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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


तीन


कभी-कभी लगता है कि हमारे हिन्दू शास्त्रों के संस्कार-सम्बन्धी विधि-विधानों में अब अनेक महत्त्वपूर्ण संशोधनों का होना अत्यन्त आवश्यक हो उठा है, विशेषकर जब नारी अपनी समानाधिकार की यात्रा में पूर्ण रूप से सफल रही है, तब अतीत की लकीरों को पीटना काफी हास्यास्पद लगता है। हिन्दू शास्त्र का नारी के प्रति दृष्टिकोण कभी भी उदार नहीं रहा, यहाँ तक कि कुछ शब्दों का उच्चारण भी उसकी जिला के लिए वर्जित घोषित कर दिया गया।

मुझे याद है अपने कट्टर सनातनी पितामह की, मुझे प्रत्येक एकादशी पर विष्णु सहस्रनाम सुनते-सुनते कंठस्थ हो गया था, किन्तु आरम्भ में ही 'ॐ विश्वं विष्णु वषट्कारो' के पूर्व मुझे उनका नित्य कठोर आदेश मिलता कि ॐ को कंठ ही में घुटक लूँ, प्रणव मन्त्र का उच्चारण नारी के लिए वर्जित है। ऐसे ही प्रत्येक श्रावण में जब गृह के पुरोहित रुद्रीपाठ करते तो मुझे उनका वह विशिष्ट छन्दबद्ध विलम्बित मंत्रोच्चारण बहुत अच्छा लगता था।

एक दिन मैं उनकी अविकल नकल करती उस छन्द को अपने कंठ में उतार अपनी आवृत्ति से स्वयं मुग्ध हो रही थी कि पितामह ने बुरी तरह झकझोर दिया, “अरे, करती क्या है! मूर्ख लड़की, लड़कियाँ रुद्रीपाठ नहीं करतीं।" जिस एक अन्य महत्त्वपूर्ण अधिकार से निरीह नारी को वंचित किया गया है, वह है श्राद्ध सम्पन्न करने का अधिकार। कौन हिन्दू नारी भला पिंडदान, श्राद्ध, तर्पण करने की धृष्टता कर सकती है? भले ही वह सन्तानहीना हो, किसी दूर से दूर सम्पर्क के आत्मीय के चरणों में लोट उसके दस नखरे सह उससे ही यह श्राद्ध करवाने के लिए उसे बाध्य होना पड़ता है, चाहे उस कार्य को निबटाने में उस आत्मीय की सामान्य-सी श्रद्धा भी न हो।

क्या वह स्वयं इस कार्य को अधिक समर्पित भावना से सम्पन्न नहीं कर सकती? नहीं, हिन्दू धर्म के धर्मनीतिज्ञ उसके इस प्रस्ताव को सुनते ही उसे लाठी लेकर दूर भगा देंगे।

स्वयं मुझे ही इसका अनुभव कुछ दिनों पूर्व हुआ जब मैं उनके दिग्गज धर्मवागीशों के सम्मुख अपना एक ऐसा ही धृष्ट प्रस्ताव लेकर गई। पुत्र का यज्ञोपवीत नहीं हुआ, पति के श्राद्ध की तिथि निकट आते ही अपनी विवशता का भिक्षापात्र लिए मुझे इधर-उधर गिड़गिड़ाना पड़ता है, इसी से इस बार दृढ़ संकल्प किया कि जैसे भी हो, स्वयं गया जाकर वहाँ की प्रेतशिला पर स्वयं यह कार्य सम्पन्न करूँगी। सुना है, वहाँ पर दिया गया पिंडदान पाकर परलोक के यात्री फिर इहलोक के यात्रियों से कोई कैफियत नहीं माँगते, पूर्ण रूप से परितृप्त होकर मुक्त हो जाते हैं।

सौभाग्य से, मगध विश्वविद्यालय के कुलपति मेरे मित्र थे, उस अत्यन्त विनम्र विद्वान सुहृद् से ही मैंने अनुरोध किया, “पूछकर मुझे सूचित करें क्या मैं स्वयं पति का श्राद्ध कर सकती हूँ?"

