लोगों की राय

संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :9788183611718

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

15 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


माँ के साथ उन दिनों के चलन के अनुसार, एक ठकुराइन, जिसने उसे पाला था, उसकी हिफाजत को भेजी गई थी। उसने माँ को गोद में खिलाया था। ठकुराइन बड़ी तेज-तर्रार थीं। माँ डोली से उतरी तो वह पीछे-पीछे लग गईं और अपने उग्र तेजी व्यक्तित्व का छत्र, चामर डुलाती वहीं जमी रहीं, जहाँ औरतें नई बहू का मुँह देखने आ रही थीं। औरतें आतीं और बजाय माँ का मुँह देखने, उनका लहँगा उठा, पैर देखने लगतीं। फिर कहती-अरे, पैर तो एकदम ठीक है।


लखनऊ की नफासत में पली ठकुराइन को उनका यह विचित्र गँवार व्यवहार बहुत बुरा लग रहा था।

अन्त में उनसे रहा नहीं गया, बोलीं-ए बहिनी, तुम सब बिटिया का मुँह काहे नाही देखती, गोड़ काहे देखती हो?
-कुछ नहीं ठकुराइन जी, हमने सुना था कि बिटिया के पैर में खोट है, वही देख रही थीं। पर पैर तो दोनों ठीक हैं।

जैसे ही ये प्रगल्भा औरतें जाने लगीं, ठकुराइन चट से उठी और बड़ी अशालीनता से, सबके लहँगे उठाके देखने का उपक्रम करने लगी।
 
-हैं-हैं, क्या कर रही हैं ठकुराइन जी? दादी ने टोका, तो टकुराइन बड़ी व्यंग्यपूर्ण मुस्की छाँटकर बोली-कुछ नहीं अम्माँ, हमहूँ सुनै रहिन की पहाड़ की मेहारारून की इत्ती बड़ी पूँछ होंत है, सोई देख रही थीं। इहाँ तो पूँछ नाई है।

ठकुराइन की इस अपूर्व चुहल ने सबको लोट-पोट कर दिया और उनकी परिहासप्रियता के मद्देनजर उनकी उदंडता को तत्काल क्षमा कर दिया गया।

अपने बाल्यकाल में अम्मा ने कई कलाकारों को देखा-सुना। पेशेवर गायिकाओं में कज्जन बाई, दुलारी, जद्दन बाई, जोहरा-मुश्तरी-सबको अम्मा ने देखा-सुना था। उनमें एक राधारानी, जो पहाड़ की थी और कठिन परिस्थितियों से पराजित होकर, उस कलुषित पेशे में आई थी। माँ को वह अपने दुखी जीवन के दुर्लभ संस्मरण सुनाती, व्यथा से कहती-दुणगिरि (द्रोणागिरि) गागर, ज्यागशर (जागेश्वर), बागश्यर (बागेश्वर) अब कब देखुंगी? कभी नैक ग्राम था, मेरा जन्म-स्थान, छोटी-छोटी कोठरियों से मेरा बचपन बीता। फिर मौसी आगरे ले आई। पेशे में आकर पैसा तो मेरे लिए हाथ का मैल बन गया, पर वही मैल मेरी आत्मा को मैला बना गया है। जानती हूँ, अन्त समय आएगा तो सीधे कुम्भी पाक नर्क जाऊँगी, तुम जैसी पवित्तर आत्मा का स्पर्श भी मुझे अब शायद ही उबार सके।

