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जिन्दगी और जुगाड़

मनोहर पुरी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6012
आईएसबीएन :978-81-89424-25

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प्रस्तुत है उपन्यास, जिन्दगी और जुगाड़....

Jindagi Aur Jugar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आपाधापी के इस युग में व्यक्ति को अपना अस्तित्व बचाने के लिये जुगाड़ का सहारा लेना ही पड़ रहा है। व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन में कोई भी गतिविधि बिना जुगाड़ के सम्पन्न करना निरन्तर कठिन होता जा रहा है आर्थिक राजनैतिक और यहाँ तक की शैक्षणिक जीवन भी जुगाड़ पर निर्भर होकर रह गया है। हर एक व्यक्ति दिन भर किसी न किसी प्रकार से जुगाड़ करके जीवन की गाड़ी को धकेलने का प्रयास कर रहा है। उसके चौबीसों घंटे किसी न  किसी प्रकार का जुगाड़ करने में ही व्यतीत होते हैं। देश की अर्थ व्यवस्था, राजनीति और अन्य सभी गतिविधियां जुगाड़ के बिना निरर्थक हैं। जिन्दगी का कोई पक्ष जुगाड़ से अछूता नहीं रहा, इसका अनुभव प्रायः हर व्यक्ति को प्रत्येक कदम पर होता है।

इस उपन्यास में जीवन के कुछ ही पक्षों को छूना संभव हो पाया रोजमर्रा का पारिवारिक जीवन हमारे परस्पर संबंध, राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा और प्रशासन, समाज में निरंतर फैलता भ्रष्टाचार, नशे की दुनिया में डूबती हमारी नई पीढ़ी, धन की अधांधुध दौड़ में फंसी वर्तमान पीढ़ी जल्दी से जल्दी वह सब प्राप्त कर लेना चाहती है जो उसे वर्षों के परिश्रम के बाद भी मिलना संभव नहीं दिखाई देता। इसके लिये शॉर्टकट जरूरी है और यही शॉर्टकट जुगाड़ का मकड़जाल है। एक बार इसमें फंसा व्यक्ति लाख सिर पटक ले, इससे बाहर नहीं निकल पाता।

इस उपन्यास में विश्वविद्यालयों में पनपते माफिया गिरोह और देह–व्यापार, अस्पतालों से होती मानव अंगों की व्यापक स्तर पर तस्करी और राजनीति में लगातार पनप रहे भ्रष्ट गठजोड़ सरीखे कुछ पक्षों को ही मात्र छुआ जा सका है। ये समाज में फैलने वाले कैंसर की एक बानगी मात्र हैं। आप स्वयं इससे कहीं अधिक जानते हैं और प्रतिदिन उसे भोगने को अभिशप्त हैं। समाज के किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग ने इस उपन्यास से प्रेरणा लेकर विरोध का एक स्वर भी उछाला तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूँगा। हां, इतना निश्चित है, जितना इसमें लिखा गया है, हालत उससे कहीं अधिक गंभीर है। समय रहते जाग जाना बहुत जरूरी है। जागो, कहीं बहुत देर न हो जाए।


मनोहर पुरी


जिंदगी और जुगाड़



घर के आंगन में वंदनवार उसी उत्साह से बाँधा जा रहा था। जैसे चुनाव जीतने के पांच वर्ष बाद राजधानी से निर्वाचन क्षेत्र में आने वाले नेताओं के स्वागत में उनके चमचों द्वारा बांधा जाता है। आम के हरे-हरे पत्तों को चुनावी झंडों की तरह से प्रदर्शित किया जा रहा है। उनमें गेंदे के फूलों का मेल ऐसे बिठाया जा रहा है जैसे झंडे के साथ चुनाव चिन्ह को बिठाया जाता है। घर के आसपास के टेड़े-मेड़े स्थानों को भी बहुत सलीके के साथ सजाया जा रहा है, जैसे दीवाली के दिनों में कूड़े के ढेर भी सजाये जाते हैं। आंगन के बीचों-बीच तुलसी चौरा अपनी पूरी गरिमा के साथ विराजमान है। उस पार सुलग रही धूप और अगरबत्ती की भीनी-भीनी सुगन्ध से पूरा वातावरण महक रहा है, जैसे संसद अधिवेशन के पहले सत्र के पहले दिन उसका केन्द्रीय कक्ष महकता है। इस सुगन्ध के कारण घर के बाहर पड़े कू़ड़े के ढेर की दुर्गन्ध भी किसी को अपनी नाक बंद करने के लिये बाध्य नहीं कर रही। केन्द्रीय कक्ष में भी उस दिन सांसदों द्वारा जूठन में छोड़े गये मुर्गे के माँस की दुर्गन्ध किसी को नहीं खलती। संसद के केन्द्रीय  कक्ष में पलने वाली विशेषाधिकारों से लैस एकामात्र बिल्ली उस दिन चूहों को अनदेखा करके प्लेटों में पड़ी जूठन पर अधिक ध्यान देती है। बाहर कूड़ा उठाने के लिए सफाई कर्मचारी बहुत मुस्तैदी से काम में जुटे हैं, जैसे बहुराष्ट्रीय निगम कम्पनियाँ भारतीय श्रमिकों को खाड़ी के देशों में ढो-ढोकर ले जाने में जुटी रहती हैं।  

