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छत्तीसगढ़ का सैंतीसवाँगढ़

सुधीर शर्मा

प्रकाशक : वैभव प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5972
आईएसबीएन :81-89244-29-9

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प्रस्तुत पुस्तक में सुधीर शर्मा ने गाँव की सांझ, गांव की बरसात, गांव की रात, इन सबके सौंदर्य को नये स्वर दिये।

Chattisgarh Ka Saitisavan Garh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

छत्तीसगढ़ का सैंतीसवाँगढ़

पिछली बार भोपाल रेडियो कवि सम्मेलन में भाग लेने गया तो राजेन्द्र अनुरागी से भेंट हो गयी। पहला ही प्रश्न उन्होंने पूछा सैंतीसवे गढ़ का क्या हाल है ? प्रश्न सुनकर मैं कुछ समझ नहीं पाया कि उनका आशय क्या है भाई ! मैं बच्चू के बारे में पूछ रहा हूँ। उन्होंने स्पष्ट किया और मैं हँस पड़ा। छत्तीसगढ़ के बाहर साहित्य जगत में अपने मित्रों के बीच बच्चू जांजगिरी छत्तीसगढ़ के सैंतीसवें गढ़ के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह बात इसके पूर्व मुझे मालूम न थी किन्तु बच्चू के जितने मित्र और हितेषी हैं शायद उतने किसी अन्य साहित्यिक के हों। सचमुच बच्चू का व्यक्तित्व आज उतना अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है कि उसे सैंतीसवेंगढ़ की उपाधि देना उपयुक्त है। उसके जैसे हरफन मौला साहित्यिक देखने में कम ही आते हैं। ऐसा फक्कड़ और मुँहफट आदमी विशेषकर साहित्यिक मैंने कम ही देखा है। संयम से उसे परहेज है। किसी न किसी काम में व्यस्त रहना उसकी आदत है। यदि कोई काम न रहा तो उसे खुराफातें सूझती है व्यावहारिकता के नाते उनमें गम्भीरता कम है। वह गंभीरता को आडम्बर समझता है। ठीक भी है। अत्यधिक शिष्टाचार्य से उसे घृणा है।

जैसा कि मैंने ऊपर लिखा-संयम से से उसे परहेज़ है। उसका परिणाम यह है कि उसका जीवन अस्त-व्यस्त है। मैंने उसे हमेशा ही अस्त-व्यस्त पाया। किशोर अवस्था से ही मेरा उसका साथ हुआ। उसकी शिक्षा कभी सिलसिले से नहीं हुई। न वह कहीं नियमित रूप से जम सका। इसके पीछे उसकी मानसिक उलझने हैं। उसके जीवन में कड़वाहट भरी है जिसे उसने पी लिया, पचा लिय। उसकी महत्वाकांक्षायें घुट-घुट कर मर गयीं और इसलिये वह अस्त-व्यस्त जीवन का अभ्यासी हो गया।

सन् 1946 के पूर्व मेरा बच्चू से परिचय हुआ। उन दिनों वह रायपुर में रहता था। हम दोनों साहित्य और राजनीति में समान रुचि रखते थे। दोनों खूब लिखते, एक-दूसरे को सुनाते। साहित्य पर चर्चा करते, योजनायें बनाते। सन् 47-48 में हम दोनों ने विशारद की परीक्षा दी। स्व. हनुमान प्रसाद जी यदु के कारण हमारी साहित्यिक रुचि सम्पन्न हुई। उस समय डा. भालचन्द्र रावजी तैलंग भी रायपुर में ही थे। स्व. श्यामा बाबू के यहाँ अक्सर साहित्यिक गोष्ठियाँ होती थीं। हम लोग भी एक कोने में बैठे रहते। उस समय रायपुर में स्व. श्याम बाबू और पं. स्वराज्य प्रसाद जी त्रिवेदी अत्यन्त लोकप्रिय कवि थे। उनके व्यक्तित्व से हम लोगों ने प्रेरणा ली। यहाँ बच्चू को अनुकूल वातावरण मिला। स्व. महादेव प्रसाद जी अतीत भी उस समय यहाँ थे। उनकी कविताओं और पढ़ने की शैली पर हम लोग मुग्ध थे।

सन् 1945-46 में ही हम दोनों के साथ नारायण लाल परमार भी आ मिले। हम तीनों किशोर कवि थे। तीनों घनिष्ठ मित्र थे। इस समय की मित्रता आज भी हैं, रहेगी। अत्यन्त संकटपूर्ण स्थिति ने हम लोगों के सम्पर्क से परमार को पृथक कर दिया, परिस्थितियों को साधकर वह फिर लौटा। दस वर्ष पश्चात अधिक निखरा हुआ तथा कसा हुआ। किन्तु वही सरलता, वही भावुकता- परमार हम सबसे अधिक भावुक है।

