संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
मेरे ननिहाल का परिवार सीमित था। हमारे दो सगे मामाओं में से छोटे मामा की कैशोर्य में ही मृत्यु हो गई थी। हमारी नानी व्यक्तित्वसम्पन्ना दबंग महिला थीं, अत्यन्त करुणामयी, परोपकारी एवं कुशल शासिका। उनका स्फटिक-सा उज्ज्वल गौरवर्ण, तीखी नाक, सफेद झकझक करती इकलाई, वैसी ही ठेठ लखनवी कुर्ती, सन जैसे सफेद बालों से आती, असगर अली के चमेली के तेल की सुगन्ध अगरबत्ती के धुएँ-सी पूरे कमरे में फैली रहती। जवान बड़ी बहू असमय ही तीन बच्चों को छोड़ सुदीर्घ बीमारी भोग दिवंगत हो गई थी। नानी ने उन तीनों को छाती से लगाकर पाला। मामा की पुत्री कमला, यद्यपि वयस में मुझसे तीन-चार वर्ष बड़ी थी, पर हमारी मैत्री सदा अटूट रही।
नाना को मैंने नहीं देखा, केवल चित्र एवं उनकी मूर्ति ही देखी है, जो किसी कृतज्ञ मरीज ने उन्हें भेंट की थी। वर्षों तक ननिहाल के बैठकखाने में सजी रही, फिर माँ को विरासत में मिली। गौर, शान्त मुखमंडल, फ्रेंचकट दाढ़ी, सधन मूंछे, सौम्य कान्ति। नाना सदा राजसी ठाठ से रहे, उनकी कोठी अभी भी लखनऊ में है। बिकते-बिकते अब शायद किसी गृहस्वामी के पास पहुँच गई है, पता नहीं, पर सुना है कि द्वार पर दो संगमरमरी शेर अभी भी ज्यों के त्यों धरे हैं और संगमरमर की पट्टी पर खुदा उनका नाम अब भी अंकित है-'डॉ. हरदत्त पंत'। पहले यह कोठी बलरामपुर के राजा साहब ने खरीदी थी, फिर दतिया के राजाबहादुर वहाँ रहे।
शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि लखनऊ के महिला कॉलेज और बलरामपुर अस्पताल की सुष्टि भी मेरे नाना एवं उनके मित्र प्रख्यात साहित्यकार रमेशदत्त के अथक प्रयास से ही सम्भव हुई थी। तब लखनऊ के प्रसिद्ध रईस थे पुत्तूलाल। उनकी चिकित्सा कर नाना ने कभी उन्हें कठिन व्याधि से मुक्ति दिलाई थी। रोगमुक्त होने पर वे थैला-भर अशर्फियाँ लेकर नाना के पास पहुंचे। नाना ने कहा, "आपसे यह सब नहीं लूंगा, देना ही है, तो मेरी एक माँग पूरी कर दीजिए।"
“कहिए-कहिए।"
"लखनऊ में लड़कियों का कोई स्कूल नहीं है। कालीबाड़ी में एक पेड़ के नीचे पाँच छात्राएँ पढ़ती हैं, उनमें मेरी पुत्री भी है। यदि आप कृपा कर अपनी नई बनी धर्मशाला में लड़कियों की पाठशाला खोलने की अनुमति दे दें, तो लखनऊ आपका चिर ऋणी रहेगा।"
और इस प्रकार महिला कॉलेज की स्थापना पहले उसी धर्मशाला में हुई थी।
वर्षों बाद महिला कॉलेज में मुख्य अतिथि बनकर गई, तो मातामह का चित्र ढूँढ़ती रही। माँ बताती थीं कि वहाँ उनकी बड़ी-सी तस्वीर लगी है, पर निराश होकर ही लौटी। मेरी ही मूर्खता थी, क्या मैं नहीं जानती थी कि मानव स्मृति कैसी क्षणस्थायी होती है?
