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हजार शेर फिराक के

फिराक गोरखपुरी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6026
आईएसबीएन :9788181437846

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फ़िराक़ की सैकड़ों ग़ज़लों में से एक हज़ार शेरों का संकलन...

Hajar Sher Firak Ke

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

फ़िराक़ गोरखपुरी उर्दू के ऐसे अज़ीम तरीन शायर थे जिन्होंने उर्दू ग़ज़ल के क्लासिक मिज़ाज से बिना कोई हस्तक्षेपप किए, नए लब-लहजे की शायरी की। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को उच्च संस्कारित मूल्यों से परिपक्व किया और उसे विशिष्ट मुकाम तक पहुँचाया।

फ़िराक़ की सैकड़ों ग़ज़ल में से एक हज़ार शेर का यह संकलन, अपने आपमें एक संसार की रचना है। इस संकलन में हर रुचि, विषय और स्तर के शेर शामिल हैं। एक तरह से एक हज़ार शेर की यह किताब, आकाश में झिलमिलाते सितारों की तरह है और किसी ग्लैक्सी की तरह भी ! प्रत्येक शे’र की अपनी सृष्टि है और अपनी ज़िंदगी भी...एक ऐसी ज़िंदगी जो कभी ख़त्म नहीं होती। क्योंकि उत्कृष्ट शे’र हमेशा अमर रहते हैं।
इसी किताब से एक शे’र-

 

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी, हम दूर से यह भान लेते हैं

 

अशआर से पहले

फ़िराक़ की शायरी ने कुछ लोगों को ख़ुदकुशी से बचाया है और उनके जीवन में संजीवनी का काम किया है। एकाध ऐसे वाक़यात का तो मैं ख़ुद भी चश्मदीद गवाह हूँ,जिसका वर्णन मैंने अपनी पुस्तक ‘मैंने फ़िराक़ को देखा था’ में किया है। ये सच है कि हक़ीकी शायरी बुझे हुए दिलों में रौशनी का संचार करती है और टूटे हुए दिलों के छोटे-छोटे टुकड़ो को जोड़कर इस क़दर मुकम्मल कर देती है जिसमें न कोई धब्बा न कोई स्कार। ये कहना बेहतर होगा कि शायरी जख्मी या शिकस्त दिल को बदलकर एक नया दिल दे देती है। इसीलिए महान कवि को ‘फ़िजीशियन ऑफ द सोल’ कहा जाता है। फ़िराक़ के शेरों में जीवन की सच्चाइयों और मनोवैज्ञानिक पेचीदगियों को इस बारीकी और कलात्मक ढंग से पेश किया गया है कि पाठक उनमें डूबता ही चला जाता है, और जिस हद तक डूबता चला जाता है उस हद तक अपने को पाता या छूता भी चला जाता है।

मुझे तो कभी-कभी ऐसा महसूस होता है कि फ़िराक़ अदृश्य-लोक से मानव की भावनाओं को पकड़कर शेरों में ढालते चले जाते हैं। लगभग हर शेर जीवन, सृष्टि और मानव-जाति के व्यक्तिगत और समष्टि के अनुभवो की अबूझ पहेलियों को सुलझाता भी जा रहा है और उलझाता भी जा रहा है। शायरी में अदृश्य एक खूबसूरत जामा पहनकर पेश करना फ़िराक़ की विशेषता है, इसीलिए मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन फिराक़ को मनोविज्ञान (जिसे मैं फ़िराक़ॉल्जी कहता हूँ) को समझने में खपा दिया और जितना समझता गया उन्हें अपनी पुस्तकों में उजागर करता गया। फ़िराक़ को तो मैं क्या समझ पाया, हाँ इस जुस्तजू में मैंने खुद को खो दिया या अपने को पाने-सा लगा। हो सकता है यह भी एक भ्रम हो।