माँ कहती थी देखने में सबसे सुन्दर थी कज्जन बाई-जैसा ही रूप वैसी ही कद-काठी, वैसी ही मिश्री-सी मीठी आवाज। उसकी सुराहीदार ग्रीवा में हीरे की कंठी में बीसियों झाड़फानूस झलमलाते रहते। आँखों में तो माँ के गर्भ से ही शायद काजल आँजकर आई थी। विद्याधरी का कंठ भी उतना ही मधुर था। पेशेवर गायिकाओं के संस्मरण सुनाती माँ ने इन रूपजीवाओं के हृदय में छिपी मानवीय व्यथा और समाज के उनके प्रति पाखंडी दुर्व्यवहार को कभी हमसे नहीं छिपाया। अम्मा के उन्हीं ईमानदार मानवीयता से ओतप्रोत संस्मरणों ने मेरी लेखनी को गतिशील बनाया है।

विवाहोपरान्त पहलवान राममूर्ति तथा गामा, प्रख्यात चिकित्सक बनारस के त्र्यंबक शास्त्री, डॉ. अंसारी, सर मिर्जा इस्माइल, नवाब छत्तारी और सत्रह तोपों की सलामी लेनेवाले, अनेक राजा-रजवाड़ों का शाही आतिथ्य अपने गृह में अम्मा ने निभाया था। अधिकांश की गुरुपली थी अम्मा। रियासती नमक ने उसकी वाणी में, पहनावे में, उठने-बैठने में एक मान, एक आभिजात्यपूर्ण ठसका भर दिया था जो अन्त तक बना रहा। पर यही ठसका, उसके जीवन के अन्तिम मोड़ पर, नासूर बन गया। नाते-रिश्तेदार सब दूर-दूर हो गए। रात लेटने पर अकेलेपन के बीच बँडहर बन गए मकान में, जब पूरा नक्षत्रखचित व्योम, सब उसकी स्मृति जर्जर छाती पर उतर आता, तो वह सारी रात करवटें . बदलती रहती। अतीत का वैभव, भरा-पूरा परिवार, सात-सात बेटियाँ, बेटे, बीसियों नौकर-सोवन सिंह, बिशन सिंह, शेर सिंह, दीवान सिंह, दोनों गुसाईं, दो-दो लोहनीजी, पाँची बाई, बुन्देलखंड की ललतिया, जगरानी, महादेई, ठकुराइन रात देर तक चलनेवाली पार्टियों के नजारे-बरफ भरे टब में खनकती कौनिएक और बीयर की बोतलें, इन सबकी स्मृतियों का बोझ उन निन्द्राहीन अकेली रात्रियों में माँ के लिए कितना दुर्वह होता होगा, भुक्तभोगी बन मैं अव समझ सकती हूँ।

हम भाई-बहन, जब कभी एकसाथ अपने पहाड़ के उस घर में माँ से मिलने जाते, चाहे ऐसे सुअवसर बहुत कम ही आते, माँ हममें से एक को पुकारती, तो अपने उन सब बच्चों को भी पुकारने लगती, जो अब कभी नहीं आएंगे।