लगता है कि होली के बाद आज इस घूरे के दिन फिरे हैं। सारा दिन आंगन में देसी गाय के ताजे गोबर से लीपा हुआ है, क्योंकी उसमें गाय के गोबर से आने वाली दुर्गन्ध एक सिरे से नदारद है। लगता है, जैसे कल ही घर की पुताई का काम पूरी तरह से निपटा है। पुताई का कार्य सम्पन्न हो चुका है, इस बात के चिन्ह स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं। पुताई का कुछ सामान अभी भी घर में यहां वहाँ गठबन्धन  के दलों सरीखा अस्त-व्यस्त और बिखरा हुआ पड़ा है। घर के हर हिस्से में थोड़ी-थोड़ी ‘वार्निश’ की बू बसी हुई है। दरवाजों और खिड़कियों पर किया गया पॉलिस अभी तक सूखा नहीं है। कुछ अधिक वार्निश के प्रयोग के कारण भले ही दरवाजों खिड़कियों पर वैसे ही अतिरिक्त चमक दिखाई दे रही है।, जैसे प्रौढ़ा हो रही नयिकाओं के चेहरों पर मेकअप करने के बाद अस्थायी रूप आ जाती है। अथवा उन नेताओं के कपड़ों पर दिखाई देती है, जिन्हें आलाकमान ने एक अर्से के बाद मिलने का समय दिया होता है। कुछ आवश्यकता से अधिक वार्निश का प्रयोग होने के कारण उनके सूखने में भी विलम्ब हो रहा है।

पॉलिश करने वाले कारीगरों ने अपनी कला में अतिरिक्त चमक दिखाने के लिये आवश्यकता न होते हुए भी ‘मौसी’ का जमकर प्रयोग किया है। वार्निश के लिये ‘मौसी’ शब्द का प्रयोग एक ऐसी मौलिक खोज है, जिसे कोई न कोई भाषाविद जल्दी ही अपने नाम की पर्ची चिपकाकर साहित्य में उतार देगा। उस समय ‘मौसी’ शब्द का प्रयोग एक श्रमिक ने किया था। यह सच ही है कि भाषा का निर्माण श्रमिकों द्वारा ही होता है। भाषा वैज्ञानिक तो उसे वैसे ही मान्यता भर देने का काम करते हैं। जैसे नाटक के संवाद लिखते तो कोई और हैं परन्तु उस पर मोहर संवाद बोलने वाले अभिनेता की लग जाती है।

एक पेण्टर अपने दूसरे साथी को कह रहा था, ‘‘यार ! बहुत ही पुरानी लकड़ी है। किसी ईमानदार राजनेता की तरह वर्षों से धूप और वर्षा की सताई हुई। न जाने कितनी ही पॉलिश की परतें एक के ऊपर एक करके चढ़ी हैं, जैसे बूढ़े हो रहे अभिनेता अपने चेहरे पर मेकअप की परतें निरन्तर थोप-थोपकर नायक की भूमिका निभाने का प्रयास करते रहते हैं। लगता है, आज से पहले किसी ने खुरदुरी उँगलियों सरीखे रेगमार से इसका कुंआरे बदन को छुआ तक नहीं है। कितनी बार रेगमार घिस चुका हूं, कमबख्त चमक आ नहीं रही। लगता है कि ‘मौसी’ का ‘कोट’ लगने के सिवा और कोई चारा शेष नहीं रहा।’’

‘‘हाँ, तुम ठीक कह रहो हो काम को जल्दी निपटाना भी है। इस समय ठेकदार भी आसपास नहीं है। चढ़ा ही दो एक परत वार्निश की ‘मौसी’ का स्पर्श पाते ही जोड़ियां चमचमाने लगेंगी।’’ दूसरे ने पहले की हां में हां मिलाते हुए कहा।

‘‘और जब आते ही ठेकेदार मां बहन की गालियाँ बकने लगेगा, उसका क्या ! आते ही कहेगा, चढ़ा दिया न आखिर ‘मौसी’ को झाड़ पर।’’ पहले ने अपने मन की शंका को व्यक्त करते हुए कहा।

