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सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :9788183611718

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......

दो

 


कहाँ गए वे हँसने-हँसानेवाले और कहाँ गईं वे रातें, जब बर्फ की फुहार, धुनी रुई-सी तह-पर-तह बिछाती चली जाती थी, "लड़कियो, बाहर मत जाना, ऐसे ही में परी, चाँचरी, चुडैले कुँआरी लड़कियों को चिपट जाती हैं।" हमसे कहा जाता।

एक बड़े से लोहे के सग्गड़ में, बाँज के पूरे सूखे ठीठे और कोयले दहका कर नौकर-चाकर पूरे कमरे को ऐसा दहका देते कि स्वेटर-शॉल भी उतार हम दूर पटक देते। यही हमारी सेंट्रल हीटिंग थी। धमधम धमकती सग्गड़ में बुआ एक भगोने में गुड़-घी और दूध मिलाकर एक कोने में रोप जाती। भुदभुद कर पकता वह, फिर एक अद्भुत पकवान बन जाता--'गुड़ पू। जैसा स्वाद, वैसा ही गुणकारी। वह स्वाद फिर मुझे कभी स्विस चॉकलेट में भी नहीं मिला।

उस ज्वलन्त सग्गड़ को घेर हम बड़ी देर तक पुराने भृत्य लोहनी जी से विचित्र कहानियाँ सुनते। कैसे बिरावल के समुद्र में उन्होंने उस नगर सेठ के बेटे की. बारात को अपनी आँखों से बाजे-गाजे और बारातियों सहित डूबते प्रत्येक पूर्णिमा को देखा है। वह नाव जो लोग बताते थे कि साठ वर्ष पूर्व बारातियों, दूल्हा-दुल्हन सहित डूब गई थी, वह बारात अभी भी उसी जोश में आती है; और पल भर की चीख-पुकार के बाद नित्य पूर्णिमा को डूब जाती है।

फिर लोहनीजी रंग में आ जाते, “मैंने और भी एक बार भूतों की बारात देखी है। गाँव से अल्मोड़ा आ रहा था--वाह, क्या बारात थी भूतों की। जैसे हवा में उड़ी जा रही हो। रास्ते में चबैना करने रुकी, तो ये बड़े-बड़े चूल्हे देखते-ही-देखते बना लिए। उन पर चढ़ी दो-दो मन की कड़ाहियाँ और गोघृत में बनी हाथी के कान-सी बड़ी-बड़ी पूड़ियाँ।"

"आपने खाईं?" हम पूछते।

"अरे, मैं क्या मूरख था, जो छल-प्रेतों का भोज जीमने बैठ जाता। बहुत बुलाया, पर मैं नहीं गया। कहने लगे, गुरु पवित्तर कर दो हमारी रसोई।"

मैंने कहा, "हट बे पिरेत, मैं क्या तुम्हारे हाथ का खाना खाकर तुम्हारी बिरादरी में आ जाऊँ? सतराली का खाँटी खरा ब्राह्मण हूँ मैं! बारात छोड़ छिपता-छिपता अल्मोड़ा की ओर चल दिया। तब ही पीछे से आवाज आई, 'जागो हो, मैं लै उणयूँ।' (रुक जाआ जी, मैं भी आ रहा हूँ।) पर मैं ऐसा भागा, ऐसा भागा कि यहीं आकर दम लिया। तीन दिन तक बेहोश पड़ा रहा।"

रात में सुनी ये कहानियाँ हमें कभी थरथर कँपा देतीं। हम एक-दूसरे के निकट खिसक आते, "फिर एक दिन झिजाड़ (एक मोहल्ला) के मोड़ पर छमछम धुंघरू बजाती तीन गोरी मेम-सी चुडैलों ने पीछा कर लिया। मैंने उनके पैर पहले ही देख लिए थे, पीछे मुड़े पैर देख मैं जोर से गायत्री जपने लगा,

एक बोली-'अरी, भाग-भाग, यह तो बामण है, बामण।"

हमें काटो तो खून नहीं, झिजाड़ का मोड़ तो हमारे घर से दो फांग की दूरी पर था-कहीं मनचली सुन्दरी चुडैलें फिर लोहनीजी से मिलने न चली आएँ?

कभी-कभी लगता है, बचपन की सुनी ये कहानियाँ ही मेरी कल्पना को फलप्रसू बना गई हैं।

पूरा घर ही कहानी सुनने और सुनाने का प्रेमी था। किस्सागोई की पट्टमहिषी थीं स्वयं हमारी माँ। रात को कहानी सुनाने लगतीं, तो आस-पड़ोस की स्त्रियाँ भी उन्हें घेरकर बैठ जातीं। माँ ने गुजराती साहित्य का जमकर अध्ययन किया था। उस पर लखनऊ की स्त्रियाँ भी उन्हें घेरकर बैठ जातीं। वे लखनऊ में जन्मी-पली थीं। अवधी मिठास की सरस्वती तो स्वयं विधाता ही उनके जिह्वाग्र पर लिख गए थे। उनसे सुनी कहानियों में 'झुमकानी चोरी', (झुमके की चोरी) हमारी प्रिय कहानी थी। न जाने कितनी बार सुनी, फिर भी कभी बासी नहीं लगी। और यही मेरे लिए आज भी एक सफल कहानी का सही मापदंड है, जो कई बार पढ़ी-सुनी जाने पर भी वही आनन्द दे, जो पहली बार पढ़ने-सुनने पर दे गई थी।

