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मेरी प्रिय कहानियाँ मन्नू भंडारी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5991
आईएसबीएन :81-7028-292-6

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प्रस्तुत हैं मन्नू भंडारी की प्रिय कहानियों का संग्रह...

Meri priya kahaniyan Mannu bhandari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के कहानी लेखकों में मन्नू भंडारी का अग्रणी स्थान है। उनकी कहानियां में नारी-जीवन के उन अन्तरंग अनुभवों को विशेष रूप से अभिव्यक्त दी गई है जो उनके नितांत अपने हैं और पुरुष कहानीकारों की रचनाओं में प्राय: नहीं मिलते। वैसे मन्नू भंडारी ने अपने अन्य समकालीन समर्थ लेखकों की तरह ही लगभग सभी पहलुओं पर सशक्त कहानियां लिखी हैं।
कहानियों की बात करते हुए

सहसा ही मुझे लगता है कि उस पुरानी बात में कहीं एक बहुत बड़ी सच्चाई है :
यातना और करुणा हमें दृष्टि देती हैं
अपने सुख और उल्लास के क्षणों में
हम अपने से बाहर होते हैं, औरों के साथ होते हैं
यातना के क्षणों में हम अपने भीतर जीते हैं
और वे हमारे अपने होते हैं।
हो सकता है उल्लास और प्रसन्नता के क्षण
मेरी ज़िन्दगी के सर्वश्रेष्ठ क्षण रहे हों
लेकिन यातना के क्षण मेरे अपने हैं
इन्हें कहानियों में अभिव्यक्ति न मिली होती
तो निस्संदेह ज़िन्दगी का बहुत-कुछ
टूट-बिखर गया होता
आज जब सब-कुछ पीछे छूट गया है
तो लगता है कि ये क्षण ही मेरे प्रिय क्षण हैं
और उनसे उपजी कहानियां ही प्रिय कहानियां

भूमिका


रचना के श्रेष्ठ होने का निर्णय आलोचक और पाठक देते हैं और प्रिय की स्वीकृति लेखक स्वयं। अर्थात् श्रेष्ठ होने की कसौटी रचना के अपने भीतर या बाहर होती है, प्रिय होना लेखक और रचना के बीच का आपसी संबंध है। यों मुग्ध लेखक को अपनी रचना मात्र प्रिय लग सकती है, जिसे हो सकता है दूसरे श्रेष्ठ के आसपास भी न फटकने दें; लेकिन कला के मूल्यों की रक्षा करते हुए रचना में जितना अधिक हम अपने-आपको उंडेल पाते हैं,

वही हमारा प्रिय हो जाता है। बच्चे में नाक-नक्श से लेकर आदतों तक में जहां हम अपने-आपको पाते हैं, वही अंश हमें सबसे प्रिय लगने लगते हैं। रचना करने की क्षमता साथ-साथ आत्म-दान का यह अंश अतिरिक्त उपलब्धि और संतोष की तरह हमारे सामने होता है। अपने प्रतिबिम्ब पर मुग्ध होना नार्सीसिस्ट-वृत्ति हो सकती है,

लेकिन जब प्रतिबिम्ब स्वयं एक जीवन्त प्रक्रिया से गुज़र रहा हो, तो उसे आत्म-विचार और संवेदना का फैलाव ही कहना ज्यादा सही है। अपने अत्यन्त व्यक्तिगत और एकान्त अनुभवों को कहानी के चरित्रों और स्थितियों के बीच रख देना या अपने से अलग कहानी की दुनिया से अपना ‘व्यक्तिगत’ निकाल लेना ही कला को एक सार्थकता देता है, सार्वजनीनता देता है।

जिन रचनाओं में अपनी और दूसरों की बात इस तरह घुल-मिल गई है, वो इतनी अधिक संभावनाओं से भरी होती है कि प्राय: समय-समय पर उनकी नई व्याख्याएं और नये पक्षों का उद्घाटन होता रहता है। व्यक्तिगत अनुभव निर्वैयक्तिक होकर ही सत्य का दर्जा पा सकता है।

