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सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :9788183611718

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


माँ जहाँ भी रहती, टीकमगढ़ या रामपुर, वहीं से गावतकिये-से बड़े-बड़े पार्सलों से उस बृहद परिवार के लिए कपड़े सिलवाकर भेजती रहती। जूट के पेटीकोट, गबरून की करती, अकर्मण्य गृहस्वामी के लिए स्वेटर, कमीजें, चाय के बंडल और गुड़ की भीमकाय भेलियाँ। कुछ ही वर्ष पूर्व वही बुआ मुझे मिलीं। पति का देहान्त हो गया। सातों बेटे कमा-खा रहे थे, बस एक बहू ने चौथी कन्या के जन्म से दुखी होकर आत्महत्या कर ली थी। गठिया वात से लुंज-पुंज बुआ अपने सुख के दिनों में भी, माँ के उपकार को नहीं भूली थीं-चेली (बेटी)-मेरा हाथ पकड़कर वोली-सात-सात बेटों को जन्म दिया मैंने, उन्हें जीवनदान दिया तेरी माँ ने। पूरे सोलह साल तक, हमारे पूरे परिवार के अंगों को उन्हीं ने ढंका। आहा रे। बोज्यू (भाभी) ठोस सोने के रथ में बैठकर ही बैकुंठ गई होंगी।


माँ के औदार्य से बचीं ऐसी ही हमारी एक और रिश्ते की बुआ, जिन्हें उनके उन्मादग्रस्त पति, आए दिन नगाड़े-सा पीट-पाट हमारे द्वार पर डाल जाते। माँ उन्हें लादकर भीतर ले आती। डोलू की जड़ घिसकर, उनकी गुमचोटों पर लगाई जाती, घी से तर गर्म हलुआ खिलाया जाता, दूध में फिटकिरी डाल पिलाया जाता। पर जरा उठने-बैठने लायक होतीं, तो हमारी वे धरती-सी सहिष्णु बुआ, फिर पति से पिटने चली जातीं। माँ भुनभुनाती रहती-वह अभागिनी है ही मार खाने लायक। लाख बार समझाया है, दूर फेंक ऐसे पति को पर माने तब ना!

एक अन्य थीं तितुली बुआ, जिन्हें सगी ननद न होने पर भी माँ के श्वसुर-कुल के जनों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। उनके सरल व्यवहार एवं निष्कलुष स्वभाव ने उन्हें अनायास ही सबका प्रियभाजन बना दिया था। ग्यारह वर्ष की उम्र में ही वे विधवा हो गई थीं, किन्तु हमने कभी उनके आनन्दी चेहरे पर किसी कुंठा या नैराश्य की कुटिल रेखाएँ नहीं देखीं। जब देखो तब, खिलखिलाती रहती--अपढ़ होने पर भी उनकी परिहास की पिचकारियाँ, सबको हँसी से लोटमपोट कर देतीं। और उनके इसी गुण से माँ ने शायद उनकी मानवीय गरिमा का समुचित मूल्य आँका था। उनका कहना था, जो मनुष्य स्वयं हँसना नहीं जानता, वह किसी दूसरे को भी नहीं हँसा सकता। उनकी दृष्टि में भीतर ही भीतर हँसी का अपच पोसनेवाला व्यक्ति, चाहे समाज में कितना ही महिमामंडित क्यों न हो, अपने संसर्ग में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में निरर्थक विषाद का विष घोलकर रख देता है। बुआ उनकी प्रिय थीं क्योंकि उस भोली नारी के जीवन में उनके बाल वैधव्य की व्यथा भी कभी विषाद का विष नहीं घोल पाई थी। हमारे घर आतीं, तो पूरा घर गुलजार हो उठता। अपनी पहाई मिश्रित हिन्दी में कहती-बोज्यू, तुम्हारे दरवाजे पर, पुलिस की गारद देखी तो मेरा मलिया (ऊपर का) का कलेजा मलिया और तलिया (नीचे का) का कलेजा तलिया रह गया।

