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कृपा

स्वामी ज्ञानानन्द जी महाराज

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5982
आईएसबीएन :81-310-349-3

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प्रस्तुत है पुस्तक कृपा....

Kripa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


सूर्य कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। उसकी किरणें प्रत्येक स्थान पर एक समान पड़ती हैं। यही स्थिति ईश्वर, सद्गुरु और शास्त्र की भी है। इनकी कृपा भी प्रत्येक भक्त-जिज्ञासु पर एक समान होती है। फर्क आत्मकृपा के कारण होता है। आत्मकृपा का अर्थ है- जीवन के प्रति सकारात्मक भाव से परिपूर्ण हो जाना। जब तक ऐसा नहीं होता जीव उस कृपा का अनुभव नहीं कर पाता, जो सदैव उस पर बरस रही है। खिड़की के खुलते ही उसे अहसास होता है सूर्य और वायु की उस अपार कृपा का जिससे वह अभी तक अपनी ही भूल के कारण वंचित था। परमात्मा की कृपा की स्वीकृति का अनुभव ही आत्मानुभूति की परम साधना है। इसके बाद तो समूचा जीवन प्रसन्नता, शांति और आह्लाद की दिव्य परम अनुभूति से तरंगित हो उठता है। तब दुख, क्लेश आदि का नामोनिशान नहीं रहता। यही तो है जीवन की सार्थकता और कृतकृत्यता भी।


सद्गुरु के श्रीचरणों में समर्पित
पूज्य ब्रह्मलीन स्वामी
श्री गीतानंद जी महाराज
आपकी ही प्रेरणा,
आपका आशीर्वाद है
आपको अर्पण सभी
यह आपका प्रसाद है।

।। श्री कृष्ण कृपा ।।
प्राक्कथन



बहुत विलक्षण, अद्भुत एवं रहस्यमयी लीलाएं हैं हमारे लीला पुरुषोत्तम आनन्दकंद श्री कृष्ण चन्द्र भगवान की। एक तीर से कई शिकार- यह इनकी भाव भंगिमा तो है ही, इनकी लीलाओं में भी स्पष्ट झलक उठती है यह लोकोक्ति। बर्बरीक अपने विस्मयकारी बाहुबल से अधर्मी कौरवों को पराजित होता देख उनका पक्ष लेकर धर्म-विजय में बाधा न बने, यह सोचकर, ब्राह्मण रूप धारण कर उसका सिर मांगने में भी ये हिचकिचाहट नहीं करते। उसने जब ‘छलिया’ कहा तो अनसुना कर दिया लीलाधारी ने। ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे’ के अपने अवतार लक्ष्य की सिद्ध हेतु कुछ भी करना स्वीकार है इन्हें। ‘कर्तुमकर्तुम् अन्यथा कर्तुम समर्थ ईश्वर हैं ये। ‘समरथ को नहीं दोष गोसाईं’ की स्थिति है इनकी। भक्ति को गौरवान्वित करने, भक्त का भावसंरक्षण करने हेतु भक्त-पक्षपाती कहलाने में भी इन्हें किसी तरह का कोई संकोच नहीं है। ‘मैं बैरी सुग्रीव पियारा’- बाली के इस व्यंग्य बाण को भी मुस्कराकर गले से लगा लेते हैं ये।

पांडवों के लिए सिर मांगा। बर्बरीक के इच्छानुसार अत्यन्त ऊँचाई पर रख दिया उसे, ताकि पूरा देश देखा जा सके। युद्ध समाप्ति पर पांडवों में विजय-अभिमान देखते ही ये ले गए बर्बरीक के उसी सिर के पास उन्हें। कहते हैं युधिष्ठिर से- धर्मराज, तनिक पूछो तो इससे कि इतना ऊंचे रहकर समूचे युद्ध में क्या देखा इसने ? सीधा-सा उत्तर मिलता है- मैंने तो केवल श्रीकृष्ण कृपा का सुदर्शन चक्र ही चतुर्दिक् चलते देखा है, उसके सिवाय और कुछ नहीं। एक क्षण नहीं लगा पांडवों का अहं गलित होने में।