उनकी सुनाई एक दूसरी कहानी थी 'अग्रे किं किं भविष्यति।' कहानी ही नहीं, संस्मरण सुनाने में भी उन्हें कमाल हासिल था। कब उन्होंने जन्माष्टमी में अपने प्रतिवेशी कत्थक गुरु बिंदादीन महाराज के यहाँ वह अद्भुत कृष्ण जन्मलीला देखी थी, जिसमें पेट में कदू बाँध, साड़ी से ढक नृत्यारता कृष्ण-जननी प्रसव-पीड़ा झेलने का ऐसा अभिनय करती कि दर्शक हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। फिर ठीक बारह बजे घंटे-घड़ियाल के साथ काँसे की थाली पीटी जाती...ठन्न-ठन्न और नन्दलाल जन्म लेते।

किस युवराज के जन्म पर कमला झरिया कलकत्ते से आईं; और क्या गाना गाया कि महाराज ने अपने गले से हीरे की कंठी उतार उनके गले में डाल दी-

नंद भवन को भूषन माई, जसोदा को लाल,
बीर हलधर को, राधारमन परम सुखदाई।

सिद्धेश्वरी, गौहर जान, दुलारी, जद्दन, मुनीर जान डेरेवाली, रामाबाई सबका नखशिख वर्णन करने में अम्माँ ऐसी कुशल थीं कि लगता, यह सबकी सब हमारे सामने ही आकर बैठ गई हैं।

"अरी ऐसा तेज अतर लगाती थी कज्जन कि हँसी-हँसी में उसने मेरी कनपटी पर लगा दिया और मुझे लगा मैं बेहोश होकर गिर पड़ेंगी। दिनों तक वह खुशब गई ही नहीं। शरम से मर गई कि कहीं तुम्हारे बड़बाज्यू (दादाजी) ने दूर से ही सँघ लिया, तो क्या सोचेंगे? चाहे पहाड़ आने से दो दिन पहले लगाया था, पर पूरे पन्द्रह दिन में भी वह खुशबू नहीं गई। देखो, सँघो जरा।" और एकसाथ बीसियों सिर उनकी सुवासित कनपटी सूंघने झुक जाते।

"अब जाओ रे, सब सो जाओ। बहुत रात हो गई है।"

हम बड़ी ही अनिच्छा से सोने जाते। खिड़की के बन्द काँचों से दिखती शै देवी (श्यामादेवी द्रोणागिरि की रजतपट्ट-सी चमकती बर्फ-सी ढकी चोटियाँ, स्तब्ध मौन ऋषि-मुनियों से अडिग धैर्य से खड़े बाँज, अयार के पेड़ दुर्गम वन कांतार को चीरकर आती पहाड़ी दुनाली की मीठी मादुद स्वर-लहरी।

ये हैं वे छोटे-छोटे सुख, जिन्हें पाने आज हमारे बच्चे लाखों रुपया खर्च कर विदेशों में भटक रहे हैं। नई पीढ़ी जिन दुर्लभ सुखों की ललक में अपना आत्मसम्मान भी गिरवी रख जननी जन्मभूमि की मायाडोर स्वेच्छा से तोड़, अपनी संस्कृति से धीरे-धीरे मुँह मोड़ती चली जा रही है, वे सुखद क्षण हमने अनायास ही लिए थे, अपने ही गृह में। त्याग, सहिष्णुता, एक तिल को भी पूरे परिवार में बाँटने का औदार्य, यह सब सीखने हमें कभी विदेशों की धूल नहीं फाँकनी पड़ी।

घरों का अनुशासन आज धीरे-धीरे बदलता जा रहा है। पहले बच्चे माँ-बाप के सामने गिड़गिड़ाते थे, आज माँ-बाप बच्चे के सामने गिड़गिड़ाने लगे हैं। आज किस अनुशासनप्रिय पिता में या माता में इतना साहस है कि वह बेटे या बेटी से पूछे कि कहाँ जा रहे हो? कब लौटोगे? किस समर्थ पिता की छाती में इतने बाल रह गए हैं कि बेटे को अपनी कार ले जाने से रोके? भले ही वह इस कुचेष्टा में तेजी से कार चला, मित्रोंसहित अपने भी प्राण गँवा बैठे? आधुनिक जीवन लगभग निशाचरी जीवन बन चुका है, रात बारह बजे से यहाँ दिन आरम्भ होता है, फिर दिन के ग्यारह बजे तक लोग-बाग लम्बी तानकर सो सकते हैं। कभी-कभी दिनों तक माता-पिता की बच्चों से भेंट भी नहीं होती।
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