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गीता प्रेस, गोरखपुर >> तात्त्विक प्रवचन

तात्त्विक प्रवचन

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5987
आईएसबीएन :81-293-0554-2

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प्रस्तुत है पुस्तक तात्त्विक प्रवचन...

Tattvik Pravachan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।। श्रीहरि: ।।

नम्र निवेदन

प्रस्तुत पुस्तिका में परमपूज्य स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा श्रीमुरलीमनोहर धोरा, बीकानेर में प्रात: पाँच बजे के बाद किये गये कुछ तात्त्विक प्रवचनों का संग्रह किया गया है। ये प्रवचन मनुष्य मात्र के अनुभव पर आधारित हैं। भगवत्प्राप्ति के इच्छुक साधकों के लिये तो ये प्रवचन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं उपयोगी साधकों के लिये तो ये प्रवचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी हैं। इनमें गूढ़ तात्त्विक बातों को सरल भाषा और रीति से समझाया गया है। कल्याणकारी भाइयों और बहनों-माताओं से निवेदन है कि वे इस पुस्तिका का अध्ययन-मनन करके इससे लाभ लेने की चेष्टा करें।
प्रकाशक

।।श्रीहरि:।।

(1)
सार बात


अब तक मैंने जो कुछ सुना, पढ़ा और समझा है, उसका सार बताता हूँ। वह सार कोई नयी बात नहीं है, सबके अनुभव की बात है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह सदा नयी-नयी बात चाहता है। वास्तव में नयी बात वही है, जो सदा रहनेवाली है। उस बात की ओर ध्यान दें। बहुत ही लाभ की बात है और बहुत सीधी सरल बात है। उसे धारण कर लें। दृढ़ता से मान लें तो अभी बेड़ा पार है। अभी चाहे ऐसा अनुभव न हो, पर आगे अनुभव हो जायगा-यह निश्चित है। विद्या समय पाकर पकती है-‘विद्या कालेन पच्यते।’ अत: आप उस सार बात को आज ही मान लें। जैसे, खेती करने वाले जमीन में बीज बो देते हैं, और कोई पूछे तो कहते हैं-खेती हो गयी। ऐसे ही मैं कहता हूँ कि उस बात को दृढ़तापूर्वक मान लें तो कल्याण हो गया ! हाँ, जिसकी विशेष उत्कण्ठा होगी, उसे तो अभी तत्त्व का अनुभव हो जायगा और कम उत्कण्ठा होगी तो अनुभव में देर लगेगी।
यह जो संसार है, यह प्रतिक्षण नाश की ओर जा रहा है-

यह सार बात है। साधारण-सी बात दीखती है, पर बहुत बड़ी सार बात है। यह देखने सुनने, समझने में आनेवाला संसार एक क्षण भी टिकता नहीं, निरन्तर जा रहा है। जितने भी जीवित प्राणी हैं सब-के-सब मृत्यु में जा रहे हैं। सारा संसार प्रलय में जा रहा है। सब कुछ नष्ट हो रहा है। जो दृश्य है, वह अदृश्य हो रहा है। दर्शन अदर्शन में जा रहा है। भाव अभाव में परिणत हो रहा है। यह सार बात है। यह सबके अनुभव की बात है। इसमें किसी को किंचितमात्र भी शंका-सन्देह नहीं है। अभी ‘है’ रूप में जो कुछ दिखता है, वह सब कुछ ‘नहीं’ में जानेवाला है। शरीर, धन, जमीन, मकान, कुटुम्ब, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, पद, अधिकार, योग्यता आदि सब-के-सब ‘नहीं’ अर्थात् अभाव में जा रहे हैं। यह बात ध्यानपूर्वक सुन लें, समझ लें, और मान लें। बिलकुल सच्ची बात है। संसार को ‘है’ अर्थात् रहने वाला मानना ही भूल है।