यदि ध्यान से देखें, भावचक्षु खोलकर, अहंकार का चश्मा नेत्रों पर से उतारकर तो निश्चय ही सर्वत्र आपको ‘श्री कृष्ण कृपा’ प्रत्यक्ष दिखाई देगी। श्री कृष्ण कृपा है तो कण-कण में, समान रूप से, लेकिन उसका अनुभव कर पाता है कोई-कोई, कोई आंखों वाला ही। सोचो, मानव जीवन की प्राप्ति क्या उसी कृपा का परिणाम नहीं है ? आँखों का प्रकाश, वाणी की वाक्-शक्ति, इसी प्रकार प्रत्येक अंग की क्रियाशीलता कृपा के अतिरिक्त और है क्या ? छोड़ दो मिथ्या अहंकार को और तनिक उदारतापूर्वक विचार करो कि एक मानव शरीर में गतिशील 72 हजार से अधिक नाड़ियां और प्रत्येक में सतत् रक्त संचार, सुप्तावस्था में भी इसी कार्यप्राणाली का चलते रहना- इसे कृपामय की कृपा नहीं तो और क्या कहेंगे आप ? विश्वासपूर्वक स्वीकार कर लेने में ही कृपा का ही कल्याण है कि जो हम हैं, जो हमारे पास है- वह सब हमारा नहीं, उसकी कृपा का ही परिणाम है।

ध्यान रहे- ‘कृपा’ किसी भाव को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त शब्दशास्त्र नहीं है और न ही इससे किसी औपचारिकता का ही निर्वाह किया जाता है। जीवन का शाश्वत् सत्य है- ‘कृपा’। अंतर्मन से अनुभव करने की अवस्था है कृपा। केवल शिष्टाचार नहीं, सत्य स्वीकार करने की मन:स्थिति है कृपा।
आओ, कृपा को विश्वास बना लें जीवन का। रम जाए हमारी प्रत्येक भावना में, प्रत्येक श्वास में, रोम-रोम में- श्री कृष्ण कृपा विश्वास मम.....! बात तो दृढ़ विश्वास की ही है। वस्तुत: ‘कृपा’ के अथाह, असीम शब्दकोश में असंभव शब्द कहीं नहीं है। असंभव भी श्री कृष्ण कृपा से संभव हो जाता है। विष का अमृत में परिणत हो जाना बाह्य दृष्टि से असंभव लगता है, लेकिन मीरा के प्रगाढ़ विश्वास ने इसे संभव बना दिया। ऐसा कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से संभव हो सकता है क्या ? कदापि नहीं ! भक्ति प्रह्लाद का विश्वास श्री कृष्ण में और असंभव भी संभव हो जाता है तत्क्षण। आग का तपता स्तंभ नृसिंह रूप में परिणित हो जाता है। मृत्यु से ‘अमृत’ का जन्म असंभव का संभव होना ही तो है।

‘मूक होहिं वाचाल, पंगु चढ़हिं गिरिवर गहन। जासु कृपा....’ क्या अब भी कहीं कठिनाई है कृष्ण कृपा को अपना विश्वास बना लेने में। जहां सब ओर से निराशा छा जाती है, वहां पवन पुत्र हनुमान द्वारा लाई गई संजीवनी आधार बनती है लक्ष्मण के प्राणों का। किसी भी कारण से, कहीं भी, कभी भी जब कोई आशा की किरण न दिख रही हो, पूर्ण विश्वास रखे, समर्पित और संकलित भावनाओं से निहारो श्री कृष्ण कृपा की ओर- निश्चित ही संजीवनी का कार्य करेगी यह कृपा और तब भावनाओं का स्वर स्वत: नि:सृत होने लगेगा आपके भीतर से –


श्री कृष्ण कृपा विश्वास मम, श्री कृष्ण कृपा ही प्यास।
रहे रहे क्षण मुझे श्री कृष्ण की आस।।

कृष्ण किंकर’
स्वामी ज्ञानानंद

श्री कृष्ण कृपा



मेरे नाथ !
मैं आपको भूलूं नहीं।
मेरे नाथ !
मैं आपसे दूर न रहूं,
आप मुझसे दूर न रहें।
मेरे नाथ !
आप अपनी कृपा सदा
मुझ पर बनाये रखें।