भिलाई अधिवेशन के पूर्व मैंने दो पत्र बच्चू को लिखे थे। शायद बहुत ही बुरे मूड में पत्र लिखे गये थे। एक सप्ताह के बाद ही उसका उत्तर मिला-पत्रों में ऐसी भाषा का प्रयोग न करो कि मेरी आंखे गीली हो जायें। हरि मेरे पास बहुत कम आंसू रह गये हैं। तुम्हारे दोनों पत्रों ने कितना दुख दिया है। मैं उस हरि को कहां ढूँढू जो विशारद की परीक्षा के समय अपने घर ले जाकर साथ मुझे रोटियाँ खिलाता था वह बन्धुत्व और वह जबान।

क्या आपको इस पत्र में बच्चू के हृदय और उसके व्यक्तित्व की थोड़ी बहुत झलक मिली ? कुछ लोगों ने पिछले दिनों उसकी कवित्व प्रतिभा पर छींटे कसे थे। यह भी लिखा गया कि उसकी कवितायें अपील नहीं करती। मुझे मालूम है कि ये आरोप एक घृणित गुटबाजी का परिणाम है किन्तु साहित्यिक गुटबाजी का स्तर निम्न नहीं होना चाहिए। सच तो यह है कि कवि की रचनाओं को समझने के पूर्व उसकी मनः स्थितियों को समझना चाहिये। मैं यह मानता हूँ कि शिल्प के मामले में बच्चू ने कभी ध्यान नहीं दिया किन्तु बच्चू की अनुभूति और कल्पनाशीलता उसकी सबसे बड़ी निधि है। सन् 1935 में नागपुर सम्मेलन में श्रीमती कमलाबाई किले ने एक बात कही थी, सद्भावना-पूर्ण हृदय ही सबसे बड़ा महाकाव्य है, और ऐसा हृदय रखने वाला ही महाकवि है। जिसके हृदय में सद्भावनाओं का अभाव है, वह कवि हो सकता है ऐसा विश्वास मैं नहीं करता। कमलाबाई की व्याख्या मुझे बहुत जंची है। ऐसी व्याख्या शायद पुस्तकों में न मिले। तो, बच्चू के पास ऐसा सद्भावना पूर्ण हृदय है इसकी परख मैंने की है और इसीलिए मेरी दृष्टि में बच्चू बहुत बड़ा कवि है, इसमें सन्देह नहीं।

शायद मैं बहक गया। किन्तु बच्चू के व्यक्तित्व के सन्दर्भ में ऊपरी लिखी बातें मुझे आवश्यक प्रतीत हुईं मैं यह बात निःसंकोच लिख सकता हूँ कि बच्चू छत्तीसगढ़ के साहित्य की नयी पीढ़ी की नींव का पत्थर है। आज कुछ लोग उस पत्थर पर व्यंग्य की धूल झाड़ें, पैरों से रौंदे किन्तु इससे नींव के पत्थर का महत्व कम ही नहीं होता।

हम दोनों विशारद की परीक्षा पास कर दृढ़तापूर्वक साहित्य साधना में जुट गये। पूरे आत्म-विश्वास के साथ। बच्चू महाकोशल दैनिक के सम्पादकीय विभाग में काम करने लगा। मैं श्याम बाबू का सहयोगी हो गया। श्याम बाबू-ज्योति मासिक निकालते थे। बच्चू और मैंने साथ ही पत्रकारिता का अनुभव प्राप्त किया। 1950-51 में पिता जी ने राष्ट्रबन्धु अर्धसाप्ताहिक निकाला तब हम दोनों का अनुभव और सुदृढ़ हुआ। हम दोनों की रचनायें प्रदेश के बाहर की पत्रिकाओं में खूब छपने लगीं। अनेक बार हम दोनों नागपुर रेडियो के कवि-सम्मेलनों में बुलाये गये। अन्यत्र भी हम दोनों ही छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व करते। बच्चू के काव्य पठन की शैली आरम्भ से ही आकर्षक रही है। इन्हीं वर्षों में बच्चू अपनी लोकप्रिय रचना कुटरा के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ। लोग उसे कुटरा का कवि कहने लगे। अब भले ही बच्चू के महत्व को लोग न समझे किन्तु, एक जमाना ऐसा था जब बच्चू ने कम से कम छत्तीसगढ में अपनी नवीन काव्य वस्तु और शैली से कितने ही लोगों को प्रभावित किया था आज भी उनकी शैली अपनी है। बेनीपुरी जी ने बच्चू को मड़ैया का कवि ही घोषित कर दिया।