जब जमादार उनसे कहता-रानी जी रोटी दों, तो बुआ कहती-मर अभागे। रानी जी क्यों कहता है? राँडी जी कह। अपने वैधव्य की व्यथामालिन्य को अपनी ही परिहासप्रियता से उड़ानेवाली बुआ के जीवन का सबसे बड़ा सम्बल बनी मेरी माँ । जीवन में एक ही याचना उन्होंने की, और माँ ने तत्काल उसे पूरा भी किया। एक जोड़ा सोने के (धागुले) पहाड़ी कंगन पहनने की बुआ को गहरी साध थी। इस सरल स्त्री-सुलभ कामना को जब माँ ने पूरा किया, तो बुआ के उजले दाँतों की हँसी ने उनके पूरे चेहरे को पलभर में उद्भासित कर दिया था। लगता था, संसार की सबसे बड़ी निधि जैसे उन्होंने पा ली थी। कभी दगदगाते स्वर्ण कंगनों की देखती, कभी माँ के घुटनों से लिपट कृतज्ञ मार्जारी की भाँति अपने कपोल घिसतीं। यह ठीक है कि उन दिनों, सोने के भाव ऐसे गगनचुम्बी नहीं थे, किन्तु रिश्ते की ननद की सूनी कलाइयों में सोने के कड़े कितनी भाभियाँ पहना सकती हैं? जब कभी सोने के कंगन बनाने की सम्भावना होती है, तो संसार की शायद ही कोई भाभी पतिकुल की किसी दूसरी नारी की रीती कलाइयों के बारे में सोचती हो, भले ही उसकी अपनी देह, सिर से पैर तक स्वर्णमंडित क्यों न हो चुकी हो। नया गहना गढ़ा, उसे स्वयं न पहन दूसरी को पहनानेवाली हमारी माँ जैसी उदार नारी, विधाता बहुत कम गढ़ता है।

माँ की ससुराल का परिवार सीमित था। किन्तु उन दिनों संयुक्त परिवार की महिमा म्लान नहीं हुई थी। पिता की कई चाची-ताइयाँ थीं, माँ की कई जिठानी-देवरानियाँ। उनमें से एक अभिशप्ता देवरानी, माँ को विशेष रूप से प्रिय थीं। उनका जीवन, जितना दुर्वह था, मृत्यु थी उतनी ही भयानक। शक्की पति ने उनकी सुदीर्घ बीमारी को अपने उन्मत्त आचरण से असाध्य ही नहीं बनाया पंगु भी बना दिया था। बेचारी चार हाथ-पैर टेक, जानवरों-सी ही घिसटती रहतीं। उनके अबोध बच्चों को भी क्रूर पिता ने भारी उत्कोच देकर, अपने विपक्षी दल में मिला लिया था। बीमारी के अपर्याप्त नीरस पथ्य ने चाची की जिह्वा को चटोरी बना दिया था। कभी-कभी बच्चे भूखी माँ को एक-से-एक बढ़िया मिष्ठान्न दिखाकर कहते-ले इमरती खाएगी?

जहाँ वे रेंगती हाथ बढ़ाती, बच्चे टप्प से इमरती अपने मुँह में धर उन्हें अँगूठा दिखा देते। कभी-कभी बेचारी रो पड़तीं। रात को जब उनके घर के सदस्य सो जाते, वे रेंगती-रेंगती हमारे दरवाजे पर बैठ जातीं। माँ चुपचाप थाली सजा उनके सामने धर आती, और वे एक ही पल में बड़े-बड़े गस्से निगलकर वापस रेंगती चली जातीं।

मैंने जब पहली बार, प्रेमचन्द की कहानी 'बूढ़ी काकी' पढ़ी तो मुझे रोना आ गया था। क्षण-भर को जूठन बीनती क्षुधातुर बूढ़ी काकी में, मुझे अपनी वही पंगु चाची ही दिखी थीं। उनकी वीभत्स मृत्यु के विषय में भी माँ ने ही बताया। चाची का ऑपरेशन हुआ था, सहसा शक्की चाचा, उनके सद्यःसिले - पेट पर खड़े हो गए थे। टाँके टूटे, और देखते ही देखते चाची के अभिशप्त जीवन का अन्त हो गया। हमारी माँ ने अकथ प्रयास से ही, अपने उस हत्यारे देवर को सम्भावित फाँसी के फन्दे से छुड़ाया था। माँ के समधी सिविल सर्जन थे, उन्हीं ने ऑपरेशन किया था। उन्हीं से माँ ने चिरौरी की-उस पागल को फाँसी हो गई तो इन तीन-तीन अनाथ बच्चों को कौन पालेगा? सबसे छोटे को तो माँ ने अपने ही स्तनपान से जिला लिया। किन्तु विडम्बना देखिए। अब चाचा हमारे ही चिरशत्रु बन गए, बोले-इसी के समधी ने मेरी पत्नी को मारा है। और फिर मैं सती होना चाहता हूँ-उसके बिना मैं कैसे जीऊँगाकहकर दुःख की ऐसी नौटंकी की उन्होंने कि प्रत्यक्षदर्शी पड़ोसी लोगों को उन्हें कमरे में बन्द कर कुंडी लगानी पड़ी-कभी-कभी लगता है, अपने उस हत्यारे देवर को, कानून की गिरफ्त से छुड़ाकर मैंने उस अभागी की आत्मा के प्रति अन्याय ही किया है-माँ कहती थी।