स्मृति (याद) दो प्रकार की होती है- (1) क्रियात्मक, जैसे नाम-जप करना आदि, और (2) ज्ञानात्मक। क्रियात्मक-स्मृति निरन्तर नहीं रहती है, पर ज्ञामात्मक स्मृति निरन्तर रहती है। जान लिया तो बस जान ही लिया। जाने के बाद फिर विस्मृति, भूल नहीं होती। क्रियात्मक स्मृति में जब क्रिया नहीं होती, तब भूल होती है। ज्ञानात्मक-स्मृति की भूल दूसरे प्रकार की है। जैसे एक व्यक्ति अपने-आपको ब्राह्मण मानता है। वह दिन भर में एक बार भी याद नहीं करता कि मैं ब्राह्मण हूँ। काम न पड़े तो महीने भर भी याद नहीं करता। परन्तु याद न करने पर भी भीतर ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ यह ज्ञानात्मक याद निरन्तर रहती है। उससे कभी कोई पूछे तो वह अपने आपको ब्राह्मण ही बतलायेगा। इस याद की भूल तभी मानी जायगी, जब वह अपने को गलती से वैश्य, क्षत्रिय या हरिजन मान ले। इसी तरह संसार को रहने वाला, सच्चा मान लिया, तो यह भूल है। इसलिये यह अच्छी तरह मान ले कि संसार निरन्तर नाश में जा रहा हैं। फिर चाहे यह बात याद रहे या नहीं। मानी हुई बातों को याद नहीं करना पड़ता। मानी हुई बात की ज्ञानात्मक-स्मृति रहती है। बहनें-माताएँ मानती हैं कि ‘मैं स्त्री हूँ’ तो इसे याद नहीं करना पड़ता, कोई माला नहीं फेरनी पड़ती। मान लिया तो बस, मान ही लिया। विवाह होने के बाद व्यक्ति को सोचना नहीं पड़ता कि विवाह हुआ या नहीं। इसी तरह आप आज ही विशेषता से विचार कर लें कि संसार प्रतिक्षण जा रहा है। यह अभी जिस रूप में है, उस रूप में यह सदा रह सकता ही नहीं।

दूसरी बात, जो संसार ‘नहीं’ है, वह ‘है’ के द्वारा ही दीख रहा है। जैसे, एक व्यक्ति बैठा है और उसके सामने से बीस-पचीस व्यक्ति चले गये। पूछने पर वह कहता है कि बीस-पचीस आदमी यहाँ से होकर चले गये। यदि वह व्यक्ति भी उनके साथ चला जाता, तो कौन समाचार देता कि इतने व्यक्ति यहाँ से होकर गये हैं ? पर वह व्यक्ति गया नहीं, वहीं रहा है, तभी वह उन व्यक्तियों के जाने की बात कह सका है। रहे बिना गये की सूचना कौन देगा ? इसी प्रकार परमात्मा रहने वाला है और संसार जाने वाला है। यदि आप यह बात मान लें कि संसार जा रहा है, तो आपकी स्थिति स्वाभाविक ही सदा रहनेवाले परमात्मा में होगी, करनी नहीं पड़ेगी। जहाँ संसार को रहनेवाला माना कि परमात्मा को भूले। संसार को प्रतिक्षण जाता हुआ मान लेने से परमात्मा की याद न आने पर भी आपकी स्थिति वस्तुत: परमात्मा में ही है।

संसार जा रहा है-यह बहुत श्रेष्ठ और मूल्यवान् बात है, सिद्धान्त की बात है, वेदों और वेदान्त की बात है, महापुरुषों की बात है। परमात्मा रहने वाले हैं और संसार जाने वाला है। वह परमात्मा ‘है’ रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है। सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि-ये युग बदलते हैं, पर परमात्मा कभी नहीं बदलते। वे सदा ज्यों-के-त्यों रहते हैं। दो ही खास बातें हैं कि संसार नहीं है और परमात्मा हैं; संसार जाने वाला है और परमात्मा रहने वाले हैं। यदि आपने इन बातों को मान लिया, तो मानो बहुत बड़ा कार्य कर लिया, आपका जीवन सफल हो गया। फिर तत्त्वज्ञान, भगवत्प्राप्ति, मुक्ति आदि सब इसी से हो जायगी।

संसार निरन्तर जा रहा है, ऐसा देखते-देखते एक स्थिति ऐसी आयेगी कि अपने लिये संसार का अभाव हो जायगा। एक परमात्मा ही है और संसार नहीं है- ऐसा अनुभव हो जायगा। संतों ने कहा है-‘यह नहिं यह नहि यह नहिं होई, ताके परे अगम है सोई।’

यही सार बात है। इसे हृदय में बैठा लें। सबके अनुभव की बात है कि पहले की अवस्था, परिस्थिति, घटना, क्रिया, पदार्थ, साथी आदि अब कहाँ हैं ? जैसे वे चले गये, वैसे अभी की अवस्था, परिस्थिति, पदार्थ आदि भी चले जायँगे। ये तो निरन्तर जा ही रहे हैं। संसार की तो सदा से ही जाने की रीति चली आ रही है-
कोई आज गया कोई काल गया कोई जावनहार तैयार खड़ा।
नहीं कायम कोई मुकाम यहाँ चिरकाल से यही रिवाज रही।।


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