‘‘अरे, नहीं कहेगा वह कुछ। वह भी तो यहां पर बेगार ही कर रहा है। ऐसे कामों में कुछ कमाई-धमाई तो होती नहीं। उसे भी तो जल्दी है इन नेताओं से अपनी जान छुड़ाने के लिये। पहले जमींदार बेगार कराया करते थे। आज के जमींदार ये नेता ही हैं जितना खून चूस लें, उतना ही कम है। ठेकेदार लगातार हाय तौबा मचा रहा है ताकि यह काम निपटे तो इनाम के रूप में कोई सरकारी टेण्डर हाथ लगे। क्या वक्त आ गया है, काम के दाम की बजाय उसे इनाम के बारे में सोचना पड़ रहा है ! अब जल्दी का काम तो शैतान का होता ही है। या यूँ कह लो कि हमारे क्षेत्र में जल्दी का काम मौसी का।’’ उसने आत्मविश्वास से भरी आवाज में कहा।

‘‘अब तुम मौसी को शैतान की खाला बनाने पर तुल ही गये हो मैं भी मार ही देता हूँ एक हाथ।’’ उसने सहमति व्यक्त करते हुए उत्तर दिया।

इतना कहते ही उसने पुरानी धोती के कपड़े की एक नई गद्दी बनाई। उसे लाखदाने से बने पॉलिश के घोल में भिगोया और गद्दी पर वार्निश की कुछ बूँदे टपकाईं और जल्दी-जल्दी जोड़ियों पर हाथ चलाने लगा। जहाँ भी वह कपड़ा लगाता, लकड़ी का वह भाग चमक उठता। वह भँली-भाँति जानता था कि यह चमक आजकल के नेताओं द्वारा पहनी जाने वाली खादी की सफेदी सऱीखी नकली है। जरा-सी धूप लगने पर वैसे ही समाप्त हो जायेगी, जैसे स्थानीय नेताओं की ठसक  हाईकमान के सामने पहुँचते ही फीकी पड़ जाती है। शायद वह मन ही मन खादी के कुरते पर लगे कलफ और दरवाजों पर लगाई जाने वाली वार्निश की तुलना में कोई तालमेल बिठाने का प्रयास कर रहा था। इस समय उसके चेहरे पर कुछ अलग ही भाव तैर रहे थे। यंत्रवत् उसके हाथ लकड़ी पर वैसी ही तेजी से चल रहे थे, जैसे किसी मालिश पार्लर में किसी महिला कर्मचारी के हाथ शरीर की मसाज करते समय चलते हैं। उसका हाथ एक निश्चित दूरी तय करके वैसे ही रुक जाता था। जैसे शरीर की एक सीमारेखा पर मसाज करने वाली के हाथ स्वयं ही थम जाते हैं। उसके चेहरे के भाव-भाव में परिवर्तन हो रहा था। बिना सोचे-समझे वह अपना हाथ यहाँ से वहाँ चला रहा था। उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहा था कि गद्दी पर लगाई गई वार्निश कब की समाप्त हो चुकी है।

इस समय तो वह महज ‘वर्जिश’ ही कर रहा था।
विवाह की तैयारी में हर कोई अपना-अपना काम कर रहा था। किसी के पास एक-दूसरे को रोकने अथवा टोकने का समय ही कहाँ था। जिनके पास था, वे यहाँ-वहाँ बैठकर गप्पबाजी में समय व्यतीत करते  हुए एक दूसरे की टांग खींचने का प्रयास कर रहे थे। जैसे सरकारी कर्मचारी कर्यालयों के बाहर ताश खेलते समय करते हैं। बिजली वाले चारों ओर होल्डरों से लदे तारों का जाल बिछा रहे थे। फर्श पर गत्ते के डिब्बों में हजारों बल्ब भी रखे थे, जिन्हें अभी लगाया जाना शेष था। शामियाने वाले भाग-भागकर कनातें और झालरें सजा रहे थे। हलवाइयों की भट्ठियों से उठने वाली विभिन्न प्रकार के पकवानों की तीव्र सुगन्ध पूरे वातावरण में वैसे ही तेजी से फैलती जा रही थी। जैसे अफवाहें फैलती हैं। चारों ओर एक वैसी ही चहल-पहल भी जैसे विवाह की तैयारी करते समय भारतीय परिवारों में होती है अथवा मतदान के दिन पोलियो बूथ पर दिखाई देती है।

 तभी बहुत तेजी से, लगभग भागते हुए रामदीन ने आंगन में प्रवेश किया। वह उतनी ही शीघ्रता से उस ओर बढ़ा, जहाँ उसका बड़ा भाई सोहनलाल बिजली वालों को कुछ हिदायतें दे रहा था।

