लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> अर्द्धनारीश्वर का पूर्वार्द्ध सतीश चरित

अर्द्धनारीश्वर का पूर्वार्द्ध सतीश चरित

भगवत प्रसाद काश्यप

प्रकाशक : वन्य भारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5971
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

277 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक अर्धनारीश्वर का पूर्वार्द्ध सतीश चरित.....

Ardhanarishwar Ka Poorvardha Satish Charit a hindi book by Bhagavat Prasad Kashyapv - अर्धनारीश्वर का पूर्वार्द्ध सतीश चरित - भगवत प्रसाद काश्यप-

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शुभकामना संदेश

प्रिय, श्री कश्यप जी,

विक्रम संवत् 2064 की अक्षयतृतीया के पावन अवसर पर भगवान शंकर जी एवं आदिशक्ति माँ सती पार्वती एवं गंगा जी के पावन चरित्र के आधार पर ‘सतीश-चरित्र’ के प्रकाशन का आपने जो संकल्प लिया है, अत्यधिक सराहनीय एवं पुण्य का कार्य है। मुझे आशा ही नहीं वरन् पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रंथ की भाषा सहज, सरल एवं स्थानीय जनमानस के अनुकूल होगी। यह महाकाव्य विभिन्न अंचलों में महादेव-पार्वती के बिखरे-निखरे कथा सूत्रों को उनके सम्पूर्ण स्वरूप में बोध कराने में सहायक सिद्ध होगा।

जिस तरह गोस्वामी तुलसीदास जी कृत महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ में वर्णित मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम चन्द्र जी और सती शिरोमणि श्री सीता जी के अनुपम चरित्र जगपावन और लोकादर्श हैं, उसी प्रकार इस काव्य के आदिदेव सदाशिव और उनकी लीलासहचरी सती-पार्वती के पवित्र चरित्र जनमानस में पैठकर भारत वर्ष की सांस्कृतिक गरिमा को युग-युग तक अक्षुण्ण बनाये रखेंगे।
मैं सतीश-चरित्र महा काव्य के सफल प्रकाशन की मंगल कामाना के साथ हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं।

ननकीराम
।। ॐ नम: शिवाय।।

अभिनंदन


भारतवर्ष की सांस्कृतिक गरिमा अगाध अमृतोजस्विनी है क्योंकि वह अनन्त महिम्न आदि ब्रह्म, परमेश्वर शिव और पराम्बा सती-पार्वती के परम पावन दिव्य दाम्पत्य चरित्र से अनुप्राणित है। इसमें सच्चिदानन्द घन अनन्त श्री गुण विभूषित भगवान विष्णु की धरा-धर्मोद्धारी ललितैश्वर्य लीला का प्रवाह मणि-कंचन संयोग है। वस्तुत: इन्हीं दोनों ईश्वर चरित्रों का अप्रतिम अमोघ, अद्वितीय प्रबल पुरुषार्थ तथा उनकी महाशक्ति लीला से उल्लसित दिव्य शील एवं अनिन्द्य सदाचरण ही इस महान राष्ट्र का प्राण है।

श्री भागवत प्रसाद काश्यप ने विविध पुराणों और आर्ष ग्रंथों का अध्ययन करके उन्हीं परम दिव्य चरित्रों को अपने महाकाव्य ‘अद्धनारीश्वर’ में अवतरित किया है। कवि इसमें ‘सृष्टि-सूत्र’ और ‘सृष्टि-प्रपंच’ सर्गो के द्वारा आदिम मानव को असंस्कृत वन्य जात के स्थान पर देवोद्भूत तपोनिष्ठ एवं सुसंस्कृत महामानव के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिनकी गोद में स्वयं परात्पर पारब्रह्म परमेश्वर विविध रूपों में अवतार लेकर परापरा ज्ञान, शाश्वत सनातन धर्म और अक्षुण्ण संस्कृति की पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं। विश्व गौरव के आदर्श स्वरूप भारतीय-परा-संस्कृति का गगन स्पर्धी स्वर्ण सौध इस नींव पर खड़ा होकर सम्पूर्ण जगत को परम पुरुषार्थ-दया-करुणा और प्रेम का प्रसाद बाँट रहा है।

