विवेकानन्द साहित्य >> भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देश भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देशस्वामी विवेकानन्द
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सुप्त,निराश, भटके हुए युवाओं के लिए भगवान बुद्ध का संदेश
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
‘भगवान् बुद्ध तथा उनका सन्देश’ इस पुस्तक का यह पंचम
संस्करण पाठकों के समक्ष रखते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है।
साधक-अवस्था से ही स्वामी विवेकानन्द भगवान् बुद्धि के लोकोत्तर व्यक्तित्व के प्रति अत्यन्त आकर्षण अनुभव करते थे। इस आकर्षण से प्रेरित हो श्रीरामकृष्णदेव के विद्यमान रहते ही वे अल्प समय के लिए बोधगया को जा आये थे तथा वहाँ पर उन्होंने गम्भीर ध्यानावस्था में भगवान् बुद्ध के दिव्य अस्तित्व का जीता-जागता अनुभव आया था। स्वामीजी बौद्ध धर्मग्रन्थों का अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अध्ययन-अनुशीलन करते थे तथा अपने गुरुभाइयों को भी इस ओर प्रोत्साहित करते थे। अपने जीवन के विभिन्न प्रसंगों में उन्होंने बुद्धदेव के दिव्य जीवन, उपदेश, धर्म इत्यादि के विषय में अत्यन्त मूल्यवान विचार प्रकट किये हैं।
उनमें से कुछ ही विचार लिपिबद्ध रूप में उपलब्ध हैं, परन्तु उन पर से भी स्वामीजी की बुद्धदेव के प्रति श्रद्धा-भक्ति की गम्भीरता की धारणा हो सकती है। साथ ही इन विचारों द्वारा बुद्ध देव के दिव्य व्यक्तित्व का सुन्दर चित्र हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। पाठकवर्ग स्वामीजी के इन महत्त्वपूर्ण विचारों का लाभ उठाएँ इस हेतु ‘विवेकानन्द साहित्य’ के दस खण्डों में उन्हें संकलित करके प्रस्तुत पुस्तक तैयार की गयी है। प्रत्येक उद्धरण के अन्त में उसका सन्दर्भ दिया गया है। सन्दर्भ का पहला अंक साहित्य के खण्ड का तथा दूसरा उसकी पृष्ठसंख्या का सूचक है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत प्रकाशन पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
साधक-अवस्था से ही स्वामी विवेकानन्द भगवान् बुद्धि के लोकोत्तर व्यक्तित्व के प्रति अत्यन्त आकर्षण अनुभव करते थे। इस आकर्षण से प्रेरित हो श्रीरामकृष्णदेव के विद्यमान रहते ही वे अल्प समय के लिए बोधगया को जा आये थे तथा वहाँ पर उन्होंने गम्भीर ध्यानावस्था में भगवान् बुद्ध के दिव्य अस्तित्व का जीता-जागता अनुभव आया था। स्वामीजी बौद्ध धर्मग्रन्थों का अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अध्ययन-अनुशीलन करते थे तथा अपने गुरुभाइयों को भी इस ओर प्रोत्साहित करते थे। अपने जीवन के विभिन्न प्रसंगों में उन्होंने बुद्धदेव के दिव्य जीवन, उपदेश, धर्म इत्यादि के विषय में अत्यन्त मूल्यवान विचार प्रकट किये हैं।
