गीता प्रेस, गोरखपुर >> सत्संग की विलक्षणता सत्संग की विलक्षणतास्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है पुस्तक सत्संग की विलक्षणता.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
नम्र निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक में पूज्यवर स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा
जयपुर में द्वितीय बार चातुर्मास सत्संग के अवसर पर दिये गये विशिष्ट
प्रवचनों का संग्रह है। बीकानेर चातुर्मास का भी एक प्रवचन लिया गया है।
ये प्रवचन भगवत्प्राप्ति की ओर अग्रसर होने के अभिलाषी सत्संगियों एवं
साधकों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें गूढ़ तत्त्वों को बड़ी
सरल रीति से समझाया गया है। पाठकों से निवेदन है कि इन प्रवचनों का अध्ययन
एवं मनन करके इनसे लाभ उठायें।
प्रकाशक
।।श्रीहरि:।।
सत्संग की आवश्यकता
सत्संग की आवश्यकता
1
एक सत्संगी भाई ने एक व्यक्ति से सत्संग में चलने को कहा तो वह व्यक्ति
बोला- ‘मैं पाप नहीं करता, अत: मुझसे सत्संग में जाने की
आवश्यकता
नहीं सत्संग में वे जाते हैं, जो पापी होते हैं। वे सत्संग में जाकर अपने
पाप दूर करते हैं। जिस प्रकार अस्पताल में रोगी जाते हैं और अपना रोग दूर
करते हैं। निरोग व्यक्ति को अस्पताल में जाने की क्या आवश्यकता ? जब हम
पाप नहीं करते तो हम सत्संग में क्यों जायें ? ऊपर से देखने पर यह बात ठीक
भी दीखती है।
अब इस बात को ध्यान देकर समझें। श्रीमद्भागवत में एक श्लोक आता है-
निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद् भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्।
क उत्तमश्लोकगुणांनुवादात् पुमान् विरज्येत विना पशुघ्रात्।।
क उत्तमश्लोकगुणांनुवादात् पुमान् विरज्येत विना पशुघ्रात्।।
(श्रीमद्भा.10/1/4)
‘जिनकी तृष्णा की प्यास सर्वदा के लिये बुझ चुकी है, वे
जीवन्मुक्त
महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेम से अतृप्त रहकर गान किया करते हैं,
मुमुक्षुजनों के लिये जो भवरोग का रामबाण औषध है तथा विषयी लोगों के लिये
भी उनके कान और मन को परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के
ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्य के
अतिरिक्त और कौन ऐसा है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ?’
मनुष्य तीन प्रकार को होते हैं- एक जीवन्मुक्त, दूसरे साधक तथा तीसरे साधारण संसारी (विषयी) व्यक्ति।
जिनके कोई तृष्णा नहीं रही, कामना नहीं रही, जो पूर्ण पुरुष हैं, जो ‘आत्माराम’ हैं, जिनके ग्रन्थि-भेदन हो गया है, जो शास्त्र-मर्यादा से ऊपर उठ गये हैं- ऐसे जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष भी भगवान् की भक्ति करते हैं, भजन करते हैं और भगवान् के गुण सुनते हैं-
मनुष्य तीन प्रकार को होते हैं- एक जीवन्मुक्त, दूसरे साधक तथा तीसरे साधारण संसारी (विषयी) व्यक्ति।
जिनके कोई तृष्णा नहीं रही, कामना नहीं रही, जो पूर्ण पुरुष हैं, जो ‘आत्माराम’ हैं, जिनके ग्रन्थि-भेदन हो गया है, जो शास्त्र-मर्यादा से ऊपर उठ गये हैं- ऐसे जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष भी भगवान् की भक्ति करते हैं, भजन करते हैं और भगवान् के गुण सुनते हैं-
‘जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।’
&;(मानस, उत्तर. 42 दो.)