आज फ़िराक़ का नाम ‘मीर’, ‘गालिब’, आतिश, इक़बाल और उर्दू के दीगर सुप्रसिद्ध और महान शायरों के साथ लिया जाता है। फ़िराक़ के हज़ारहा शेर लोगों की ज़ुबानों पर हैं। पाठक फ़िराक़ के अशआर में अपने दिलों की धड़कने सुनता है। कविता, विशेषकर हक़ीक़ी और ज़िंदगी बख़्श अशआर का एक विशेष गुण ये है कि ज़िंदगी का बोझ उतर जाता है और दुनिया गायब हो जाती है। चढ़ा हुआ रक्तचाप नार्मल हो जाता है और दिल की धड़कनों की गति सहज और सामान्य हो जाती है।

 मैं और मेरे दोस्तों ने फ़िराक़ की शायरी में ऐसा ही महसूस किया है—‘जेहि जाने जग जाइ हेराई’
फ़िराक़ के मुतफ़र्रिक या फुटकर शेरों का यह संकलन पाठकों के समक्ष पेश करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। कई साल पहले भाई अनिल गोयल ने मुझसे कहा था कि फ़िराक़ के चुने हुए फुटकर शेरोंका एक अच्छा संकलन निकालना चाहिए और यह काम सिर्फ आप ही कर सकते हैं। भाई अरुण माहेश्वरी (वाणी प्रकाशन) ने भी मुझे यह सुक्षाव दिया था कि मैं यह संकलन तैयार करूँ जिसे पाठक आसानी और सुख के साथ अपने साथ रक्खे, जीवन-यात्रा में सम्बल की तरह जो मंजिल की ओर गामजन होते रहने के लिए उनमें नयी चेतना, स्फूर्ति और ताजगी का सामावेश करता रहे। इसी को ध्यान में रखकर मैंने यह संकलन तैयार किया है।

फ़िराक़ की शायरी तो अंतहीन गम्भीर बन या समुद्र की तरह है। किस-किस वृक्ष को चुनीं, किस-किस मोती को पेश करूँ, मेरे सामने यह एक गहन समस्या थी। ग़ज़ल में तो हर शेर दूसरे शेर का साया पड़ता रहता है और किसी शेर विशेष का पूरा क़द सामने उभरकर नहीं आने पाता। जैसे किसी घने जंगल में किसी वृक्ष-विशेष का वैभव, नज़र नहीं पकड़ पाती। लेकिन जब वही वृक्ष अकेले भीड़ से अलग दिखायी पड़ता है तो उसका प्रभाव हमारी चेतना पर गम्भीर रूप से पड़ा है। संकलन का प्रत्येक शेर एक पूरी शेर या ग़ज़ल या एक पूरा दीवान है। इस संकलन में हर स्तर और हर रुचि के शेर हैं जो पाठकों की अलग-अलग रुचि और मानसिक धरातल को ध्यान में रखकर चुने गये हैं।

लगे हाथों कह लेने दीजिए कि किसी शब्द का न पर्यायवाचक शब्द होता है और न दूसरी भाषा में उसके मिजाज की तर्जुमानी करनेवाला दूसरा लफ़्ज़ होता है और न दूसरी भाषा का कोई शब्द उस भाषा के सम्पूर्ण कल्चर, परिवेश, भौगोलिक वातावरण और राजनीतिक प्रभावों की उपज है। तर्जुमाँ में सहजता नहीं आ सकती; जैसे माँ के दूध का तर्जुमाँ या उसका बदल नही हो सकता। इसी तरह एक भाषा के शब्दों का अर्थ दूसरी भाषा में हूबहू नहीं आ सकता, हाँ समझने में कुछ मदद मिल सकती है, कुछ इशारे मिल सकते हैं। ठीक यही बात लागू होती है इस संकलन के शब्दों के अर्थों को लिखने में जो अशआर के पूरे परिवेश को ध्यान में रखकर लिखे गये हैं। शब्दकोश की सहायता से कविता नहीं समझी जा सकती।

