गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
अपने-आपको आत्मा मानिये
अपने-आपको शरीर मत मानिये। शरीर तो हाड़-मास, वासना, तृष्णा, मोहका पुलन्दा है। आप शरीर नहीं है। आप तो आत्मा है। अपने-आपको आत्मा ही मानकर कर्मक्षेत्रमें प्रविष्ट होइये। आपके मस्तिष्कमें जो विषय उठते हैं, आपके अन्तःकरणमें जो विचार जमे हुए हैं, उनका सावधानीसे निरीक्षण कीजिये और देखिये कि वे 'आत्मा' जैसे महान् तत्त्वके गौरवके अनुरूप हैं या नहीं? आत्माका सन्देश है-उच्च भूमिकामें प्रवेश तथा भ्रमण पराशक्तिसे तदाकार एवं जगत्-नियन्ता सर्वशक्तिमान् परब्रह्मकी सत्ताके पवित्र प्रदेशमें निरन्तर रमण। आप नित्य-प्रति दैनिक जीवनमें जो कार्य करते है, उन्हें देखकर आत्मतत्त्वकी कसौटीपर जांचिये और विचार कीजिये कि वे परमात्माके राजकुमार (जो आप है) के करनेयोग्य है या नहीं? यदि आपकी अन्तरात्मा स्वीकार करे कि 'हों ये विचार तथा कर्म आत्माके महान् गौरवके अनुरूप है, योग्य हैं, उचित हैं, तो उन्हें प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करते रहिये।
यदि आपकी अन्तरात्मा यह कहे कि अमुक विचार, अमुक कार्य, अमुक व्यवहार आत्माके महान् गौरवके अनुकूल नहीं, ओछे हैं, आत्मसम्मानके विरुद्ध हैं, तो उनका साहसपूर्वक परित्याग कर दीजिये।
आपकी आत्मा सत्य या असत्यका नीर-क्षीर करनेवाली भव्य कसौटी है। यह तुरन्त दूधका दूध और पानीका पानी कर देती है।
जिस विचार या कार्यके सम्पादनसे आपको प्रसन्नता आनन्द या आन्तरिक गर्वका अनुभव होता है, पुण्य तथा आत्मसन्तोष प्रतीत होता है, उसे अपनानेमें एक क्षणके लिये भी विलम्ब मत कीजिये-भले ही उसे अपनानेमें कोई सांसारिक घाटा दिखायी देता है-यही आत्मज्ञानका सीधा सच्चा मार्ग है।
'मेरे जीवनकी दैवी अवस्थाका मेरे प्रत्यक्ष जगत्में अवश्य प्रादुर्भाव होगा'-इस तत्त्वपर गहन चिन्तन कीजिये। इसे अन्तःकरण के कोने-कोनेमें उतार लीजिये। इस भव्य विचारको मनमें रखनेसे आपका मन विमल सरोवरकी भांति स्वच्छ हो जायगा, जिसपर सत्य-असत्यका प्रतिबिम्ब दिखायी देने लगेगा। आपको क्रमशः आत्मज्ञानका अनुभव होगा। नये-नये उच्च विचार मनरूपी आकाशमें उदित होने लगेंगे।
हमारी आत्मा ईश्वरका प्रतिबिम्ब है। वस्तुतः उसमें वह शक्ति है जिसके प्रभावमें बुद्धि सत्पथकी ओर प्रेरित होती है। ईश्वरके अनुसार आत्माका स्वरूप है तथा आत्माका स्वरूप पूर्णताका आधार है। आत्मा मनुष्यका दिव्य केन्द्र है। आत्मतत्त्वसे सिन्ध बुद्धिके प्रकाशसे कल्पनातीत आनन्द एवं अक्षय शान्तिकी प्राप्ति होती है।
जब मनुष्य सांसारिक आनन्दीका मोह छोड़कर आत्माके इस दिव्य प्रदेशमें प्रविष्ट हो जाता है, तो उत्तरोत्तर उसकी दैवी सम्पदाओंकी वृद्धि होती रहती है।
मनुष्यको अपने महान् तेज एवं सामर्थ्यका तबतक ज्ञान नहीं होता, जबतक इस आत्मभावकी चेतना तथा आत्मतत्त्वका बोध न हो जाय। आध्यात्मिक दृष्टिकोण हो जानेपर मनुष्य क्षुद्र मायाजालसे मुक्त होकर आत्माके प्रदेशमें विहार करता है। उसे ऐसा अनुभव होता है, मानो वह अन्धकारसे दिव्य प्रकाशमें आ गया हो। जिस प्रकार भोजन करनेके बाद भूख नहीं रह जाती और सुस्वादु भोजन भी सामने लानेसे उसे खानेकी इच्छा नहीं रहती, उसी प्रकार आध्यात्मिक भोजन चख लेनेके बाद इन्द्रियोंका परिमित आनन्द फीका मालूम पड़ने लगता है। सच्चा सुख तो आत्मानुभूतिसे ही प्राप्त होता है।
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