‘जो निरन्तर भगवान् का ध्यान करते हैं, वे भी ध्यान छोड़कर
भगवान् के चरित्र सुनते हैं।’
ब्रह्माजी के चार मानस पुत्र सनकादि हैं। उनकी अवस्था सदा ही पाँच वर्ष की रहती है। वे जन्मजात सिद्ध हैं। ऐसे अनादि सिद्ध सनाकादिक-जिनके दसों दिशाएँ ही वस्त्र हैं, उनके एक ‘व्यसन’ है-
ब्रह्माजी के चार मानस पुत्र सनकादि हैं। उनकी अवस्था सदा ही पाँच वर्ष की रहती है। वे जन्मजात सिद्ध हैं। ऐसे अनादि सिद्ध सनाकादिक-जिनके दसों दिशाएँ ही वस्त्र हैं, उनके एक ‘व्यसन’ है-
‘आसा बसन व्यसन यह तिन्हहीं।
रघुपति चरित होई तहँ सुनहीं।।’
रघुपति चरित होई तहँ सुनहीं।।’
(मानस, उत्तर. 32/3)
जहाँ भी भगवान् की कथा हो, वहाँ वे सुनते हैं। दूसरा कोई कथा करने वाला न
हो तो- तीन बन जाते हैं श्रोता और एक बन जाते हैं वक्ता। इस प्रकार
मुक्त-पुरुष भी भगवान् की कथा सुनते हैं। परमात्म-तत्त्व में निरन्तर लीन
रहनेवाले जीवन्मुक्त पुरुष भी सत्संग जहाँ होता है, वहाँ सुनते हैं।
जो संसार में उद्धार चाहते हैं- ऐसे साधक भी सत्संग सुनते हैं, ताकि सांसारिक मोह दूर हो जाय, अन्त:करण शुद्ध हो जाय।
क्योंकि ‘भवौषधात्’- अर्थात् यह संसार की दवा है।
जो साधारण संसारी मनुष्य हैं, साधन भी नहीं करते- उनके भी मन को, कानों को, सत्संग की बातें अच्छी लगती हैं- ‘श्रोत्रमनोऽभिरामात्’ सत्संग से एक प्रकार की
शान्ति मिलती है, स्वाभाविक मिठास आती है।
इसलिये तीन प्रकार के मनुष्यों का वर्णन किया-
(1) निवृत्ततर्षैरुपगीयमानात् (सिद्ध)
(2) भवौषधात् (साधक)
(3) श्रोत्रमनोऽभिरामात् (विषयी)
भगवान् के गुणानुवाद से उपराम कौन होते हैं ? जो नहीं सुनना चाहते। वे ‘पशुघ्र’ होते हैं अर्थात् महान्
घातक (कसाई) होते हैं। ‘क उत्तमश्लोकगुणानुवादात् पुमान् विरज्यते’ कौन भगवान् के गुणनुवाद सुने बिना रह सकता है ? ‘विना पशुघ्रात्’ पशुघ्राती के सिवाय।
जो संसार में उद्धार चाहते हैं- ऐसे साधक भी सत्संग सुनते हैं, ताकि सांसारिक मोह दूर हो जाय, अन्त:करण शुद्ध हो जाय।
क्योंकि ‘भवौषधात्’- अर्थात् यह संसार की दवा है।
जो साधारण संसारी मनुष्य हैं, साधन भी नहीं करते- उनके भी मन को, कानों को, सत्संग की बातें अच्छी लगती हैं- ‘श्रोत्रमनोऽभिरामात्’ सत्संग से एक प्रकार की
शान्ति मिलती है, स्वाभाविक मिठास आती है।
इसलिये तीन प्रकार के मनुष्यों का वर्णन किया-
(1) निवृत्ततर्षैरुपगीयमानात् (सिद्ध)
(2) भवौषधात् (साधक)
(3) श्रोत्रमनोऽभिरामात् (विषयी)
भगवान् के गुणानुवाद से उपराम कौन होते हैं ? जो नहीं सुनना चाहते। वे ‘पशुघ्र’ होते हैं अर्थात् महान्
घातक (कसाई) होते हैं। ‘क उत्तमश्लोकगुणानुवादात् पुमान् विरज्यते’ कौन भगवान् के गुणनुवाद सुने बिना रह सकता है ? ‘विना पशुघ्रात्’ पशुघ्राती के सिवाय।
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
(मानस, सुन्दर. 44/2)
महान् पापी अथवा ज्ञान का दुश्मन-इनके सिवाय हरिकथा से विरक्त कौन होगा ?
जहाँ भगवान् की कथा होती है, वहाँ भगवान्, भगवान् के भक्त, सन्त-महात्मा, नारद-सनकादि ऋषि-मुनि तथा जीवन्मुक्त-महापुरुष भी खिंचे चले आते हैं; क्योंकि यह अत्यन्त विलक्षण है।
भगवान् की सवारी हैं गरुड़। उन गरुड़जी के बारे में कहा गया है- ‘गरुड़ महाग्यानी गुनरासी।’ गरुड़जी जब उड़ते हैं तो उनके पंखों से सामवेद की ऋचाएँ निकलती हैं। ‘हरिसेवक अतिनिकट निवासी’। ऐसे गरुड़जी, जो सदा ही भगवान् के पास रहते हैं, उनको मोह हो गया, जब भगवान् श्रीराम को नागपाश में बँधे देखा। भगवान् का यह चरित्र देखा तो उनके मन में सन्देह हो गया कि ये काहे के भगवान्, जिनको मैंने नागपाश से छुड़ाया। मैं नहीं छुड़ाता तो इनकी क्या दशा होती ?