ऐसे ही बलरामपुर के राजासाहब से आग्रह कर नाना ने बलरामपुर अस्पताल की स्थापना की। एकमात्र चिकित्सक थे स्वयं नानाजी; और नर्स, परिचारिका थी अनपढ़ महादेई, जो आठ ही दिन में दवाओं की दुर्गन्ध और इक्के-दुक्के मरीजों की कराह से ऊब हमारी ननिहाल चली आई और अन्त तक वहीं बनी रही। स्वभाव की बेहद रूखी, जबान आग उगलती, किन्तु हृदय था उतना ही वात्सल्यपूर्ण। मुझे बहुत प्यार करती थी, यद्यपि पुत्री होकर जन्मने के लिए वह मुझे कभी क्षमा नहीं कर पाई, “अरे, हम तो समझे रहे, अबकी मुन्नी बिटिया के धरा-धराया बिटवा होई, सो ये महारानी आई।"
फिर वे मेरे अग्रज त्रिभुवन की बलैया लेकर कहतीं, “कईसन गोरा धपधप चेहरा है तिरभुवन का, मुला एकदम अंग्रेज!" फिर हँसकर, मेरी ईष्याग्नि भड़काने के लिए अपना विचित्र गाना गाने लगती-
बिटवा हुआ, बिटवा हुआ
चन्दन के धोखे मा माथे से लगावा
बिटिया हुई, बिटिया हुई
लकड़ी के धोखा मा चूल्हे में लगाई।
बहरहाल चूल्हे में लगती-न लगती, हर लड़की ससुराल तो जाती ही थी और उन दिनों समृद्ध गृहों की पुत्री ससुराल जाती, तो उसके साथ एक नौकरानी भी भेजी जाती। पहाड़ के लिए यह एक सर्वथा नवीन चोंचला था। अम्माँ का मायका लखनऊ में था, शायद इसी से उनके साथ भी ननिहाल की पुरानी परिचारिका 'ठकुराइन' को भेजा गया। एक तो वह पहले ही पहाड़ की बर्फीली चोटियाँ देखकर भड़क गई थी, उस पर पहाड़ी भाषा उसके प्राण कंठागत कर गई। कहाँ लखनऊ और कहाँ अल्मोड़ा!
मेरी माँ को विवाह के एक वर्ष पूर्व यकृत शोथ (लिवर एबसिस) हुआ था। स्वयं नाना ने ऑपरेशन किया था। पता नहीं अल्मोड़ा में किसने यह अफवाह फैला दी कि उनके एक पाँव में दोष है। जब स्त्रियाँ नई बहू को देखने आईं, तो यूँघट उठाकर मुँह तो किसी ने नहीं देखा, लहँगे की गोट उठा-उठाकर ही देखती रहीं, यहाँ तक कि उन्हें खड़ी कर, चलाकर भी देख लिया।
उग्रतेजी ठकुराइन से यह सब नहीं देखा गया, बोली, “ई तुम्हारे पहाड़ का कौन-सा रिवाज है? नई बहू का तो चेहरा देखा जाता है, तुम सब गोड़ काहे देख रही हो?"
“अजी, ठकुराइन जी!" एक ने खिसिया कर कहा, "हमने सुना था, लड़की के पैर में कुछ खराबी है, वही देख रहे थे, पर यह तो एकदम ठीक है।"
जब नई बहू को देख महिला मंडली जाने को उद्यत हुई, तो ठकुराइन लपक कर सबका लहँगा उठा-उठा कर देखने लगी। “अरे क्या करती हो जी?" महिलाओं ने बौखला कर कहा, तो ठकुराइन के जिह्वाग्र में बसी लखनऊ की वाक्पटुता मुखर हो उठी, "अरे, कुछ नहीं बहिनी, हमहूँ सुनी रहिन के पहाड़ की मेहरासन की इत्ती बड़ी पूँछ होत है, वही देख रही थीं।"
धीरे-धीरे माँ ने पहाडी अदब-कायदे भी सीख लिए। पितामह ने उन्हें स्वयं संस्कृत पढ़ाई। दादी स्वभाव की उग्र थीं, किन्तु इकलौती बहू पर उनका स्नेह भी कुछ कम नहीं था। वे स्वयं देखने में व्यक्तित्व सम्पन्ना महिला थीं। मैंने उनका पति और पुत्रों के साथ बड़ा-सा चित्र ही देखा है, किन्तु चेहरे का रौब, दोनों घुटनों पर हाथ धरने की तेजस्वी मुद्रा, सलीके से पहनी गई वेशभूषा देख कर लगता था, वे लाखों में एक रही होंगी।