"नहीं,” उनका उत्तर आया, “ब्राह्मण की सहायता से भी आप पति का श्राद्ध नहीं कर सकतीं। आप स्त्री हैं, इसी से आपको यह अधिकार नहीं है, चार-पाँच दिन की छुट्टी दिलाकर पुत्र को ले आइए, बिना तूलतबीले के यहीं जनेऊ कर उसी से श्राद्ध करवाइए। पिता का श्राद्ध पुत्र ही कर सकता है, यही शास्त्रसम्मत है और यही उचित भी है।"

किन्तु पुत्र को यदि छुट्टी मिल भी जाए, तो जहाँ तक मुझे ज्ञात है, यज्ञोपवीत होते ही बिना दिशा पलटे उसका श्राद्ध करना भी वर्जित है। आज के इस तीव्र गति से भागते युग में उनकी नौकरी कितने पुत्रों को दिशा पलटने का अवकाश दे सकती है! फिर, यात्रा के इस ह्रस्व प्रत्यावर्त्तन में भी यात्रा का खर्चा क्या सहज ही में उठाया जा सकता? फिर जैसी कठिन यात्राएँ हो उठी हैं, मार्ग ही में किसी ट्रेन दस्यु की कभी भी श्राद्ध करनेवाले की ही कपाल-क्रिया कर स्वयं उसे तत्काल पिंडदान देने की भयावह सम्भावना सदा बनी रहती है।

किन्तु, आप भले ही अकाट्य तर्कों की पोटली खोलकर रख दें, पुत्र के रहते न पत्नी श्राद्ध कर सकती है न पुत्री, जामाता। भले ही, इस युग के अधिकांश होनहार पुत्र पिता की जीवनावस्था में ही, अपने कलुषित आचरण से उनका तर्पण कर उन्हें अदृश्य पिंड दान दे दें, इसकी चिन्ता हमारे हिन्दू धर्म को नहीं रहती। यद्यपि मृत्यु से पूर्व गया जाकर स्वयं अपना श्राद्ध करा पारलौकिक आरक्षण की सुचारु व्यवस्था हमारे शास्त्रों ने कर दी है। समझ में नहीं आता कि जिस धर्म में मृत्युपूर्व स्वयं अपने हाथों अपनी प्रेतशैया सजाने की ऐसी सुन्दर व्यवस्था है, वहीं ऐसा कठोर नियम कैसा?

क्या आज की पुत्री किसी दृष्टि में पुत्र से कुछ कम है? यदि देखा जाए तो माता-पिता के लिए जैसी प्रगाढ़ ममता, अनोखा लगाव एवं स्पृहणीय भक्ति पुत्री के हृदय में होती है, उसका शतांश भी, विवाह पश्चात्, पुत्र के हृदय में नहीं रहता, भले ही यह कटु सत्य सुनने में तिक्त निबौरी-सा ही कड़वा लगे, किन्तु सप्तपदी के सात फेरे जितनी तेजी से अंचल ग्रन्थि में बँधे पुत्र का हृदय फेर उसे निर्लज्ज, दलबदलू बना देते हैं, उतनी तेजी से शायद आज के मन्त्रियों का हृदय भी नहीं बदलता। यह बात अलग है कि अपवाद इस क्षेत्र में भी है, किन्तु उन मुट्ठी-भर पितृमान् भक्त श्रवण-कुमारों को अब दीया जलाकर ढूँढ़ना पड़ता है। यही कारण है कि अधिकांश असहाय जोड़े जीवन-संध्या पुत्रीगृह की स्निग्ध छाया में ही बिता अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं, किन्तु मृत्यु पश्चात् हिन्दू धर्म एक बार फिर उनकी निष्प्राण देह के सिरहाने श्मशानघाट के हृदयहीन चांडाल की तत्परता से घाट का चन्दा वसूलने मृत देह को कोंचने लगता है। पुत्र नहीं है तो मुखाग्नि कौन देगा, पिंडदान कौन करेगा, क्रिया कौन करेगा?

यदि दुर्भाग्य से पंचगति को प्राप्त देह किसी निःसन्तान की है तो समस्या और जटिल हो जाती है। यदि पुत्री है तो वह भी विवश है। तार देकर आत्मीय स्वजनों से अनुरोध किया जाता है कि वे क्रिया करें।

मैं ऐसी पुत्री की व्यथा भी स्वचक्षुओं से देख चुकी हूँ। जीवन-भर उसने असहाया रुग्णा जननी की निष्कपट सेवा की, किसी भी परिस्थिति में पुत्र के कठिन कर्तव्य से विमुख नहीं हुई, किन्तु अन्त समय आया तो परमुखापेक्षिणी बन गई। भले ही वह हरिद्वार, कनखल का पूरा खर्चा सहर्ष उठा ले, घुटनों तक धोती पहन सिर तो नहीं घुटा सकती!

यह कहाँ का न्याय है, पुत्री यदि जननी या जनक की सेवा में पुत्र के रहने या न रहने पर उसका स्थान ले सकती है तो मृत्यु पश्चात् उसकी स्थिति क्यों इतनी दयनीय बन उठती है?

