभी वेदान्ती मानते हैं, वह है सृष्टि संबंधी चक्रीय सिद्धान्त। सब यह मानते हैं कि सृष्टि चक्रों या कल्पों में होती है। सम्पूर्ण सृष्टि का आगम और विलय होता है। आरम्भ होने के बाद सृष्टि क्रमश: स्थूलतर रूप लेती जाती है, एक अपरिमेय अवधि के पश्चात् पुन: सूक्ष्मतर रूप में बदलना शुरू करती है तथा अन्त में विघटित होकर विलीन हो जाती है। इसके बाद विराम का समय आता है। सृष्टि का फिर उद्भव होता है और फिर इसी क्रम में आवृत्ति होती है। ये लोग दो तत्त्वों को स्वत: प्रमाणित मानते हैं : एक को ‘आकाश’ कहते हैं, जो वैज्ञानिकों के ‘ईथर’ से मिलता-जुलता है और दूसरे को ‘प्राण’ कहते हैं, जो एक प्रकार की शक्ति है। ‘प्राण’ के विषय में इनका कहना है कि इसके कम्पन से विश्व की उत्पत्ति होती है।
जब सृष्टि-चक्र का विराम होता है, तो व्यक्त प्रकृति क्रमश: सूक्ष्मतर होते-होते आकाश तत्त्व के रूप में विघटित हो जाती है, जिसे हम न देख सकते हैं और न अनुभव ही कर सकते हैं, किन्तु इसी से पुन: समस्त वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। प्रकृति में हम जितनी शक्तियाँ देखते हैं, जैसे, गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण, विकर्षण अथवा विचार, भावना एवं स्नायविक गति- सभी अन्ततोगत्वा विघटित होकर प्राण में परिवर्तित हो जाती हैं और प्राण का स्पन्दन रुक जाता है। इस स्थिति में वह तब तक रहता है, जब तक सृष्टि का कार्य पुन: प्रारम्भ नहीं हो जाता। उसके प्रारम्भ नहीं हो जाता। उसके प्रारम्भ होते ही ‘प्राण’ में पुन: कम्पन्न होने लगते हैं। इस कम्पन का प्रभाव ‘आकाश’ पर पड़ता है और तब सभी रूप और आकार एक निश्चित क्रम में बाहर प्रक्षिप्त होते हैं।
सब से पहले जिस दर्शन की चर्चा मैं तुमसे करूँगा, वह द्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। द्वैतवादी यह मानते हैं कि विश्व का स्रष्टा और शासक ईश्वर शाश्वत रूप से प्रकृति एवं जीवात्मा से पृथक् है। ईश्वर नित्य है, प्रकृति नित्य है तथा सभी आत्माएँ भी नित्य हैं। प्रकृति तथा आत्माओं की अभिव्यक्ति होती है एवं उनमें परिवर्तन होते हैं परन्तु ईश्वर ज्यों का त्यों रहता है। द्वैतवादियों के अनुसार ईश्वर सगुण है; उसके शरीर नहीं है, पर उसमें गुण हैं। मानवीय गुण उसमें विद्यमान हैं,
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