अन्तिम बार माँ से मिलने गई तो मैंने बताया, उनके रोगग्रस्त दत्तक पुत्र की अवस्था शोचनीय है, तो वह बौरा गई-एक बार उसे देख लेती तो फिर जिला लेती। पचासी वर्ष की अवस्था में भी वर्षों पूर्व अपनी छाती से लगी हतभागी देवरानी की उस अमानत का मोह वह भूली नहीं थी। मैंने टोक दिया-इतने वर्षों में एक बार भी वह तुम्हें देखने आया?

-कभी एक पोस्ट कार्ड भी डाला उसने?

-चुप कर, चिट्ठी न लिखने से क्या होता है, उसने मेरा दूध पिया है, छाती के दूध की धूंट कोई चिता में चढ़ने तक नहीं भूलता।

माँ ने, न जाने कितनों को जिलाया, पढ़ा-लिखाकर नौकरी पर लगवाया, इस लेखे-जोखे की फाइल बहुत मोटी है। किन्तु अतीत की उस धुंधली पड़ गई स्याही से उभरे दो नाम, आज विशेष रूप से स्मरण हो आते हैं। एक, मेरे वैरागी चाचा की दत्तक पुत्री मुन्ना--दूसरी कोली दुहिता अनाथ पाँची बाई।

पाँची बाई को जब माँ कार की पिछली सीट में छिपाकर लाई तो उसकी दुरावस्था वैसी ही थी, जैसी सड़क पर पड़े कुतिया के लावारिस पिल्ले की होती है। चीकट, जॅओं से भरे जटा के लच्छे-लच्छे बाल, सींक-सी देह, नगाड़े-सा फूला भूखा पेट और पिल्ले-सी ही रिरियाहट। अभागी के माँ, बाप, दादी, दादा बाढ़ में बह गए थे-वही बची थी। आपने बहुतों को पाला है उसे भी अपनी शरण में ले लें-गाँव के मुखिया ने कहा, तो अम्मा पिघल गई। मेरे पिता ने कड़ा विरोध किया-मान लिया यहाँ तो पाल लोगी, पहाड़ जाओगी तो कैसे निभेगी? तुम्हारे ये चुगलखोर पहाड़ी नौकर ही बता देंगे कि माँजी एक अछूत कन्या को लाई हैं। तुम्हारे हाथ का पानी भी कोई नहीं पिएगा।

पिता का कहना ठीक था, समाज का दंड वे स्वयं झेल चुके थे। विदेश से लौटे, तो हमारे कट्टर सनातनी पितामह ने, उनके सब कर्म दुबारा कराए थे। किन्तु माँ ने जो सोच लिया वह सोच लिया। पाँची बाई, हमारे ही गृह में बनी रहीं और बड़े ठाठ से बनी रहीं। विवाह के पश्चात् लड़की ससुराल जाती है, पर यहाँ तो गोकुल की बेटी मथुरा ब्याही जानी थी। सो हमारे गृह से बिदा होकर पाँची बाई, हमारे ही सागरपेशे में पति समेत विराजमान हो गईं। नये जोड़े ने वहीं अपना स्थायी खेमा गाढ़ दिया, जब विष्णुरूपी उसके पति जीनाराम बने हमारे ड्राइवर, और पाँची बाई ने पूर्ववत् अपना कार्य-भार सँभाल लिया।
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