रामदीन ने अन्दर आते ही सोहनलाल के कानों के पास मुंह ले जाते हुए बहुत धीरे से जो फुसफुसाया, वह वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों को स्पष्ट सुनाई देता रहा। रामदीन ने कहा, ‘‘भैया ! फत्तो  बुआ बहुत  कष्ट में है।’’

‘‘क्यों सोहनलाल ने उसकी ओर बिना कोई ध्यान दिए ही पूछा।
‘‘सुबह से निबट ही नहीं सकी हैं और न अब तक।’’
‘‘क्यों अब तो घर में ही उनके निबटने का सारा प्रबंध कर दिया है।’’ सोहनलाल ने हैरानी दिखाते हुए कहा ।
‘‘सो तो है, परन्तु हमारे यहाँ तो सब ‘इंडियन’ ही हैं न।’’
‘‘तो बुआ को इंडियन से क्या समस्या है ? वह तो सारी उमर खेतों में ही जाती रही हैं।’’ हैरानी से उनकी भौंहें माथे को छूने लगी थीं।

‘‘तब बात कुछ और थी। अब बुआ मुम्बई जैसे महानगर में रहती हैं। वहां समुद्र के किनारे तो जाती नहीं होंगी। आखिर उनका बेटा आई०ए०एस० अफसर है। वहाँ उनके घर में सब कुछ ‘वेस्टर्न‘ ही है।’’ रामदीन ने बात को साफ करते हुए कहा।
‘‘तो यूं कहो की आदत पड़ गई है या कोई समस्या है ? बड़े भाई ने छोटे भाई को गंभीरता से लेते हुए कहा।
‘‘दोनों ही है बल्कि तीनों ही बातें हैं।’’ रामदीन बोला।
‘‘मैं कुछ समझा नहीं,’’ सोहनलाल ने कहा।
‘‘मैं समझाता हूँ आपको, विस्तार से।’’
‘‘अब मुंबई में रहेंगी, वह भी सरकारी बंगलों में तो ‘वेसेटर्न’ की आदत तो पड़ ही जाएगी न। फिर कितनी ही बार तो अमेरिका में भी रह आई हैं, अपनी बेटी के पास। वैसे इस उमर में तो घुटने भी जवाब देने ही लगते हैं। विशेष रूप से यदि दिन-भर पैर कार के नीचे ही न उतारें जाएँ तो !’’ रामदीन ने वैसे ही फुसफुसाते हुए कहा।

‘‘खैर ! घुटने तो प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के बोल जाते हैं इस उमर में। बुआ के बोल गए तो क्या हुआ ! पर तुम कोई तीसरी बात भी तो कह रहे थे।’’ सोहनलाल ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए पूछा।

‘‘वही प्रधानमंत्री और राष्टपति वाली बात। भूल गए, बुआ भी अपने राज्य में कुछ महीनों के लिए मंत्री रह चुकी हैं। वर्षों राजधानी में रहने के कारण बुआ ने क्या कभी अपने आप को किसी फन्ने खाँ से कम समझा है जो आज समझेंगी।’’ रामदीन बात को स्पष्ट करता हुआ बोला।

‘‘तो अंग्रेजी शैली के ‘टॉयलेट’ में शौच जाना भी अब बड़प्पन की निशानी है गया !’’ सोहनलाल की आँखों में आश्चर्य का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
‘‘लगता तो कुछ ऐसा ही है, परन्तु इस समय तो जरूरी यह सोचना है कि इस गंभीर समस्या का समाधान जल्दी से जल्दी कैसे निकाला जाए ?’’ रामदीन बोला।
देखों कोई न कोई जुगाड़ तो करना ही पड़ेगा। आखिर कब तक प्रकृति की सबसे महत्त्वपूर्ण पुकार को रोका जा सकता है ?’’ सोहनलाल ने हामी भरते हुए कहा।

‘‘अरे यह बुलावा तो हाईकमान के बुलावे से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है।’’ रामदीन ने चारो ओर नजरें घुमाते हुए कहा। फिर बोला, ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि बुआ ने इस काम के लिए रेल में उपलब्ध सुविधा का पूरा-पूरा सदुपयोग कर लिया था, नहीं तो अब तक यह मामला कश्मीर समस्या की तरह बहुत गंभीर हो चुका होता।’’
‘‘मुझे इस तरह का अंदेशा तो सदा से ही था, परन्तु हम लाख प्रयास करने के बाद भी खेतों के बाद ‘इंडियन’ से अधिक नहीं सोच पाए। पहले पता होता तो ‘एंग्लो इंडियन सीट’ ही बिठवा देते। दोनों प्रकार के लोगों की जुन्दगी का जुगाड़ होजाता। पर अब क्या करें ?’’ सोहनलाल ने चिंता व्यक्त की। फिर स्वयं ही बोला, मैं देखता हूँ कि तुरन्त क्या किया जा सकता है !’’




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