चौथे सर्ग में महामहेश्वर सदाशिव की महिमा, पाँचवें सर्ग में प्रजापति दक्ष के द्वारा सृष्टि विस्तार का प्रयास, इसमें उनकी तप: पूता कन्याओं की सहभागिता, नर और नारी का परस्पर संतुलित सामंजस्य और साहचर्य्य, छठवें सर्ग में पराम्बा महाशक्ति का दक्ष पुत्री सती के रूप में अवतार, अद्भुत बाल लीलाएँ, स्वयमुद्भूत पूर्व राग प्रसूत शिव-प्रेम का प्राकट्य और उसको प्राप्त करने के लिये तपस्या, सप्तम सर्ग में देवाग्रह से शिव और सती का लोक मंगल विवाह तथा मर्यादामय श्रृंगार विहार, अत्यन्त मार्मिक एवं अनूठे प्रसंग है। आठवें सर्ग में शिव-माया से विमोहित दक्ष का शिव के प्रति क्षोभ, कनखल यज्ञ में उन्हें यज्ञ-भाग से विच्युत करना, अपने प्रियतम महादेव के अपमान से दु:खी और क्रुद्ध सती का वहीं पर योगाग्नि द्वारा प्राण त्याग, तत्पश्चात रूद्ध गणों के द्वारा दक्ष-यज्ञ विध्वंश तथा दुराग्राही दक्ष और दुश्चेतता भृगु का विनाश धर्म मर्यादोलंघन के भयावह परिणाम के साथ घटी घटनाएं पुराण प्राचीन भारत के मील के पत्थर के सिद्ध प्रसंग है और सुसंस्कृत आर्यावर्त्त के विश्व श्रेष्ठ होने का परिचायक है।

आठवें से दशम सर्ग पर्यन्त मर्यादा पुरुषोत्तम राम-कथा-श्रवण से सती विरहोन्मत्त शिव की विरह व्यथाशांति प्रसंग मानव जीवन में मंगल आनन्द और मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रेरणास्पद भगवच्चरित्रों के अवलंबन का संदेश देता है। सम्पूर्ण महाकाव्य लोकमंगल की सद्भावना धरा पर प्रतिष्ठित है।

महाकाव्य के प्राय: सभी लक्षणों से सम्पन्न, रीति-रस-अलंकारादि गुणों से समन्वित, संस्कृत के वर्णित छन्दों में रचित स्तोत्रों के साथ जनमानस में लोकप्रिय दोहे और चौपाई छंदों में चरित इस ग्रंथ के प्रति मैं अपना साधुवाद व्यक्त करता हूं।

मुझे विश्वास है कि असाधारण मानवीय कृति ‘राम चरित मानस’ की परम्परा पर सृजित यह काव्य ग्रंथ जनमानस को मर्यादा पुरुषोत्तम राम और अद्भुत चरित्र शिव तथा उनकी महाशक्ति के रहस्यमयी चरित्रों के रसास्वादन कराने में सफल सिद्ध होगा।

ऐसे सुन्दर सत्साहित्य के निर्माता श्री कश्यप जी का मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूं।
धन्यवाद् !

‘कुर्यात् शिव: मंगलम्’

पं. भागवत प्रसाद द्विवेदी
2064 वि. संवत्

।। ॐ नम: शिवाय ।।

आशीर्वाद


परमपिता परमेश्वर शिव की ‘‘अर्द्धनारीश्वर’’-
अभिधा अत्यन्त भाव प्रवण और हृदयावर्जक है। लोकायत उदात्त दाम्पत्य के श्रेष्ठतम स्वरूप का भावन जन-गण-मन में प्रसाद स्वरूप वितरित करने के लिए ही जगत: पितरौ पार्वती (सती)-परमेश्वर ने यह अनूठी महिम्न मुद्रा और विरुद्ध धारणा की है। विश्व के सभी शिवालयों में प्रतिष्ठित शिव लिंगों (योनि मंडल या जलहरी मंडल) में भी यही संदेश परिलक्षित होते हैं। सृष्टि चक्र के संचालन की धूरी है-प्रकृति (नारी) और पुरुष (नर) का सर्वतोभद्र संतुलित सामंजस्य अथवा अनन्य प्रेम, तथा करुणाकलित ललित साहचर्य्य लीला का उन्मेष। प्राणी जगत के लिए पाषाण खंडों में उत्कीर्ण इस भाव-मुद्रा के दर्शन मात्र से ही संवेदनाओं के सागर में प्रेम-श्रद्धा और भक्ति भावनाओं की शशिचुम्बी लहरें आलोड़ित होने लगती हैं।