इसी प्रकार भगवान् श्रीराम को, हा सीते ! हा सीते ! पुकारते हुए जंगल में भटकते देखकर सती को सन्देह हो गया था कि ये कैसे भगवान् जो अपनी स्त्री को ढूँढ़ते फिर रहे हैं और उसके वियोग में रुदन कर रहे हैं।
गरुड़जी और सती के उदाहरण इसलिये दिये कि इन्हें स्वयं श्रीरामजी के चरित्र देखने से मोह पैदा हो गया और चरित्र-श्रवण से मोह दूर हुआ। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् के चरित्र देखने से भी भगवान् के चरित्र सुनना बढ़िया है। साक्षात् दर्शन से भी चरित्र सुनना उत्तम है; क्योंकि दर्शनों से तो मोह पैदा हुआ है और कथा सुनने से दूर हुआ।
भगवान् की कथा गरूड़, सती आदि के मोह का दूर करती है, इसका तात्पर्य यह है कि जिनको मोह हो गया, वे भी सत्संग के अधिकारी है तो जिनको मोह नही है वे तत्त्वज्ञ पुरूष भी अधिकारी है तथा घोर संसारी आदमी सुनना चाहें तो वे भी अधिकारी हैं। कोई ज्ञान का दुश्मन ही हो तो उसकी बात अलग है हरि कथा में रुचि नही तो भाई, अन्तःकरण बहुत मैला है। मामूली मैला नही है। मामूली मैला होगा तो स्वच्छ हो जायगा, परन्तु ज्यादा मैला होने से सत्संग अच्छा नहीं लग सकता।
जहाँ भगवान् की कथा होती है, वहाँ भगवान्, भगवान् के भक्त, सन्त-महात्मा, नारद-सनकादि ऋषि-मुनि तथा जीवन्मुक्त-महापुरुष भी खिंचे चले आते हैं; क्योंकि यह अत्यन्त विलक्षण है।
भगवान् की सवारी हैं गरुड़। उन गरुड़जी के बारे में कहा गया है- ‘गरुड़ महाग्यानी गुनरासी।’ गरुड़जी जब उड़ते हैं तो उनके पंखों से सामवेद की ऋचाएँ निकलती हैं। ‘हरिसेवक अतिनिकट निवासी’। ऐसे गरुड़जी, जो सदा ही भगवान् के पास रहते हैं, उनको मोह हो गया, जब भगवान् श्रीराम को नागपाश में बँधे देखा। भगवान् का यह चरित्र देखा तो उनके मन में सन्देह हो गया कि ये काहे के भगवान्, जिनको मैंने नागपाश से छुड़ाया। मैं नहीं छुड़ाता तो इनकी क्या दशा होती ?
इसी प्रकार भगवान् श्रीराम को, हा सीते ! हा सीते ! पुकारते हुए जंगल में भटकते देखकर सती को सन्देह हो गया था कि ये कैसे भगवान् जो अपनी स्त्री को ढूँढ़ते फिर रहे हैं और उसके वियोग में रुदन कर रहे हैं।
गरुड़जी और सती के उदाहरण इसलिये दिये कि इन्हें स्वयं श्रीरामजी के चरित्र देखने से मोह पैदा हो गया और चरित्र-श्रवण से मोह दूर हुआ। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् के चरित्र देखने से भी भगवान् के चरित्र सुनना बढ़िया है। साक्षात् दर्शन से भी चरित्र सुनना उत्तम है; क्योंकि दर्शनों से तो मोह पैदा हुआ है और कथा सुनने से दूर हुआ।
भगवान् की कथा गरूड़, सती आदि के मोह का दूर करती है, इसका तात्पर्य यह है कि जिनको मोह हो गया, वे भी सत्संग के अधिकारी है तो जिनको मोह नही है वे तत्त्वज्ञ पुरूष भी अधिकारी है तथा घोर संसारी आदमी सुनना चाहें तो वे भी अधिकारी हैं। कोई ज्ञान का दुश्मन ही हो तो उसकी बात अलग है हरि कथा में रुचि नही तो भाई, अन्तःकरण बहुत मैला है। मामूली मैला नही है। मामूली मैला होगा तो स्वच्छ हो जायगा, परन्तु ज्यादा मैला होने से सत्संग अच्छा नहीं लग सकता।
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