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परत-दर-परत

के. पी. सक्सेना

प्रकाशक : संदर्भ प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5966
आईएसबीएन :81-88854-33-6

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प्रस्तुत है परत-दर-परत की एक सौ एक लघु कथाएँ.....

Parat-Dar-Parat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लघुकथा कथा-साहित्य की सशक्त विधा है। प्रस्तुतीकरण की सार्थकता को ही लघुकथा का मूलतत्व माना गया है, चाहे वह यथार्थ हो या काल्पनिक। लघुकथा में कथा का प्रभाव ही अर्थ रखता है। कभी-कभी छोटी-छोटी घटनाएँ जीवन की दिशा को बदल देती हैं। कथाओं का जन्म इन छोटी-छोटी घटनाओं से भी होता है।

आज आदमी संवेदनाओं के मरुस्थल में भटक रहा है। उसके भीतर की इंसानियत काफूर हो गई है। ऐसी परिस्थिति में सहृदय व्यक्ति द्रवित हो उठता है। वह समाज के नकारात्मक तथ्यों की ओर अपनी रचनाओं के माध्यम से उंगली उठाना शुरु कर देता है और समाज को झकझोरने लगता है। सटीक बिम्बों तथा प्रतीकों के साथ कम शब्दों में की गई कथात्मक अभिव्यक्ति के रूप में एक सफल लघुकथा का जन्म होता है। ‘परत-दर-परत’ तथाकथित अभिजात्य समाज की अदालत में एक आम और बेकसूर आदमी का हलफनामा है ?

सक्सेना जी ने अपनी सम्पूर्ण रचनाओं में अमानवीय आचरणों, हरकतों को अपनी पैनी नजरों से देखा तथा महसूस किया। इसी कारण संग्रह की लघुकथाएँ जीवन्त एवं मूर्त लगती हैं। आपकी लघुकथाएँ, पाठकों को द्रवित करती हैं। साथ ही मानवीय संवेदना के दीप को जलाए रखने की सामर्थ्य भी रखती हैं। लघुकथा साहित्य में सक्सेना जी से हमें अभी और भी अपेक्षाएँ हैं, इनकी आगामी रचनाओं का बेसब्री से इंतजार रहेगा।

राम पटवा

लघुकथा क्यों ?


इस आपाधापी के युग में प्राय: यह देखा जा रहा है कि लोग चाहकर भी लंबी कहानियों या उपन्यास को पढ़ने का समय नहीं निकाल पाते, किन्तु जिनका जुड़ाव जरा भी साहित्य से है वे चाहते अवश्य है कि दौड़ के किसी अंतराल में यदि एक बैठक की आसान-सी कोई चीज पढ़ने को मिल जाए तो अच्छा है। ऐसी स्थिति में लोगों की भावनाओं के अनुरूप जो विधा सबसे सशक्त रूप में लोकप्रिय हुई है वह मेरी समझ में, लघुकथा ही है।

और लघुकथा ही क्यों, कविता या महाकाव्य का कारवाँ भी गीत, गज़ल, दोहे, मुक्तक, शेरों की यात्रा करते हुए क्षणिकाओं और हाईकु जैसे 5-7-5 की मात्राओं वाली शैली में लोगों को रास आने लगा है। मतलब साफ है- इंसटैंट के युग में अब गाजर नहीं उसका अर्क चलेगा। आप लघुकथा की बात करते हैं- अणुकथा-बाजार में आ चुकी है। लघुकथा मौलिक रूप में ‘लोककथा’ और ‘बोधकथा’ से भिन्न होती है किन्तु पाठक को असली ठौर तक पहुँचाने में सक्षम होती है-सतसइया के दोहरे की तरह। आकार में लघुता, विषय में संक्षिप्तता तथा परोक्ष में निहित संदेश लघु कथा के मूल तत्त्व होते हैं। सीमा का अतिक्रमण इसमें अशोभनीय माना जाता है। यह धृष्टता यद्यपि मुझसे भी हुई है। आज पाठक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार चाहता है, उसे ताना-बाना बुननेवाली परीकथाओं या अव्यवहारिक रोमांस में अब आनंद नहीं आता-उसे आदर्श कहानियाँ भी नहीं बाँध पाती। वह चाहता है कि तनावपूर्ण जीवन में जो फल मिले हैं वे उबाऊ न होकर कुछ सुकून दे सकें तो अच्छा है। और यह सुकून उसे तभी मिलता है जब वह, वही पढ़ता है जो आस-पास वास्तव में घट रहा है। मेरी-तेरी, उसकी बात और अगर उसमें उसे कोई तसल्ली या हल नजर आ जाए तो फिर क्या बात है ? सोने में सुहागा।