उनमें से कुछ ही विचार लिपिबद्ध रूप में उपलब्ध हैं, परन्तु उन पर से भी स्वामीजी की बुद्धदेव के प्रति श्रद्धा-भक्ति की गम्भीरता की धारणा हो सकती है। साथ ही इन विचारों द्वारा बुद्ध देव के दिव्य व्यक्तित्व का सुन्दर चित्र हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। पाठकवर्ग स्वामीजी के इन महत्त्वपूर्ण विचारों का लाभ उठाएँ इस हेतु ‘विवेकानन्द साहित्य’ के दस खण्डों में उन्हें संकलित करके प्रस्तुत पुस्तक तैयार की गयी है। प्रत्येक उद्धरण के अन्त में उसका सन्दर्भ दिया गया है। सन्दर्भ का पहला अंक साहित्य के खण्ड का तथा दूसरा उसकी पृष्ठसंख्या का सूचक है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत प्रकाशन पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
प्रकाशक
भगवान् बुद्ध तथा उनका सन्देश
***
भगवान् बुद्ध
भगवान् बुद्ध मेरे इष्टदेव हैं-मेरे ईश्वर हैं। उनका कोई ईश्वरवाद नहीं,
वे स्वयं ईश्वर थे। इस पर मेरा पूर्ण विश्वास है।
सम्भव है कि भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेश से ये झगड़े कुछ देर के लिए रुक
गये हों तथा समन्वय और शान्ति का संचार हुआ हो, किन्तु यह विरोध फिर
उत्पन्न हुआ। केवल धर्ममत ही पर नहीं, सम्भवत: वर्ण के आधार पर भी यह
विवाद चलता रहा-हमारे समाज के दो प्रबल अंग ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों,
राजाओं तथा पुरोहितों के बीच विवाद आरम्भ हुआ था। और एक हजार वर्ष तक जिस
विशाल तरंग ने समग्र भारत को सराबोर कर दिया था, उसके सर्वोच्च शिखर पर हम
एक और महामहिम मूर्ति को देखते हैं। और वे हमारे शाक्यमुनि गौतम हैं। उनके
उपदेशों और प्रचारकार्य से तुम सभी अवगत हो।
हम उनको ईश्वरावतार समझकर उनकी पूजा करते हैं, नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में और उत्पन्न नहीं हुआ, कर्मयोगियों में सर्वश्रेष्ठ स्वयं कृष्ण ही मानो शिष्यरूप से अपने उपदेशों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उत्पन्न हुए। पुन: वही वाणी सुनाई दी, जिसने गीता में शिक्षा दी थी, ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’-, ‘इस धर्म का थोड़ा सा अनुष्ठान करने पर भी महाभय से रक्षा होती है।’ (गीता 2/40) ‘स्त्रियों वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्’- ‘स्त्री, वैश्य और शूद्र तक परमगति को प्राप्त होते है।’ (गीता 9/32)......गीता के उपदेशों के जीते-जागते उदाहरणस्वरूप, गीता के उपदेशक दूसरे रूप में पुन: इस मर्त्यलोक में पधारे, जिससे जनता द्वारा उसका एक कण भी कार्यरूप में परिणत हो सके। ये ही शाक्यमुनि हैं। ये दीन-दुखियों को उपदेश देने लगे। सर्वसाधारण के हृदय तक पहुँचने के लिए देवभाषा संस्कृत को भी छोड़ ये लोकभाषा में उपदेश देने लगे। राजसिंहासन को त्यागकर ये दु:खी, गरीब, पतित, भिखमंगों के साथ रहने लगे। इन्होंने राम के समान चाण्डाल को भी छाती से लगा लिया।
हम उनको ईश्वरावतार समझकर उनकी पूजा करते हैं, नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में और उत्पन्न नहीं हुआ, कर्मयोगियों में सर्वश्रेष्ठ स्वयं कृष्ण ही मानो शिष्यरूप से अपने उपदेशों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उत्पन्न हुए। पुन: वही वाणी सुनाई दी, जिसने गीता में शिक्षा दी थी, ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’-, ‘इस धर्म का थोड़ा सा अनुष्ठान करने पर भी महाभय से रक्षा होती है।’ (गीता 2/40) ‘स्त्रियों वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्’- ‘स्त्री, वैश्य और शूद्र तक परमगति को प्राप्त होते है।’ (गीता 9/32)......गीता के उपदेशों के जीते-जागते उदाहरणस्वरूप, गीता के उपदेशक दूसरे रूप में पुन: इस मर्त्यलोक में पधारे, जिससे जनता द्वारा उसका एक कण भी कार्यरूप में परिणत हो सके। ये ही शाक्यमुनि हैं। ये दीन-दुखियों को उपदेश देने लगे। सर्वसाधारण के हृदय तक पहुँचने के लिए देवभाषा संस्कृत को भी छोड़ ये लोकभाषा में उपदेश देने लगे। राजसिंहासन को त्यागकर ये दु:खी, गरीब, पतित, भिखमंगों के साथ रहने लगे। इन्होंने राम के समान चाण्डाल को भी छाती से लगा लिया।
(5/156-57)
किसी बौद्ध-शास्त्र ने ‘बुद्घ’ (-यह एक अवस्था का
सूचक है-)
शब्द की परिभाषा दी है- अनन्त आकाश के समान अनन्त
ज्ञान।
(1/217)
गौतमबुद्ध के जीवनचरित्र में हम उनको निरन्तर यही कहते पाते हैं कि वे
पचीसवें बुद्ध थे। उनके पहले के चौबीस बुद्धों का इतिहास को कोई ज्ञान
नहीं, परन्तु हमारे ऐतिहासिक बुद्ध ने उन बुद्धों द्वारा डाली हुई भित्ति
पर ही अपने धर्मप्रासाद का निर्माण किया है।
(3/79)
किन्तु बुद्ध समझौता नहीं चाहते थे।.......एक क्षण के भी समझौते के बल पर
बुद्ध अपने जीवनकाल में ही समस्त एशिया में ईश्वर की तरह पूजे जा सकते थे।
परन्तु उनका केवल यही उत्तर था- ‘बुद्ध की स्थिति एक सिद्धि है,
वह
एक व्यक्ति नहीं है।’ सचमुच, समस्त संसार में वे ही एक ऐसे
मनुष्य
थे, जो सदैव नितान्त प्रकृतिस्थ रहे, जितने मनुष्यों ने जन्म लिया है,
उनमें अकेले एक प्रबुद्ध मानव !
(8/136)
बुद्धदेव ने बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर दृढ़ स्वर से जो बात कही थी, उसे जो
अपने रोम रोम से बोल सकता है, वही वास्तविक धार्मिक होने योग्य है। संसारी
होने की इच्छा उनके भी हृदय में एक बार उत्पन्न हुई थी। इधर वे स्पष्ट रूप
से देख रहे थे कि उनकी यह अवस्था, यह सांसारिक जीवन एकदम व्यर्थ है, पर
इसके बाहर जाने का उन्हें कोई मार्ग नहीं मिल रहा था। मार एक बार उनके
निकट आया और कहने लगा-‘छोड़ो भी सत्य की खोज ! चलो, संसार में
लौट
चलो, और पहले जैसा पाखण्डपूर्ण जीवन बिताओ, सब वस्तुओं को उनके मिथ्या
नामों से पुकारों, अपने निकट और सबके निकट दिनरात मिथ्या बोलते
रहो’। यह मार उनके पास पुन: आया, पर उस महावीर ने अपने अतुल
पराक्रम
से उसी क्षण परास्त कर दिया। उन्होंने कहा,
‘‘अज्ञानपूर्वक
केवल खा-पीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है; पराजित होकर जीने की
अपेक्षा युद्धक्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है।’’ यही
धर्म की
भित्ति है।
(2/78-79)
भगवान् बुद्ध ने धर्म के प्राय: सभी अन्यान्य पक्षों को कुछ समय के लिए
दूर रहकर केवल दु:खों से पीड़ित संसार की सहायता करने के महान कार्य को
प्रधानता दी थी। परन्तु फिर भी स्वार्थपूर्ण व्यक्तिभाव से चिपके रहने के
खोखलेपन के महान् सत्य का अनुभव करने के निमित्त आत्मानुसन्धान में उन्हें
भी अनेक वर्ष बिताने पड़े थे। भगवान बुद्ध से अधिक नि:स्वार्थ तथा अथक
कर्मी हमारी उच्च से उच्च कल्पना के भी परे है। परन्तु फिर भी उनकी
अपेक्षा और किसे समस्त विषयों का रहस्य जानने के लिए इतने विकट संघर्ष