मेरी एक ताई कहती थीं, "अरी, तेरी दादी से सब 'विक्टोरी' कहते थे, अर्थात् क्वीन विक्टोरिया।" मृत्यु भी उन्होंने दुर्लभ पाई थी। बहुत बीमार हुईं, तो बनारस त्र्यंबक शास्त्री में चिकित्सा के लिए ले जाया गया। नाड़ी देख कर ही त्र्यंबक शास्त्री बता देते थे कि रोग साध्य है या असाध्य, यहाँ तक कि सम्भावित मृत्यु की तिथि भी वे रोगी की नाड़ी के स्पन्दन में पकड़ लेते थे। उन्हीं ने मेरे पितामह को बता दिया, बहुत हुआ तो पाँच दिन जिएँगी, या आठ दिन। उन दिनों, काशी में गंगातट पर बैकुंठ कुटिया बनी रहती थी। अन्तिम साँस गंगा तट पर ही ले, तो शिव स्वयं आकर तारक-मन्त्र प्रदान करते हैं। दादी को वहीं ले जाया गया, साथ में थे दोनों बेटे और पति। चिकित्सक की भविष्यवाणी सत्य हुई। ऊर्ध्वश्वास लेने लगीं तो गंगातट पर ले जाया गया, सिर पति की गोद में, अगल-बगल दोनों बेटे और दोनों पैर गंगा में। उसी दिव्य स्थिति में उन्होंने प्राण त्यागे।
स्वभाव की उग्र होने पर भी दादी का हृदय अत्यन्त उदार और स्नेहप्रवण था। पति ने असंख्य भांजे-भतीजों को पढ़ाया, उनके जनेऊ किए, विवाह किए, यही नहीं उन्हें घर भी बनवा कर दिए। दादी ने पति के औदार्य की शतमुखी धारा को भी निर्बाध बहने दिया। उन्होंने पति से ही संस्कृत पढ़ी थी। अक्षर क्या थे, मुक्ताक्षर थे! उनकी हस्तलिपि का एक कागज मेरे हिस्से में भी आया, जो शायद मृणाल के पास अभी भी धरा होगा। अम्मा बताती हैं कि जब उनका पीपलपानी सम्पन्न हुआ, तो न जाने कितनी सधवाएँ उस सती लक्ष्मी की चूड़ियाँ माँगने आ गई थीं।
अम्माँ से ही कुमाऊँ की एक और समर्पिता पत्नी की कहानी सुनी थी। वह हमारी माँ की परम मित्र थीं। यद्यपि वे मेरे जन्म से पहले ही दिवंगता हो चुकी थी, किन्तु उस विलक्षण किशोरी की प्रेम-समाधि कैसे विकट रही होगी, जिसने उस कच्ची उम्र में पति की मृत्यु से पहले ही स्वेच्छा से प्राण त्याग दिए। कहते हैं, उसका विवाह जानबूझ कर ही एक क्षयरोगी से कर दिया गया था। देखने में वह स्वयं स्वभाव में शील-सौजन्य में एकदम अतुलनीय थीं. किन्तु दोष था कि दरिद्र पिता के गृह में जन्म लिया था। जब से बेचारी ससुराल आई, पति को खून उगलते ही देखा। दिन-भर देवदार के पेड़ के नीचे पति की खटिया डाल दी जाती, जिससे ताजी हवा, उसके फेफड़ों को कुछ और समय दे दे। पायताने बैठी पत्नी, पति को असहाय दृष्टि से टुकुर-टुकुर देखती रहती। दोनों का क्षणिक साहचर्य इतने ही तक सीमित था। सास का कठोर आदेश था कि रात को वह पति के पास न फटके। फटकती भी कैसे?
सास उसे अपने ही पास सुलाती थी, फिर एक दिन पति की हालत अचानक बिगड़ गई। रानीधारा तब क्षयरोगियों का प्राकृतिक सैनेटोरियम था। दूर-दूर से आए लाइलाज मरीज जब सैनेटोरियम से खोटे सिक्के से फेर दिए जाते, तो रानीधारा में ही बँगला किराया देकर मृत्यु की प्रतीक्षा करते। उन दिनों क्षय रोग की कुख्याति कैंसर से भी अधिक फैल चुकी थी। जिसे हुआ, वही हुआ।
जब पति की आँखें स्थिर हो गईं, ऊर्ध्वश्वास चलने लगा, वैतरणी संकल्प और गोदान की बातें होने लगी, तो अभागी बहू बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई। विवाह के कपड़े पहन, नथ पहनी और मिट्टी का तेल छिड़क स्वयं दियासलाई लगा दी। लगभग उसी समय, पति ने भी आँखें मूंद लीं। जब उसके कमरे से धुआँ आता देखा, तो लोग उधर भागे, दरवाजा तोड़ा गया। माँ बताती थीं कि कहते हैं, ऊपर के अंग में आँच भी नहीं लगी थी। दिव्य रूप, चेहरे पर शान्त-सौम्य मुस्कान। उसने माँ से पहले कहा भी था, “देखना, मुन्नी दीदी, मैं इनसे पहले ही जाऊँगी," सो सचमुच पहले ही गई। वही सम्भवतः कुमाऊँ की प्रथम और अन्तिम सती थी। दोनों की अर्थी एक साथ उठी, एक ही चिता पर दोनों को लिटाया गया, पर न कुमाऊँ में उस सच्ची सती का कोई चौरा बना, न सिन्दूरी हाथों की छाप ही लगाई गई। सतीत्व और सती प्रथा के पाखंडी विलास में बहुत अन्तर होता है।
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