विचार या आइडिया को कहानी के रूप में फैला देने वाली कला के विरोध में नई कहानी का जन्म हुआ था और उसकी जगह रेखांकित किया गया था अनुभूत सत्य। मैं या अधिकांश लेखक भी यह तो नहीं कह सकते कि आइडियावादी कहानियों से अपने-आपको सफलता पूर्वक मुक्त कर लिया है,

लेकिन यह ज़रूर है कि मेरी अधिकांश कहानियों के मूल में कहीं-न-कहीं अनुभूति की वैयक्तिकता ही रही है। अनेक बार ऐसा हुआ है कि दूसरों के अनुभव और ज़िन्दगी के कुछ हिस्सों ने अनायास ही मुझे कहानीकार के रूप में आकर्षित किया है। और मैंने उन्हें ज्यों-का-त्यों कहानी के रूप में बांध दिया, लेकिन बाद में पाया कि वह आकर्षण इतना अनायास नहीं था।

उसके पीछे कहीं अनजाने और अचेतन में मेरा अपना ही अनुभव था जो एक भीतरी समानता पाकर उस ओर झुका था। ‘शायद’ ‘सज़ा’, ‘अकेली’ और ‘तीसरा आदमी’ जैसी अनेक कहानियां हैं जो तब मुझे दूसरों ने दी थीं, लेकिन आज समय गुज़र जाने पर जब मैं उन सबसे बिलकुल तटस्थ हो गई हूँ, तो लगता है, वे कतई दूसरों की कहानियां नहीं हैं। वे मेरी मानसिक अवस्था की कहानियां हैं जिनका अर्थ मैंने दूसरों के बहाने पाया था। और शायद यही कारण है कि वे आज अचानक ही मुझे प्रिय लगने लगीं।

आज भी याद आता है कलकत्ते का वह बंगाली परिवार, जो ठीक हमारे घर के सामने गराज पर बनी एक मियानी में रहता था। गृहस्वामी किसी जहाज़ पर मैकेनिक था और दो साल के बाद ही वह घर आ पाता था। उस परिवार ने इस स्थिति को एक प्रकार से स्वीकार कर भी लिया था। गृहस्वामी से अलग उन लोगों की अपनी ज़िन्दगी थी, अपने सुख-दुख थे, जिन्हें वे स्वयं जीते थे; लगता था,

जैसे गृहस्वामी ज़हाज और घर की मशीनों में केवल तेल देने का माध्यम-भर था। इस स्थिति को मैंने कई बरसों तक देखा। वह घर छोड़ देने के बाद भी वह परिवार, संबंधों की वह विडम्बना मुझे बराबर हाण्ट करती रहती। कई बार इस पर कहानी लिखी भी, पर कभी संतोष नहीं हुआ।

शायद इसीलिए कि कहानी का वह मूल विंदु नहीं मिल पा रहा था जो पूरी स्थिति को पारिभाषित भी करता और मेरे किसी अनुभूत सत्य का हिस्सा भी होता। फिर लगा, अधिकांश मध्य वर्गीय परिवारों की स्थिति यही है कि हम अपने-अपने ढंग से गृहस्थी की मशीनों में बस तेल-भर देते रहते हैं और संबंधों के नाजुक सूत्र मशीनी ज़िन्दगी में अनज़ाने ही कहीं कुचल जाते हैं। कुचलन की यह कचोट जब बहुत तीखी हुई थी,

तभी इस कहानी ने एक सार्थक रूप ग्रहण किया था।
इसी तरह ‘अकेली’ की सोमा बुआ को बचपन में जाने कब से देखा था कि किस प्रकार घर से उपेक्षा पाकर वह अपने-आपको दूसरों के लिए महत्त्वपूर्ण बनाने के भ्रम में हास्यास्पद बनाती जा रही थी। उसके अकेलेपन और दयनीयता ने मुझे उस समय केवल मानवीय संवेदना के धरातल पर ही आकर्षित किया था। उस समय कहानी सोमा बुआ की व्यथा को वाणी देने के लिए ही लिखी थी; पर बरसों बाद मुझे उसमें कहीं अपना अंश, अपनी व्यथा दीखने लगी, तो कहानी अचानक ही मुझे बहुत प्रिय हो उठी।

