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सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :9788183611718

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


पाँच


वैसे हमारी बड़ी बहन के ससुर स्वयं किसी बालक से निष्कपट थे। उनकी सिविल सर्जनी अपने में स्वयं महत्त्वपूर्ण गिनी जाती थी। बहुत बड़ी कोठी थी। नौकर-चाकर, नर्स, कम्पाउंडर, वार्ड बॉय सब हाथ बाँधे खड़े रहते। अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् भी वे उसी ठाठ से रहे। पहले विवाह से एक ही पुत्र थे-डॉ. हरदत्त पांडे, जो हमारे जीजा थे। अपनी छः फुटी देह, मृदु व्यवहार एवं सौम्यता के कारण उन दिनों जीजाजी की मेडिकल कॉलेज में विशेष ख्याति थी, उस पर वे अभिनय कुशलता में भी अद्वितीय थे। शाहजहाँ बने जीजाजी का एक दर्शनीय चित्र अभी भी हमारी बँडहर बन गई हवेली की खंडित दीवारों पर टँगा है। दूसरी पत्नी से हमारी बहन के ससुरजी की अनेक सन्तानें हुईं, पर जीजाजी ने कभी 'सौतेले' शब्द को अपने परिवार में उच्चरित नहीं होने दिया। विमाता को उन्होंने अन्त 'लक वही सम्मान दिया, जैसा शायद अपनी सगी माँ को देते, किन्तु फिर भी वे सब उन्हें और हमारी बड़ी बहन को सन्देह की ही दृष्टि से देखते रहे। एकमात्र अपवाद थीं, उनकी एक बहन, जो उन्हें और हमारी बहन को सगी न होने पर भी प्राणों से प्रिय थीं। नाम था मोहिनी। उनका रूप भी नाम के ही अनुरूप था। जब मेरी बहन नहीं रहीं, तो कई वर्षों बाद मिलीं। कहने लगीं, “इसे देख रही हो?" हाथ पकड़कर एक सुन्दर-सी हँसमुख बालिका को उन्होंने मेरे पास खड़ा कर दिया, “यह तेरी बहन है, भाभी ने मुझे साक्षात् सपना दिया था कि मैं तुम्हारे गर्भ में आ रही हूँ, मेरा नाम चन्दा ही रखना। मैंने इसका नाम चन्दा ही धरा है।"

जीजाजी की मृत्यु के पश्चात् दुष्ट ग्रहों ने जैसे चन्दा की ससुराल में जम कर डेरा डाल दिया। जवान बेटा तो गया ही, आवागढ़ महाराज की कोठी, जो उन्होंने बड़े शौक से खरीदी थी, जलकर राख हो गई। परिवारसहित श्वसुर महोदय अपने पैतृक गृह में रहने चले आए। एक छोटा क्लीनिक खोल लिया।

एक रिक्शा में बैठकर नित्य आते, दुकान में बैठकर ऊँघते रहते, कभी भूले-भटके कोई मरीज आता, तो उसे देख, दिन डूबे घर लौट जाते।

उनके गोरे चेहरे पर ऐसी ललछौंही आभा निरन्तर लगी रहती, जैसे किसी ने रंग पोत दिया हो, ओठों पर एक विचित्र मुस्कान और सदाबहार उत्फुल्ल मुखमुद्रा। जीजाजी की मृत्यु के पश्चात् वे अनेक बार पिता बने। सुना था कि उनके एक मित्र ने उन्हें टोक भी दिया था, "अब तो बस कर यार, जवान बेटा गया है तेरा।"
"क्या करूँ, तू ही बता," उन्होंने झल्लाकर कहा था, "मैं तो हरिया के जाने के बाद संन्यास ले चुका था, एक झोपड़ी बनाकर उसी में रहने लगा था, पर वह जो तेरी भाभी है न, रोज घी से तर बादाम का हलुवा लेकर खड़ी हो जाती थी। अब बता मैं क्या कर सकता था?"

उनका निजी जीवन भले ही अवसाद और चुहल के बीच चलता गया हो, लेकिन हमारी बहन के अनाथ बच्चों को दादा की अगाध सम्पत्ति से कुछ भी नहीं मिला। कभी सुना था कि एक बँगला वे उन दोनों के नाम कर गए हैं, पर इसकी कोई पुष्टि किसी ने नहीं की। अब तो वह बँडहर भी शायद धरा में फँसकर विलीन हो गया होगा। डॉक्टर साहब स्वयं इतने संवेदनशील और सरल थे, फिर ऐसे भेदभाव का मारक मन्त्र जाने कौन उनके कानों में फूंक गया?