-अम्मा, सठिया गई है। एक को पुकारने में बीसियों के नामों की हाँक लगाती है। लोग हँसते। पर मैं जानती थी कि वह जान-बूझकर ही ऐसा करती थी, भूलकर नहीं। जैसे हाँक के माध्यम से कह रही हो-मेरे बच्चो, मैं तुम्हें भूली कहाँ हूँ? माँ द्वारा उन विस्मृत नामों की करुण पुकार मुझे सदा मृतवत्सा गाय की ही रँभाहट लगती थी। माँ की अपनी मृत सन्तति के लिए पुकार, ज्यों कन्धे पर, भूसाभरी बछिया की निष्प्राण देह साधे, क्रूर कालपुरुष के पीछे भागती, रँभाती कोई गाय डकराती चली जाए, जानकर भी कि बछिया की देह निष्प्राण है। सन्तानमोह में आतुर माँओं की इस करुण भाहट को क्या अब तक कोई रोक पाया है? एक को पुकारने में, जब कभी माँ बार-बार उन विस्मत नामों की गहार लगाती. तो मैं समझ जाती थी कि उसकी जिह्वा की विवश फिसलन में उसे बिछड़ी सन्तान से मिलने का दिव्य क्षणिक सुख मिल रहा है। कुछ इसी तरह उसके मोह का केन्द्र था उसका मकान, अपने पूर्वजों की थाती समझ जिसे वह हमारे कहने पर भी नहीं छोड़ना चाहती थी। पर प्रत्येक बुढ़े के जीवन में एक क्षण ऐसा अवश्य आता है जब अपने सुखद एकान्त में, उसे वार्धक्य की दुखद विवशताएँ भयाक्रान्त करने लगती है। मैंने जीवन के उस अन्तिम युद्ध-क्षेत्र में, बड़े-बड़े आत्मसम्मानी योद्धाओं को भी ढेर होते देखा है। माँ के जीवन में भी वह क्षण आया। उस अन्त समय में, मैं उसे लगभग खींचकर ही अपने साथ ले आई थी। तब उसने लाख रूठने का नाट्य किया हो, पर मेरी जिद ने उसे खिन्न नहीं किया। जब मुझे पद्मश्री मिली, और मेरी सेविका रामरती ने माँ से कहा-अम्मा, हमारी दीदी बहुत बड़ा इनाम मिली हैं। तो उसने कहा था-अभी और देखना अन्त तक ऐसे कितने ही इनाम पाएगी तेरी दीदी, इसने मेरी बड़ी सेवा की है।

अपनी प्रिय माँ का, अपने अतीत का वर्णन करने में, कहीं पाठकों को मेरी बातें आत्मश्लाघा का विस्तार या अविश्वसनीय न लगें, इसका लेखनी को पद-पद पर ध्यान रखना पड़ता है। किन्तु मैंने यहाँ जिन-जिन संस्मरणों को सँजोया है उसमें कहीं भी असत्य का पुट नहीं है। माँ का तेज, उनका जिया वैभव, उनकी सत्यवादिता आज उस युग के पाठकों को कल्पना की छलाँग लग सकते हैं, किन्तु कहीं भी अपने गत वैभव का बखान कर, किसी को प्रभावित करने की कुचेष्टा मने कभी नहीं की है। भले ही वह रियासतों का वर्णन हो, या जन्मदायिनी जननी का। मैंने जो भी लिखा है, सच लिखा है सच के सिवा कुछ नहीं।

हमारी स्पष्टवक्ता माँ ने लाख कष्ट सहकर भी अन्त तक समाज या किसी क्षमताशील शक्ति के आगे कभी आत्मविक्रय नहीं किया। अपनी अनमनीय रुचि या अरुचि के प्रदर्शन में भी उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ। इस प्रदर्शन के लिए, अ-स्त्रियोचित माने जानेवाले मुहावरों का एक विचित्र अशेष कोष, सदा उनके जिह्वान पर रहता। पर कई बार फोहश लगनेवाली उन लोकोक्तियों के पीछे कहीं एक पूरी सभ्यता का सुदीर्घ अनुभव छिपा है-पातर का यार मरे कौन गली में? हिजड़े की कमाई मूंछ मुँडाने में ही जाती है या जैसी रॉड वैसा बिछौना। बात-बात में माँ पट से ऐसे जुमले कह जाती, तो कई दीर्घनासिक कुमाऊँनी परिजनों की भवें तन जातीं यह कैसी वाणी बोल जाती हैं मुन्नी लली कभी-कभी? वे परस्पर नयन नचाकर कहते। पर कोमल भावनाओं की उतनी ही कोमल अभिव्यक्ति भी वे बखूबी कर सकती थीं। अपने पति की मृत्यु के पश्चात् मैंने 'नवनीत' में एक लेख लिखा था। उसे पढ़कर माँ ने जो पत्र मुझे लिखा, वह आज भी कई संतप्त विधुर जीवनों के व्रणों पर, सुशीतल फाया रख सकता है। मैंने माँ को लिखा था कि अब मैं कभी नहीं लिख पाऊँगी-
<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book