अभी मद्रास में मेरा परिचय एक ऐसे परिवार से हुआ, जहाँ तीन-तीन पुत्र ऊँची नौकरियों पर हैं, एक कुवैत में, दूसरा मलेशिया में, तीसरा भारत की प्रशासकीय सेवा में। तीनों की पत्नियाँ फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलती हैं। जिनकी फिल्म तारिकाओं की-सी सज्जा ने उनके यौवन को सयाने पुत्र-पुत्री होने पर भी उनकी मुट्ठी में बन्द रखा है। आए दिन आकाश में पति की सहयात्रिणी बनी चील-सी पर फड़फड़ाती उड़ती रहती हैं, किन्तु वृद्धा जर्जर जननी रहती है अविवाहिता पुत्री के साथ। बेचारी की नौकरी बहुत छोटी है, पर दिल है बहुत बड़ा। न उसे भाइयों से कोई शिकायत है न भाभियों से कोई गिला। वृद्धा माँ को अपने हाथों से नहलाती-धुलाती है, खाना पकाकर खिलाती है, अखबार पढ़कर सुनाती है। एकदम अधीर-अबोध बालिका-सी जिद्दी बन गई माँ की हर बेतुकी फरमाइश हँस-हँसकर पूरी करती है। उसकी चिड़चिड़ी फटकार सहती है। फिर भी माँ की ममता की डोर दूर बसे प्रवासी पुत्रों के परिवार से ही संलग्न रहती है। बड़े को इडली-साम्बर का नाश्ता ही पसन्द था, पता नहीं बहू वहाँ यह सब बनाती है या नहीं? मँझला मायसोर पाक पर जान छिड़कता था, मँझली भला क्या बनाएगी, वह तो अंडा भी खुद नहीं उबालती, आया से उबलवाती है। और छोटा, वह तो उसकी दुखती रग था। कौन-कौन-सा त्याग नहीं किया था उसके लिए, बीमार पड़ा, वह भी टायफायड। सन्निपात ज्वर में आँय-बाँय बकता, उठ-उठकर बाहर नंगा भागने लगा तो तिरुपति जाकर उसने कठिन मनौती मानी थी। मृत्युंजय जाप, अन्न त्याग, तुलादान, क्या-क्या नहीं किया था, किन्तु आज उसी छोटे पुत्र की न्यायतुला के पलड़े में बैठी उसकी माँ उसके वैभव के पलड़े से बहुत हलकी सिद्ध होकर ऊपर उठी डगमगा रही थी। भारत में होकर भी उसका बेटा जैसे उसके प्रवासी बेटों-सा प्रवासी बन गया था।

दो वर्षों से अभागे का मुँह देखने के लिए तरस गई थी बेचारी। पुत्री ही अब उसका पुत्र थी, पर पुतलियाँ पलटेगी तो वे ही पुत्र उसे पिंडदान देने के अधिकारी होंगे। बहुएँ मन ही मन भुनभुनाएँगी, इतना खर्चा होगा, कौन मानता है अब यह सब ढकोसला? शायद माँ की मृत्यु के अशौच से मलिन तीनों के सँवरे केशगुच्छ, मूंछे और प्रभावशाली गलमुच्छे भी यथावत बने रहेंगे, किन्तु माँ के लिए कलपती पुत्री को हमारा हिन्दू शास्त्र श्राद्ध-तर्पण करने की अनुमति कदापि नहीं देगा।

गुजराती के कवि विपिन पारिख की एक अत्यन्त मार्मिक कविता विपर्यय' मुझे बार-बार याद हो आती है-

पिता जब नहीं रहते
और माँ जब वृद्धा होती चली जाती है

तब एक ही प्रश्न उसकी आँखों में मुखरित हो उठता है-

"क्या, मेरा यह बेटा, मेरी देखभाल कर पाएगा?

पर यह प्रश्न जिसके अधरों पर कभी नहीं आता,

वही माँ है।
जिसने मुझे फूल की तरह सैंता
मेरे डगमगाते नन्हें चरणों को साधती
जो निरन्तर तब तक मेरी छाया बनी खड़ी रही

जब तक मैंने चलना नहीं सिखा लिया,
वही माँ है।

जो मुझे सुलाने से पहले-
स्वयं कभी नहीं सोई
और आज भी, जो मेरी चिन्ता में
बार-बार नींद से चौंककर उठ बैठती है
पर मुँह से कुछ नहीं कहती-
जिसके काँपते हाथ, केवल एक ही आशंका से
ठक-ठक काँपते हैं
कि कहीं यह मेरा बेटा,
मुझे दगा तो नहीं देगा?
उसे दिलासा दे सकूँ
ऐसा एक भी शब्द मैं नहीं कह पाता-
फिर भी, जी में आता है-
अपने दोनों हाथ काट डालूँ।

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