भुलक्कड़ भी बहुत थे वे, क्या पता इसी भुलक्कड़ी का दंड उनके अबोध पोते-पोती ने पाया हो? एक बार हमारे पुराने नौकर सोबन सिंह की दाढ़ में बहत दर्द था। मैं छुट्टियों में घर आई हुई थी। माँ ने कहा, “अरी, जा तो इसका दाँत डॉक्टर साहब को दिखा ला, नहीं तो यह मेरा सोबनिया आज भी नहीं सोने देगा।"

मैं बड़ी अनिच्छा से ही उसे लेकर गई तो डॉक्टर साहब हमेशा की तरह आरामकुर्सी में आँखें मूंदे, आनन्दमूर्छा में लीन थे, "इसके दाँत में बहुत दर्द है, माँ ने कहा है, जरा देख दें।" डाक्टर साहब चौंककर उठे, किसका देखना और किसका दिखाना? आदेश आया, "बैठ जा रे इस कुर्सी में और मुँह खोल!" न औजार उबाले, न सुई लगाई, संसी-सा जम्बूर उठाया और जुट गए।

"हाँ-हाँ-हाँ," सोबनिया लटपटी जबान में चिल्लाया, “यह दाँत नहीं है, हुजूर, दूसरा है।"

"अबे, चुप साले, डॉक्टर तू है या मैं।"

अपने भारी-भरकम शरीर की पूरी शक्ति लगा, उन्होंने उस कुम्मयाँ जवान राजपूत की अच्छी-खासी जमी दाढ़ उखाड़ ली। जोर ऐसा लगा कि जम्बूर, दाढ़ सहित डॉक्टर साहब मेरी गोद में। तीन दिन बेचारा सोबन सिंह चीखता-चिल्लाता रहा, वह तो भाग्य अच्छा था कि टिटनेस नहीं हुआ। उसकी दुखती दाढ़ मुँह में ही रह गई थी और अच्छी-खासी स्वस्थ दाढ़ डॉक्टर साहब की चिलमची में।

हर रविवार वे अपने पौत्र-पौत्री से मिलने आते, "सुशील, मुन्ना देखो हम तुम्हारे लिए क्या लाए हैं!" हाथ में रहती जलेबी की पुड़िया, फिर माँ को देखते ही वे किसी दन्तहीन शिशु की-सी पोपली हँसी के साथ स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर लेते, "क्या करूँ समधिन, न जाने कब किस सोच में उलझा, सब जलेबी मैं ही खा गया। एक ही बची है, दोनों को बाँट दो।" पाक में सनी नुची-मुची जलेबी के कंकाल को भला माँ कैसे बाँटती? घर में और भी बच्चे हैं, इसका माँ के उन परमहंस समधी को शायद ध्यान ही नहीं रहता।

एक बार जब हम बेंगलूर चले गए तो अम्माँ के इन भोले भंडारी समधी जी का एक कार्ड आया था-'प्रिय सुशील, माधुरी को चरणनतल नमस्कार! समधिन को प्यार...!

न जाने किस धुन में उलटा-सीधा लिख मारा था, पर हम अम्माँ को दिनों तक छेड़ते रहे, “अम्माँ, तुम नहीं भेजोगी अपने समधी को प्यार!"

"चल परे हट, सठिया गए हैं लगता है।"

बड़ी बहन की मृत्यु के पश्चात् हम सपरिवार बेंगलूर चले आए थे। जवान बेटी की मौत से पिता का मन यूँ भी पहाड़ से उचट गया था, फिर मायसोर के युवराज ने बुला भी भेजा था कि उनका राज्याभिषेक होनेवाला है और वे अपने गुरु अर्थात् मेरे पिता को दीवान का पद-भार सौंपना चाहते हैं। सर मिर्जा इस्माइल हमारे पिता के मित्र थे। सम्भवतः उन्हीं की चेष्टा से यह सब तय हुआ था, किन्तु भद्रा का अप्रिय ग्रह तो हमारे साथ-साथ चल रहा था। अपने विराट संतप्त परिवार को लेकर हमारे पिता सुदूर दक्षिण चले आए, तो वहाँ पहुँचते ही पता लगा कि दिल के आकस्मिक दौरे ने युवराज के प्राण ले लिए। दूसरे ही दिन हमें वहाँ छोड़ हमारे पिता अपने गुरु महर्षि रमण के पास भागे। क्या करें, कहाँ जाएँ? उन्होंने कहा, “तुम पर पूरे परिवार का भार है, जाओ, कर्म-पथ ही तुम्हें स्वयं राह दिखाएगा।"