करने पड़े ? यह चिरन्तन तथ्य है कि जो जितना महान् होता है, उसके पीछे
सत्य के साक्षात्कार की उतनी की अधिक शक्ति विद्यमान रहती है।
(9/258)
बुद्ध एक महान वेदान्ती थे.......और शंकराचार्य को भी कोई कोई प्रच्छन्न
बौद्ध कहते हैं। बुद्ध ने विश्लेषण किया था- शंकराचार्य ने उन सब का
संश्लेषण किया है। बुद्ध ने कभी भी वेद या जातिभेद अथवा पुरोहित किंवा
सामाजिक प्रथा किसी के सामने माथा नहीं नवाया। जहाँ तक तर्क-विचार चल सकता
है, वहाँ तक निर्भिकता के साथ उन्होंने तर्क-विचार किया है। इस प्रकार का
निर्भीक सत्यानुसन्धान, प्राणिमात्र के प्रति इस प्रकार का प्रेम संसार
में किसी ने कभी नहीं देखा। बुद्ध धर्मजगत् के वांशिगटन थे, उन्होंने
सिंहासन जीता था केवल जगत् को देने के लिए, जैसे वांशिग्टन ने अमरीकी जाति
के लिए किया था। वे अपने लिए थोड़ी सी भी आकांक्षा नहीं रखते थे।
(7/71)
उस महान् बुद्ध ने द्वैतवादी देवता ईश्वर आदि की किंचित् भी चिन्ता नहीं
की, और जिन्हें नास्तिक तथा भौतिकवादी कहा गया है, वे एक साधारण बकरी तक
के लिए प्राण देने को प्रस्तुत थे ! उन्होंने मानव जाति में सर्वोच्च
नैतिकता का प्रचार किया। जहाँ कहीं तुम किसी प्रकार का नीतिविधान पाओगे,
वहीं देखोगे कि उनका प्रभाव, उनका प्रकाश जगमगा रहा है। जगत् के इन सब
विशाल हृदय व्यक्तियों को तुम किसी संकीर्ण दायरे में बाँधकर नहीं रख
सकते, विशेषत: आज, जबकि मनुष्यजाति के इतिहास में एक ऐसा समय आ गया है और
सब प्रकार के ज्ञान की ऐसी उन्नति हुई है, जिसकी किसी ने सौ वर्ष पूर्व
स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी, यहाँ तक कि पचास वर्ष पूर्व जो किसी ने
स्वप्न में भी नहीं सोचा था, ऐसे वैज्ञानिक ज्ञान का स्रोत्र बह चला है।
(2/97-98)
मैं गौतमबुद्ध के समान नैतिकतायुक्त देखना चाहता हूँ। वे सगुण ईश्वर अथवा
व्यक्तिगत आत्मा में विश्वास नहीं करते थे, उस विषय में कभी प्रश्न ही
नहीं करते थे, उस विषय में पूर्ण अज्ञेयवादी थे, किन्तु जो सबके लिए अपने
प्राण तक देने को प्रस्तुत थे-आजन्म दूसरों का उपकार करने में रत रहते तथा
सदैव इसी चिन्ता में मग्न रहते थे कि दूसरों का उपकार किस प्रकार हो। उनके
जीवनचरित्र लिखने वालों ने ठीक ही कहा है उन्होंने ‘बहुजनहिताय
बहुजनसुखाय’ जन्मग्रहण किया था। वे अपनी निजी मुक्ति के लिए वन
में
तप करने नहीं गये। दुनिया जली जा रही है- और इसे बचाने का कोई उपाय मुझे
खोज निकालना चाहिए। उनके समस्त जीवन में यही एक चिन्ता थी कि जगत् में
इतना दु:ख क्यों है ?
(8/57-58)
बुद्धदेव अन्य सभी धर्माचार्यों की अपेक्षा अधिक साहसी, और निष्कपट थे। वे
कह गये हैं, ‘किसी शास्त्र में विश्वास मत करो। वेद मिथ्या हैं।
यदि
मेरी उपलब्धि के साथ वेद मिलते-जुलते हैं, तो वह वेदों का ही सौभाग्य है।
मैं ही सर्वश्रेष्ठ शास्त्र हूँ, यज्ञयाग और प्रार्थना व्यर्थ
है।’
बुद्धदेव पहले मानव हैं जिन्होंने संसार को ही सर्वांगसम्पन्न नीतिविज्ञान
की शिक्षा दी थी। वे शुभ के लिए ही शुभ करते थे, प्रेम के लिए ही प्रेम
करते
थे।
(7/51)
बुद्धदेव एक समाज सुधारक थे।
(10/395)
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