गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
३-पितृयज्ञ
'पितृ' का अर्थ है हमारे बड़े। यह यज्ञ हमें उन सम्बन्धियोंके प्रति आदरका भाव रखना सिखाता है, जो हमसे बड़े है, पूज्य है, हमारे लिये हितकारी है, जो बाल्यावस्थासे लेकर बड़े होनेतक हमारी रक्षा करते रहे है। इन्हें हम सम्बन्धानुसार बड़े नामोंसे पुकारते हैं-माता, पिता, पितामह, पितामही, प्रपितामह, प्रपितामही इत्यादि। ये सब पितर कहलाते है।
दूसरे प्रकारके पितर है-महात्मा, ऋषि और मुनि जो हमारे धर्मग्रन्थोंके निर्माता है। इन्होंने जीवनको अच्छी तरह देखा है, अनुभव किया है और वे सचाइयाँ निकाली है, जो शास्त्रोंके रूपमें हमारे निकट विद्यमान है। तीसरे प्रकार के पितर वे देवी-देवता है, जो ईश्वरीय शक्तियोंके प्रतीक हैं और सदा हमारे चारों ओर कल्याणकारी वातावरणकी सृष्टि करते है, संहारक-विनाशकारी शक्तियोंको हटाते हैं और हमें पोषक शक्ति देते हैं। चौथे वे है, जिनकी मृत्यु हो चुकी है। इस यज्ञद्वारा उपर्युक्त सभी प्रकारके पितरोंके प्रति श्रद्धा दिखानेका विधान है।
यह कार्य दो प्रकारसे किया जाता है। पहला उपाय है, श्राद्ध और दूसरा तर्पण अर्थात् पहला उपाय तो यह है कि पितरोंके वचनों और चरणोंमें असीम श्रद्धा रखना और दूसरे उस श्रद्धासे उनकी सेवा-शुश्रूषा करके उन्हें तृप्त करना। हमें चाहिये कि जीवित पितरों (समस्त गुरुजनों) के प्रति अपनी श्रद्धा रखते हुए उनकी आज्ञाका पालन करें, उनकी सेवा करें, अपने-आप दुःख उठाकर उनको सुख पहुँचायें, भोजन-वस्त्रादि द्वारा उन्हें प्रसन्न रखें।
मृत पितरोंके उपकारोंका स्मरण-चिन्तन करते हुए उनको सद्भावसे धन्यवाद देना, स्वयं उनके सदाचरणको अपने जीवनमें धारण करना, उनकी प्रचार की हुई सचाइयोंका प्रचार करना, उनकी स्मृतिमें कुएँ तालाब, धर्मशालाएँ और अन्य परोपकारी संस्थाएँ खुलवाना-ये सब पितृयज्ञके अन्तर्गत ही हैं। इसमें पितृ-संज्ञक शक्तियोंका आदर करना इष्ट है। इस आदरभावसे हम स्वयं अपना ही हित करते है; क्योंकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष-रूपसे हमें पितरोंकी सद्भावनाएँ मिलती रहती है।
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