लेकिन बच्चू कवि ही नहीं सफल कहानी लेखक भी हैं। उसका साप्ताहिक जीवन कहानियों से आरम्भ हुआ है। इस युग में श्री मधुकर खेर छत्तीसगढ़ के मंजे हुए कहानीकारों में से एक थे। बच्चू कहानियाँ आज भी लिखता है। उसकी लेखनी अब प्रौढ़ हो गयी है। उसकी हाल की कहानी ‘देवदास शादी के बाद’ पढ़कर मैं तो भौचक्का रह गया। टेकनीक के प्रति बच्चू का एकदम नया ट्रीटमेंट है, किन्तु साहित्यिक गुटबाजी के कारण इस कहानी की जितनी चर्चा साहित्यिक जगत में होनी चाहिये वह नहीं हुई। यहाँ एक बात कह देना आवश्यक समझता हूँ कि बच्चू की कविताओं में उसका कथाकार सजग है।

बच्चू मूलतः प्रकृति का कवि है। गाँवों के सौन्दर्य ने उसे विशेष रूप से आकृष्ट किया है। आज के छत्तीसगढ़ में इन विषयों पर अन्य किसी ने लेखनी नहीं उठाई। गाँवों के रूपाकृतिक सौंदर्य को उसने पी लिया है और उसे स्वर देने में उसकी वाणी समर्थ है। गाँव की सांझ, गांव की बरसात, गांव की रात, इन सबके सौंदर्य को उसने नये स्वर दिये। बिल्कुल अछूते और मौलिक विषयों पर उसने अपनी लेखनी उठाई। उस क्षेत्र में उसका एक छत्र- साम्राज्य है। गांव की संध्या का वर्णन देखिये-


संध्या की बात
फूलों के झुके हुए चेहरों में
झांक रही रात।
इसी गोधलि बेला में-
गायों के झुँण्ड
हिला रहे मुण्ड
सीगों से मथे हुए कुहरों के कुण्ड।
बेचारी धरती को कोंप कर
पड़ते है जहां गाय बैलों के खुर।


कुहरों के कुण्ड को सींगों से मथने की कैसी अछूती कल्पना है। इसी प्रकार ‘गांव की बरसात’ शीर्षक कविता में नयी उपमाओं की भरमार है। एक उदाहरण लीजिये।


धरती पर बूंदों के पांव धरे
घावों पर पोनी का फाहा ज्यों


ग्रीष्म में झुलसने के पश्चात बरसात का आगमन कितना शीतल और सुखद होता है, इन दो पंक्तियों में व्यक्त हो गया है कि इतना ही नहीं-


ठूठों से निकल पड़ी नरम पत्तियां
रूंधे हुए कंठों से वाणी ज्यों
पत्थर की आँखों से पानी ज्यों


सम्भव है नयी कविता के झण्डाबरदारों को बच्चू की ये कवितायें अपील न करें किन्तु मुझे तो करती हैं। ये पंक्तियां भी कितना सुन्दर चित्र प्रस्तुत करती हैं-


ढोलक पर थाप पड़ी
बच्चों के मुखड़ों पर खुशियों
की छाप पड़ी


गांव की रात में बच्चू प्रयोगवादी कवि सर्वाधिक प्रौढ़ रूप में व्यक्त हुआ है-


ठोस है कुहरा
झुका है एक ठंडे ओठ सा
गांव के ऐठन भरे विश्राम पर
धो रहा है मेघ अपने पांव झुककर
बून्द टूटी
फिर धरा की फटी छाती सी
गयी वह
और जैसे धरा की पीड़ा उठाकर
पी गई वह।
जोश फैला उजाले सा
फड़फड़ाती बांहें
कुदाली थाम निकली।


जोश का उजाले के समान फैलना यह बच्चू की लेखनी ही लिख सकती है। बच्चू एक सफल गीतकार भी है। उसके कुछ गीतों में अभिनव प्रयोग भी है।

बच्चू के गीतों का परिचय देने के लिए कुछ पंक्तियां ही पर्याप्त है-


गीतों के मस्तक पर
बिन्दी है भावों की
संवेदन के मुख पर
शोभा है गाँवो की
पत्थर पर भी ममता
के आँसू बोता चल
कंधों पर हार जीत
सब कुछ तू ढोता चल
तेरा जो हो न कभी
उसका भी होता चल
साँस में करुणा के
फूल तू पिरोता चल।

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