मेरे प्रिय शिष्य श्री भागवत प्रसाद कश्यप ने महादेव एवं आदि शक्ति के इसी लोकोत्तर दाम्पत्य के भाव-धरातल पर इस ‘अर्द्ध नारीश्वर’ नामक महाकाव्य की रचना की है। इस काव्य का मानवीय आधार अत्यन्त लोकोपकारी है। इसमें मंगलमूल भगवान विष्णु और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथाओं का समानान्तर प्रवाह न केवल कवि के पुराण ज्ञान को व्यंजित करता है, अपितु मंगल-शान्ति और आनन्द की प्राप्ति के लिए मनुष्य मात्र को भगवान् किं वा महापुरुषों के जीवन-चरित्रों का आश्रय लेने का संदेश भी देता है। कथान्त में सती विरहोन्मत रुद्र की विरह-ज्वाला, महाप्राज्ञ कागभुशुंडी के श्रीमुख से श्रीराम कथामृत का रस पान करने पर ही शांति होती है। शक्ति हीन शिव, शव-स्थिति को प्राप्त होकर के पुनर्मिलन से अर्द्धनारीश्वर की परा दिव्यता को प्राप्त करते हैं।

इस पुरा-साँस्कृतिक महाकाव्य के दो भाग है-प्रथम सतीश चरित, याने सती और शिव लीला। दूसरा उमेश चरित अर्थात् महातपस्विनी पार्वती और विरह-विदग्धावस्था से कुन्दन्त भगवान शंकर का चरित्र। इक्कीस सर्गो में उपनिबद्ध इस महाकाव्य का संप्रति प्रथम भाग, जो स्वयमेव पृथक् महाकाव्य का कलेवर धारण करता है, ही प्रकाशित किया जा रहा है। कथा-परिवेषण की यह कला कवि की निजंधरी है कि पाठक पहले सती और शिव के मधुर दाम्पत्य का रसास्वादन करें। तत्पश्चात् आगामी वर्ष पार्वती परमेश्वर के अर्द्धनारीश्वर परिणत अनन्य और अनाविल प्रणयानन्द के सागर में गोते लगावें।
शैली की दृष्टि से कवि मानस-कार गोस्वामी तुलसीदास के मानस-शिष्य प्रतीत होते हैं।

वे उन्हीं महाकवि का पथावलम्बन कर रामचरित के समानान्तर शिव चरित्र की गंगा बहाना चाहते हैं। इस महाकाव्य की सांस्कृतिक आत्मा ज्योतिर्मयी है। कवि ‘‘आदौ नमस्क्रियाऽशीर्वा’’ की सार्थकता में मंगलचरणों से काव्यारंभ करते हैं। प्रत्येक सर्ग में पंचायत या त्रिक या सप्त पल्लव स्तोत्रों से प्रारम्भ और प्रचलित छिन्न-भिन्न छंदों से समाप्त हुआ है। प्रथम सर्ग में कवि ने वैतालिक की तरह भारत के सांस्कृतिक गौरव-भूत महर्षियों, वेद और आगम तथा आर्यावर्त्त भारत महिमा की वन्दना करते हुए धर्म और सत्कर्म की व्याख्या की है। उत्तरार्ध में हिमालय वर्णन विशद सांस्कृतिक महिमा से मंडित है। छठवाँ और सातवाँ सर्ग इस महाकाव्य की आत्मा है, यद्यपि समापन में भी-

‘‘शांतिमाप्नोतु धरा या धार्यते संस्कृति जनम्।
भूतिर्भूषयतु राष्ट्रं, राष्ट्रं परम दैवतम्।।


की मंगलाख्या से मातृभूमि और राष्ट्र की समृद्धि की कामना की गई है।


प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai