गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
संसारकी विद्याओंमें वही विद्या सर्वोपरि है, जो हमें पोषक शक्ति का संचय करना सिखाती है तथा जीवन को स्थायी सफलता से विभूषित करती है। एक दूसरा युवक है, जिसे इस विद्याका तनिक भी ज्ञान नहीं है और जिसके कारण उसका सामर्थ्य क्षय हो चुका है। जो निषेधात्मक वायु-मण्डलमें-दुःख, लाचारी, संकीर्णता के संकुचित मनःक्षेत्रमें बड़ा हुआ है। ऐसा व्यक्ति अपने विचार भी अत्यन्त कमजोर रखता है। वह मन-ही-मन कहता है कि 'मैं बेकार हूँ निर्बल हूँ। समृद्धि! तू मुझसे दूर रह। मैं इस योग्य नहीं कि तुझे प्राप्त कर सकूँ। मेरा जीवन वेदना, लाचारी और शंकाका जीवन है। मैं नाचीज हूँ, तुच्छ हूँ, क्षूद्र हूँ।' जो व्यक्ति ऐसी शिक्षा पाकर संसार में प्रवेश करता है, उसका सर्वनाश दूर नहीं है। मनको संकीर्ण रखनेसे विचारोंमें वास्तविक शक्ति उत्पन्न नहीं होती। उसके संशय-भय, उसके आत्मविश्वासकी न्यूनता, उसकी डरपोक और निशेधात्मक शिक्षा-दीक्षा उसकी कार्यशक्तिको पंगु बना देते है।
आन्तरिक प्रदेशमें नैसर्गिक रीतिसे चलनेवाली आध्यात्मिक क्रियाकी ओर मानस नेत्र एकाग्र रखनेसे विचारोंमें यथार्थता उत्पन्न हो सकती है। बलात् अथवा अत्यन्त आग्रहसे या केवल ऊपरसे की हुई क्रियाएँ मनको बलवान् नहीं बना सकतीं। शक्तिशाली मन एक शक्ति अथवा सामर्थ्य है; क्योंकि आन्तरिक मनमें जो कुछ भी अमर्यादित है, उसे यह बाहर प्रकाशित करता है। विश्वमें सबसे अधिक महान् कार्य अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना है। मनुष्य का शरीर कदाचित् लघु प्रतीत होता है, परन्तु उसका मन विश्वका एक महान् आश्चर्य है।
'आमबन्धो! तुम एक अल्पज्ञ जीव-एक निःसत्व परमाणु नहीं हो। तुम हाड़-मासके शरीर ही नहीं हो, जीव ही नहीं हो, क्षुद्र या संकुचित नहीं हो; वरं आत्मा-महान् आत्मा-परम आत्मा हो। तुममें दैवी अंश विद्यमान है। पूर्णता भरी हुई है। तुम दैवी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो। तुम्हारी अद्भुतता और विशालता सर्वोच्च है। तुम ईश्वरकी सर्वोच्च विभूति हो।'
तुम्हें चाहिये कि तुम अपनी भावना में परिवर्तन करो। अपनी हीनत्व की भावना पर विजय प्राप्त करने के लिये मनके विभिन्न व्यापार देखने वाले द्रष्टा बनो। सर्वप्रथम अन्तःकरणमें जमी हुई निम्न प्रवृत्ति का उन्मूलन करो। फिर तुम जितना भी उस सोच सकते हो, जितना उत्कृष्ट आदर्श समुपस्थित कर सकते हो, जितना निर्मल हितकारक प्रकाश उद्भासित कर सकते हो; उतना करो। जैसे-जैसे तुम हितकी भावनापर चित्त एकाग्र करोगे, वैसे-वैसे तुम मनके सामर्थ्योंको प्रकट करोगे और विशेषरूप से महान् बनते जाओगे। हितैषी विचारोंपर आरूढ़ रहने से, उनका आविष्करण करने से मनुष्य की अभिवृद्धि होती है। तुम चाहे संसारमें किसी भी स्थितिमें क्यों न हो, हितैषिता सदैव कल्याणकारी है। जब तुम अपने अन्तस्तम प्रदेशमें पूर्णरूपसे शुभ भावना जाग्रत् कर लोगे, विद्युत्-वेगसे प्रवाहित होनेवाली मनकी क्रियाको हितैषिताकी दिव्य ज्योतिसे देदीप्यमान कर सकोगे, तब तुम्हें पूर्ण ज्ञान तथा अपूर्व शान्तिका अनुभव होगा। हितैषिता की भावना द्वारा जितने अंशोंमें हम अपने जीवन का विकास कर सकेंगे, उतने ही अंशोंमें उसका यथार्थ उपयोग भी कर सकेंगे।
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- इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
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- ज्ञान के नेत्र
- शान्ति की गोद में
- शान्ति आन्तरिक है
- सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
- आत्मनिर्माण कैसे हो?
- परमार्थ के पथपर
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- पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
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- वैराग्यपूर्ण स्थिति
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