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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

३-पितृयज्ञ

'पितृ' का अर्थ है हमारे बड़े। यह यज्ञ हमें उन सम्बन्धियोंके प्रति आदरका भाव रखना सिखाता है, जो हमसे बड़े है, पूज्य है, हमारे लिये हितकारी है, जो बाल्यावस्थासे लेकर बड़े होनेतक हमारी रक्षा करते रहे है। इन्हें हम सम्बन्धानुसार बड़े नामोंसे पुकारते हैं-माता, पिता, पितामह, पितामही, प्रपितामह, प्रपितामही इत्यादि। ये सब पितर कहलाते है।

दूसरे प्रकारके पितर है-महात्मा, ऋषि और मुनि जो हमारे धर्मग्रन्थोंके निर्माता है। इन्होंने जीवनको अच्छी तरह देखा है, अनुभव किया है और वे सचाइयाँ निकाली है, जो शास्त्रोंके रूपमें हमारे निकट विद्यमान है। तीसरे प्रकार के पितर वे देवी-देवता है, जो ईश्वरीय शक्तियोंके प्रतीक हैं और सदा हमारे चारों ओर कल्याणकारी वातावरणकी सृष्टि करते है, संहारक-विनाशकारी शक्तियोंको हटाते हैं और हमें पोषक शक्ति देते हैं। चौथे वे है, जिनकी मृत्यु हो चुकी है। इस यज्ञद्वारा उपर्युक्त सभी प्रकारके पितरोंके प्रति श्रद्धा दिखानेका विधान है।

यह कार्य दो प्रकारसे किया जाता है। पहला उपाय है, श्राद्ध और दूसरा तर्पण अर्थात् पहला उपाय तो यह है कि पितरोंके वचनों और चरणोंमें असीम श्रद्धा रखना और दूसरे उस श्रद्धासे उनकी सेवा-शुश्रूषा करके उन्हें तृप्त करना। हमें चाहिये कि जीवित पितरों (समस्त गुरुजनों) के प्रति अपनी श्रद्धा रखते हुए उनकी आज्ञाका पालन करें, उनकी सेवा करें, अपने-आप दुःख उठाकर उनको सुख पहुँचायें, भोजन-वस्त्रादि द्वारा उन्हें प्रसन्न रखें।

मृत पितरोंके उपकारोंका स्मरण-चिन्तन करते हुए उनको सद्भावसे धन्यवाद देना, स्वयं उनके सदाचरणको अपने जीवनमें धारण करना, उनकी प्रचार की हुई सचाइयोंका प्रचार करना, उनकी स्मृतिमें कुएँ तालाब, धर्मशालाएँ और अन्य परोपकारी संस्थाएँ खुलवाना-ये सब पितृयज्ञके अन्तर्गत ही हैं। इसमें पितृ-संज्ञक शक्तियोंका आदर करना इष्ट है। इस आदरभावसे हम स्वयं अपना ही हित करते है; क्योंकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष-रूपसे हमें पितरोंकी सद्भावनाएँ मिलती रहती है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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