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कविता संग्रह >> उत्तरायण

उत्तरायण

निर्मल शुक्ल

प्रकाशक : उत्तरायण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :87
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5959
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक उत्तरायण, निर्मल शुक्ल का कविता संग्रह

Uttrayan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अर्थबोध

भारत की धरती अवतारों का प्रतीक है, इसकी शाश्वतता पर लेशमात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता, संस्कृतियों का जन्म निश्चित रूप से ऊर्जा के सनातन बिम्ब सूर्य के जन्म के साथ ही हुआ होगा, सूर्य अर्थात् एक सम्पन्न कार्यशाला जिसके अदम्य उद्वेग का प्रस्फुटन, लयबद्ध संवेग में रागात्मकता समेटे प्रवाह किरणों के माध्यम से शनैःशनैः जनमानस को शक्ति देता है। कहीं यही प्रक्रिया हमारे बीच उपस्थित गीतिकणों की उत्पत्ति की तो नहीं, जो अबाध शक्ति संजोए निर्विघ्न संवाहित करती है अद्भुत रागात्मक एवं लयात्मक संवेदन.

कविता के महत्त्वपूर्ण कण संयुक्त हुए तो गीत बना. फिर उसकी पीढ़ियाँ चलीं तो नवगीत बना. किन्तु अब संस्कृतियों का गतिज क्षरण हो रहा है. ठीक वैसे ही गीत-नवगीत अगली पीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते अपनी विरासत जिस पीढ़ी को सौंपना चाहता है उसे आज ही अपना दावा जताना होगा. अन्यथा कितने ही शिविर लगाये जाएँ, कितने ही समारोह सम्पन्न किये जाएँ एक उम्र के पश्चात् सबकुछ प्रभावहीन हो जायेगा, व्यर्थ हो जाएगा, इस साम्प्रतिक काल में जहाँ सभी कार्य आर्थिक मूल्यों में परखे जाते हों आज आवश्यकता है देश की नई पीढ़ी को, नवगीत की विरासत को एक सुविज्ञ योद्धा की भाँति अपने समर्थ स्कंधों पर सँभालने की, शिथिल रचनाकर्म में उसी सूर्य के शक्ति संवेग को भरने की, अवतारों के उद्देश्यपरक यथार्थ की पुनरावृत्ति की, एवं संस्कृति के शाश्वत संवेदन का ऋण चुकाने की.

अतः अब युवा नवगीतकारों को परम्परा निर्वहन हेतु नवजागरण का चिंतन करना प्रारंभ कर देना ही श्रेयस्कर होगा. प्रदान करना होगा गीत नवगीत के उत्कर्ष को चिरंतन नवजीवन.-स्वस्ति.

सुधी पाठकों को नव वर्ष की अशेष शुभकमानाओं सहित।

उत्तरायण

नवगीत सत्र

प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’
काफिला आवाज का


राह में आँखें बिछाये
किसलिए बैठा
अब यहाँ कोई न आयेगा.

धूप का रथ
दूर आगे बढ़ गया
सिर्फ पहियों की
लकीरें रह गयी
थी इमारत एक
सागर तीर पर
नींव, छत, दीवार जिसकी
ढह गयी.

पश्चिमी आकाश में
उड़ते पखेरु-सा
सूर्य थककर डूब जायेगा.

नील जल पर
एक टूटी नाव-सी
लाश लावारिस दिवस की
तिर रही
थम गया है
काफिला आवाज का
चुप्पियों पर
दीपवेला घिर रही.

अश्रुकण सा रात भर अब
व्योम-पलकों में
शुक्रतारा झिलमिलायेगा

पारिजातों की
विलम्बित छाँव में
रोकती पलभर
सुरभि की किन्नरी
पर नियति में
सार्थवाहों के लिखी
रेत के पदचिह्न-सी
यायावरी

सब जहाँ अपनी सुनाते हों
विजय-गाथा
तू व्यथा किसको सुनायेगा.


कुमार रवीन्द्र
कुछ सुख बचे हैं



यह क्या, भन्ते !
बोधिवृक्ष को खोज रहे तुम
महानगर में

यों यह सच है
बोधिवृक्ष की चर्चा थी कल
सभागार में
रक्त बहा है
इधर रात भर नदी-धार में

घायल पड़ा हुआ है
अंतिम-बचा कबूतर पूजाघर में

सड़क-दर-सड़क
भटक रहे तुम
लोग चकित हैं
सधे हुए जो अस्त्र-शस्त्र
वे अभिमंत्रित हैं

उस कोने में
बच्चे बैठे भूखे-प्यासे/डूबे डर में

वही तो नहीं बोधिवृक्ष
जो ठूँठ खड़ा है
उस पर ही तो
महाअसुर का नाम जड़ा है

उसके नीचे
जलसे होंगे नरमेधों के
इस पतझर में


डॉ. रविशंकर पाण्डेय
जाड़े का सूरज



जाड़े का सूरज
कोहरे से झाँक रहा
बटन मिर्जई में ज्यों कोई
बूढ़ा टाँक रहा

सहमे-सहमे
पेड़ खड़े
हर टहनी काँपे है
एक धुँध की चादर मैली
सबको ढाँपे है
लम्बे डग भरता दिन, घर का
रस्ता नाम रहा

कथरी ओढ़े
सुबह देर तक
खुद ही सोई है
पश्मीने की शाल
धूप की खोई खोई है
सवा सेर आलस जाँगर बस
एक छँटाँक रहा

सर्द हवा में
हमें निकलना
रोजी-रोटी को
लानत सौ-सौ बार मुई इस
किस्मत खोटी को
मजदूरों से मौसम का यह
खूब मजाक रहा


डॉ. तारादत्त ‘निर्विरोध’
गंधाते शूल



झरते हैं फूल-पात
डाली से,
गंधाते शूल हैं
मौसम की गाली से

एक नहीं गंध
एक नहीं राग-रंग,
सबके हैं खिलने के
अलग-अलग ढंग
वृक्षों के हालचाल
पूछें क्यों माली से

सूखे से कानन में
मलयज के गीत,
लगते बेमानी-से
अर्थहीन लय के
शब्दहीन-संगीत
चलता है कामकाज
अक्षरों के राज में

शब्दों के हल्लो से,
अर्थों की ताली से


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