‘सज़ा’ कहानी की विड़म्बना भी किसी और ही परिवार में घटित हुई थी, लेकिन बाद में एक नितान्त भिन्न धरातल पर वह मुझे अपनी व्यक्तिगत कहानी का ही रूपक लगने लगी। ‘सज़ा’ का नायक एक ऐसी विचित्र स्थिति में रहता है जहां वह बिना फैसला हुए ही सजा की यातना भोग रहा था कि इस ख़ुशी को जी सकने के सामर्थ्य ही उसमें नहीं रह गई थीं।

प्रतीक्षा के समय को उसने जेल की चारदीवारी में नहीं, मन की चारदीवारी के पीछे घुटते हुए गुज़ारा था। कहानी लिख गई थी और मैं कहीं उस परिवार के सामने अपने को एक विचित्र-से अपराध-भाव से ग्रसित भी पाती थी-किसी की सारी ज़िन्दगी दांव पर लगी हो, कोई अपने जीवन के भयंकर क्राइसिस से गुज़र रहा हो और कोई उस पर बैठकर कहानी लिखे। लेकिन एकाएक ही लगा कि यह उस अकेले आदमी की त्रासदी की ही कहानी नहीं है।

क्या ऐसा नहीं होता कि कभी-कभी हम ज़िन्दगी के सारे सुख-स्वप्न-आकांक्षाएँ किसी एक स्थिति के साथ जोड़ बैठते हैं और उस स्थिति तक पहुंचने के लिए मोहग्रस्त की तरह सारे संकट, सारी यातनाएं झेलते चलते हैं कि गन्तव्य तक पहुंचने के प्रयत्न में ही सारे सुख-स्वप्न झर गए, सारा उत्साह और उल्लास समाप्त हो गया। उपलब्ध को भोगने की अक्षमता उपलब्धि को निहायत निरर्थक बना देती है। लक्ष्य-प्राप्ति का वह सुख तो ज़िन्दगी में कभी नहीं आता, बस यह यातना-यात्रा ही हमारी ज़िन्दगी की वास्तविकता बनकर रह जाती है।

संक्रान्ति-कालीन मूल्यों के बीच खंडित व्यक्तित्व का साथ किस तरह आदमी-दर-आदमी को तोड़ता चला जाता है, इस अनुभूति से ‘बन्द दराज़ों का साथ’ में दो-चार होना पड़ा। इस प्रकार के व्यक्तित्व के लिए ज़िन्दगी को उसकी संपूर्णता में जीना न केवल असंभव होता है, बल्कि अपने और सम्पर्क में आने वाले के लिए खंड-खंड में जीने का अनन्त सिलसिला पैदा करते जाना उसकी मजबूरी है।

मेरी काहनियों में सबसे अधिक शोर शायद ‘यही सच है’ कहानी का हुआ है। न जाने कितने संकलनों, और अनुवादों और आलोचनाओं में इसे शामिल किया जाता रहा है। हो सकता है, कहानी की कुछ स्थितियों में मैंने अपने-आपको एकात्म भी किया हो, लेकिन मुझे लगता है कि कहानी का केन्द्रीय बिन्दु मेरा अपना अनुभूत सत्य नहीं है, इसीलिए उसे मैं अपनी श्रेष्ठ कहानियों में मानते हुए भी आत्मीय नहीं पाती।

इन कहानियों की बात करते हुए सहसा ही मुझे लगता है कि उस पुरानी बात में कहीं एक बहुत बड़ी सच्चाई है : यातना और करुणा हमें दृष्टि देती हैं। अपने सुख और उल्लास के क्षणों में हम अपने से बाहर होते हैं, औरों के साथ होते हैं; यातना के क्षणों में हम अपने भीतर जीते हैं और वे हमारे अपने होते हैं। हो सकता हैं,

उल्लास और प्रसन्नता के क्षण मेरी ज़िन्दगी के सर्वश्रेष्ठ क्षण रहे हों लेकिन यातना के ये क्षण मेरे अपने हैं और सृजनधर्मा हैं। इन्हें विभिन्न कहानियों में अभिव्यक्ति न मिली होती तो नि:संदेह ज़िन्दगी का बहुत-कुछ टूट-बिखर गया होता। आज जब सब-कुछ बहुत पीछे छूट गया है तो लगता है, कि ये क्षण ही मेरे प्रिय क्षण हैं और उनसे उपजी कहानियां ही प्रिय कहानियां।

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