1
कृपा का विज्ञान रहस्यमय है



मानव जीवन अपने आप में महान है। प्रकृति की सर्वोत्कृष्ठ रचना है; सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं- ना हि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्। मनुष्य शरीर के समान और कोई योनि नहीं- नर तन सम नहिं कविनेहु देही। बड़े भाग्यों का लक्षण है यह तन, साथ ही देवताओं के लिए भी दुर्लभ बड़े भाग्य मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थहिं गावा। अत्यंत दुर्लभ और देव दुर्लभ शरीर सुलभ हुआ है ऐ जीव तुझे- नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभम् ! शास्त्रों में अनेक प्रकार से मानव जीवन की महिमा का बखान हुआ है जो सर्वथा सत्य है, उचित है, प्रत्यक्ष है, स्वत: प्रमाणित है। मनुष्य जीवन इस महिमा गान के मूल में इस तथ्य को भी स्वीकारना होगा कि इसकी पृष्ठभूमि में मुख्य भूमिका ईश्वरीय कृपा की ही है। कबंहुक करि करुणा नर देही। देत ईश बिनु हेतु स्नेही।। यह दुर्लभ अवसर सुलभ हुआ, कैसे ? प्रभु कृपा से। सर्वोत्तम शरीर की प्राप्ति संभव कैसे हुई- केवल कृपा से।

चमत्कार की बात आज प्राय: की जाती है। कई बार चमत्कार को नमस्कार की स्थिति में भी देखा जाता है। तनिक गहराई से देखें, गंभीरता से सोचें- मनुष्य शरीर की संरचना। आपको लगेगा- अपने आपमें कितना अनूठा चमत्कार है ईश्वरीय कृपा का। मातृगर्भ में शरीर की रचना एवं विकास कृपा के अतिरिक्त क्या है। शरीर की बनावट देखें- आंख, कान, नाक, मुख- वह भी यथोचित स्थान; आँख में रैटीना, तिल, उसमें प्रकाश; ऊपर सुरक्षा के लिए पलक, कान में बहुत सूक्ष्म सा पर्दा और उसमें श्रवण शक्ति, नासिका के द्वारा श्वास-प्रश्वास और साथ में सूंघने की क्षमता; मुख में इतने कठोर दांतों की रचना और उसमें सुकोमल जिह्वा एवं शब्द का निकलना- किसी भी वैज्ञानिक की विज्ञान पूर्णतया विफल है इसके आगे। वैज्ञानिक कदाचित सोच भी न पाएं कि यह सब कैसे ? वस्तुत: इसमें एक ही विज्ञान काम करता है और वह है- कृपा का विज्ञान !

हाथ-पैरों की बनावट को लें- उंगलियां और उनमें जोड़- तभी तो हाथ से कुछ उठा पाते हैं और काम कर पाते हैं। यदि उंगलियां सीधी होतीं तो ! सोचें- हाथ की हड्डियां- मानवीय सोच से सर्वथा अतीत।

शरीर के भीतर की स्थिति विचार करें। हजारों-हजारों नाड़ियां, उनमें भी मस्तिष्क की अत्यन्त सूक्ष्म (घोड़े के बाल से भी बारीक) नसें और उन सब तक सुचारु ढंग से बिना एक क्षण रुके रक्त संचार, उससे पूर्व पाचन क्रिया रक्ता का बनना, हृदय की धड़कन-केवल एक ही स्थिति है इसके मूल में और वह है कृपा शक्ति ! अत्यन्त रहस्यमय है कृपा का विज्ञान। शरीर की बनावट देखें अथवा संचालन विधि और इससे भी आगे प्रकृति का विस्तार यदि आंखों से अहंकार का चश्मा उतरा हुआ हो तो स्पष्ट दिखेगी सर्वत्र उस परमात्मा की कृपा ही कृपा ! सूर्य का प्रकाश क्या है- ईश्वरीय कृपा ! चन्द्र ज्योत्सना, तारों की टिमटिमाहट, अग्नि की दाहकता- सब है उसकी ही कृपा ! वर्षा, हिमपात और नदियों का अविरल जल प्रवाह- इसे ध्यान से देखें तो कृपा ही दृष्टिगोचर होगी। बीज से विशाल वृक्ष, वृक्ष से हरियाली, फूल, फल, फिर बीज, लहलहाती फसलें तथा वनस्पति; सोचें- यह सब क्या, कैसे ? उत्तर वही कृपा, केवल कृपा !


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