उन्हीं के आशीर्वाद से पिता को, अचानक अपने एक बहुत पुराने मित्र मिल गए-मि. हेनरी। मि. हेनरी तत्कालीन वार सेक्रेटरी थे। हमारे पिता को उन्हीं के प्रयास से असिस्टेंट वार सेक्रेटरी का पद प्राप्त हो गया। इस प्रकार हमारे जीवन में छाए, घोर कृष्णवर्णी मेघ खंडों में सहसा स्वर्ण रेखा चमकी।

वे दो वर्ष हमारे लिए एक प्राणदायिनी शक्ति लेकर आए। हम तीन भाई-बहन तब शान्तिनिकेतन में पढ़ रहे थे। छुट्टियों में घर आते, तो उस नवीन परिवेश का पूरा आनन्द उठाते। रहन-सहन में अभी भी रियासती उसका पूर्ववत् था। इतना बड़ा कुटुम्ब था-दो-तीन नौकर, रसोइया, नौकरानी, हम छह बहनें, दो भाई, बहन के दो बच्चे। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि हमारी माँ कैसे उस वृहत् परिवार का संचालन करती होगी? उसने हमें पढ़ाने में कितना त्याग किया, यह कभी किसी को पता भी नहीं लगता, किन्तु हमारी सक्ष्म दष्टि, माँ की यल से छिपाई गई, हाथ-भर चूड़ियों के बीच सोने की चूड़ियों की रिक्तता देख ही लेती। कितने शौक से उसने कभी ये चूड़ियाँ बनवाई थीं। पूछे जाने पर वे नज़र चुराकर बात पलट देतीं, “अरे गर्मी में सोना एकदम तप जाता है, इसी से उतारकर रख दी हैं।"

हम जानते थे कि माँ की चूड़ियाँ उतारकर रख दी गई हैं, वहाँ से वे उन हाथों में शायद खनकने को वापस कभी नहीं आएँगी।

शेषाद्रिपुरम् के नये-नये बने बँगलों की तब छटा ही अनोखी थी। चालीस वर्षों बाद एक बार पुनः उस विस्मृत गली में पहुंची, तो भटक-भटककर भी अपना घर हँढ ही लिया था। थोड़ी देर तक खड़ी ही रह गई। कहाँ गई वह नये रंग-रोगन की सोंधी खुशबू, दीवार पर लगे प्रिमरोज की बेल, अम्माँ के हाथ का लगाया तुलसी का चौरा और वह नारियल का पेड़, जिस पर पेशावर नारियल तोड़ने को चढ़ा, हम जी-भरकर नारियल का पानी पी, मक्खन मलाई-सी उसकी लुगदी खाते नहीं अघाते थे।

बेंगलूर की हमने अल्हड़ जवानी देखी थी, उसके जीवन की, प्रौढ़ म्लान संध्या में पहचानने का कोई सूत्र भी तो नहीं रह गया था। पुराने प्रतिवेशी सब इधर-उधर चले गए थे। हमारी स्नेही गिरिजा मौसी का बनाया मन्दिर अब भी गर्व से सीना ताने खड़ा था। जब हम वहाँ थे, तब उसकी नींव धरी जा रही थी। गर्भगृह में घुसते ही दीवार पर गिरिजा मौसी की आयल पेंटिंग की बड़ी-सी तस्वीर लगी थी, दूसरी ओर उनके पति की। लोगों ने बताया, दोनों का देहान्त हुए बीस वर्ष से भी अधिक हो गए हैं। गिरिजा मौसी ने हमारे पिता की मृत्यु के पश्चात् उस परदेश में हमारी बाँह गही थी। आधी रात को रुपयों से भरी थैली माँ को थमाकर रोने लगी थी, "इन्हें रख लो, तुम्हें मेरी कसम है, इस परदेश में किससे माँगने जाओगी?'
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