लघुकथाओं में शब्दों का फलक भले व्यापक न हो, इसकी मारक क्षमता कम नहीं होती। यह कुंद चाकू से गुदगुदाने का माद्दा रखती है और कभी-कभी तो पाठक को हतप्रभ कर देती है कि अरे यह कहाँ पटक दिया ! आखिर लेखक चाहता क्या है ?

ये कथाएँ आज के समाज की विसंगतियों को उकेरने और उसके निदान की ओर इशारा करते हुए पाठक को चिंतन के लिए एक दिशा दे सकें तभी इनकी और लेखक की सार्थकता है।

और अंत में विश्व की एक सबसे छोटी प्रचलित लघुकथा तथा अपनी प्रिय भारतीय लघुकथा को यहाँ उद्धृत करके मैं लेखनी को अल्पविराम देना चाहूँगा-

1. अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा : ट्रेन में पास आकर बैठे एक आदमी से पहले वाले ने पूछा-क्या आप भूतों पर यकीन करते हैं ? दूसरे ने ‘नहीं’ कहने का मुँह खोला किन्तु सुनने को पहले वाला था ही नहीं।
2. भारतीय लघुकथा-एक शहर में एक सुखी इंसान रहता था। बाद में उसकी शादी हो गई।
ईश्वर के बाद सर्वप्रथम उन पात्रों का आभारी हूँ जिन्होंने अगर न कुरेदा होता तो शायद एक शब्द भी लिखना मेरे लिए संभव नहीं था। तत्पश्चात मेरा परिवार और सभी इष्टमित्र-नामों के उल्लेख से निश्चित ही कोई अपना छूट जाएगा, अत: क्षमा करें।

शांतिनाथ नगर, टाटीबंध,
रायपुर (छ.ग.)

के.पी. सक्सेना ‘दूसरे’

दो शब्द


लघुकथा विश्व कथा साहित्य की एक लोकप्रिय विधा मुद्दत से रही है। इधर इसके चलन और एक हद तक इसकी लोकप्रियता में बढोत्तरी हुई है कि अपने पाठकों के पास समय कम होता जा रहा है, अथवा उसके समय पर अनेक जरूरतों और दीगर माध्यमों का दबाव बढ़ रहा है। महाकाव्य और वृहत् उपन्यास का युग चल गया। अपवाद स्वरूप बड़े, यानी हजार-बारह सौ पृष्ठों के उपन्यास लिखे अभी भी जा रहे हैं। उनका प्रकाशन भी हो रहा है, परन्तु उनके पाठक सिमट रहे हैं। इधर लेखन, विशेषकर हिन्दी साहित्य लेखन, इस कदर बोझिल और उबाऊ होता जा रहा है कि पाठक तब तक कोई साहित्यिक कृति खरीदने का जोखिम नहीं उठाना चाहता, जब तक उसकी पठनीयता के विषय में वह आश्वस्त न हो जाए। हिन्दी के स्वनामधन्य नामावर समीक्षकों ने अपनी साख खो दी है। कविता का पाठक-वर्ग सीमित है। जैसे-जैसे कविता से संगीत और संजीवन तत्त्व गायब होता गया, उसकी पाठक संख्या कम होती गई है। कहानियों के बारे में पाठक का शिकवा है कि कभी-कभार ही कोई कहानी ऐसी मिलती है जो आद्योपांत पढ़ी जाए, जिसकी अनुगूँज मानस में कुछ समय तक अनुभव की जाती रहे। प्रमाण है कथा-संग्रहों के संस्मरण का भी पाँच सौ प्रतियों तक सिमट जाना।

लेखक और प्रकाशक का आरोप है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र में पुस्तक-संस्कृति दम तोड़ रही है। यह भी कि हिन्दी पुस्तकें खरीदने और पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो गई है। यह आरोप अशंत: सही है। पूरा सच है कि अच्छा रुचिकर उद्देश्यपरक और पाठक को तृप्त करने वाला लेखन भी हिन्दी में बहुत कम होता गया है। जब कभी भी कोई श्रेष्ठ उपन्यास अथवा अन्य कोई पठनीय कृति सामने आती है और पाठक तक पहुँच जाती है तो उसकी अनेक आवृत्तियाँ होती हैं। इनमें लघुकथाओं, बोध-कथाओं और ललित निबंधों के संकलन भी शामिल हैं। कभी-कभी कोई ऐसी लघुकथा पढ़ने को मिलती है जो पुलक का संचार करती है। मन-प्राण झंकृत कर जाती है। तब एहसास होता है कि लघुकथा साहित्य की कितनी सशक्त विधा है।

लघुकथा के बारे में एक भ्रम यह फैलाया गया है कि वह पत्र-पत्रिकाओं में खाली रह गई जगह को भरने के लिए उपयोग में लाई जाती है। लेकिन दूसरा पहलू यह है कि लघुकथा अक्सर जीवन के खालीपन को भरने का काम करती है। पाठक की नजर सहज ही उसके आकार की लघुता के कारण उस पर दौड़ जाती है। लघुकथा में यदि दम हुआ तो वह उछलकर पाठक का गिरेबान पकड़कर उसे अंतिम पंक्ति तक पढ़ जाने को विवश कर देती है। अपनी छाप छोड़ जाती है। स्मृतियों में रच जाती है। सूफियों से जुड़ी लघुकथाएँ इसका उदाहरण हैं।

श्री के.पी. सक्सेना ‘दूसरे’ की लघुकथाओं का संकलन ‘सत्य के नेपथ्य से’ विचार की दस्तकें देता है। ये उद्वेलित और प्रेरित करती है, कभी-कभी, कहीं-कहीं चमत्कृत भी। श्री सक्सेना की लेखनी में पैनापन है, जिसकी चुभन कुछ लघुकथाओं से महसूस होती है। उनकी साफगोई कभी-कभी निर्ममता की परिधि के बहुत पास पहुँच जाती है। भाषा की शुचिता और वाक्य-विन्यास की कसावट श्री सक्सेना की शैली के विकास की संभावना उत्पन्न करती है। उनकी लेखन-यात्रा लंबा फासला तय करे, यह मेरी कामना है। उनकी सर्जना के पंछी में परवाज की जो आकुलता है, उसके लिए विस्तृत आकाश है।

रमेश नैयर

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संडे आब्जर्वर, हिन्दी दैनिक भास्कर और द हितवाद के पूर्व संपादक एवं संप्रति संचालक छ.ग. राज्य हिन्दी ग्रन्थ अकादमी।


चाल



वह उसे अक्सर बच्ची कहकर चिढ़ाया करता था।
तैश में आकर एक दिन उसने दिखा दिया कि अब वह बच्ची नहीं रही।
वह अपनी चाल पर मुग्ध हो उठा।


भीड़ का दु:ख



युवती की तेज आती स्कूटर से वह वृद्ध टकरा गया। भीड़ लग गई। चोट दोनों को आई थी। हालात का जायजा ले रहे एक स्वयंसेवी ने वृद्ध को रिक्शे में डाला और अस्पताल की ओर चल पड़ा। रिक्शेवाले ने पूछा-
‘‘भाई साहब थोड़ा चोट तो उस महिला को भी आई थी, फिर आप इन्हें ले जा रहे हैं, क्या ये आपके रिश्तेदार हैं ?’’
‘‘नहीं, उसके लिए तो बहुतों की भीड़ है। अगर मैं उसे वहाँ से ले जाना का प्रयास करता तो भीड़ दु:खी हो जाती।’’


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