अशआर के इंतख़ाब में मेरी उलझनों को सुलझाया तो भाई दीपक रुहानी ने (जो अपने को मेरे शागिर्दों में शामिल करते हैं, हालाँकि मैं उस्ताद-शागिर्द परम्परा का कायल कम ही हूँ) जो स्वयं भी अच्छे शायर हैं। रूहानी को फिराक़ के अनेक शेर याद हैं। वे अपनी रुचि के मुताबिक शेरों का इंतख़ाब करते रहे और मेरा ध्यान अच्छे शेरों की तरफ दिलाते रहे। यदि उन्होंने बहुत  नायाब शेरों की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट न किया होता तो संकलन का वह रूप जो सुधी पाठकों के सामने प्रस्तुत है इस सज-धज के साथ मंज़रे-आम पर आ ही न पाता। मेरी इस बीहड़-यात्रा के वे मेरे सहयोगी और सहयात्री हैं।

 

रमेश चन्द्र द्विवेदी

 

मेरी हर ग़ज़ल की ये आरज़ू, तुझे सज-सजा के निकालिए,
मेरी फ़िक्र हो तेरा आइना, मेरे नग्में हों तेरे पैरहनन1।

जब से देखा है तुझे मुझसे है मेरी अनबन.
हुस्न का रंगे-सियासत, मुझे मालूम न था।

चलती है जब नसीमे-ख़याले-ख़रामें-नाज़2,
सुनता हूँ दामनों की तेरे सरसराहटें।

बस इक दामने-दिल3 गुलिस्ताँ-गुलिस्ताँ4,
गरीबाँ-गरीबाँ बयाबाँ-बयाबाँ6

इसको भी इक दिल का भरम जानिए,
हुस्न कहाँ, इश्क़ कहाँ, हम कहाँ।

कोई सोचे तो फ़र्क कितना है,
हुस्न और इश्क़ के फ़सानों में।

रात गए कैफ़ियते-हुस्ने-यार7
ख़्वाब8 से मिलती हुई बेदारियाँ9।

कहाँ से आ गयी दुनिया कहाँ, मगर देखो,
कहाँ-कहाँ से अभी कारवाँ गुज़रता है।


1.    वस्त्र, 2. प्रिय के चाल के ख़याल रूपी हवा, 3. दिल रूपी दामन 4. बाग़-बाग़, 5. परदेस-परदेस, 6. जंगल-जंगल, 7 प्रिय के सौन्दर्य की स्थिति, 8. नींद, 9 जागरण

 

ग़ज़ल है या कोई देवी खड़ी है लट छिटकाये,
ये किसने गेसू-ए-उर्दू1 को यूँ सँवारा है।

नयी मंजिल के मीरे-कारवाँ2 भी और होते हैं,
पुराने ख़िज्रे-रह3 बदले, वो तर्ज़े-रहबरी4 बदला।

क़लम का चंद जुम्बिशों5 से और मैंने क्या किया,
यही कि खुल गए हैं कुछ रमूज़-से हयात के6।

ये कहाँ से बज़्में- ख़याल7 में उमड़ आयीं चेहरों की नद्दियाँ,
कोई महचकाँ8, कोई ख़ुरफ़ेशाँ9 कोई ज़ोहरावश10, कोई शोलारू11।

तुम हो पसमाँदगाने-दौरे-‘फ़िराक़’12
बख़्श दो सब कहा-सुना मेरा।

आम मेयार13 से इसे परवा,
ख़ूब समझा ‘फ़िराक़’ को तूने।

हमसे क्या हो सका मुहब्बत में,
खैर तुमने तो बेवफ़ाई की।

अब दौरे-आस्माँ है न दौरे –हयात है,
ऐ दर्दे-हिज्र14तू ही बता कितनी रात है।

छिड़ते ही ग़ज़ल बढ़ते चले रात के साये,
आवाज़ मेरी गेसू-ए-शब15 खोल रही है।

 

—————————————
1.    उर्दू की केश राशि को 2. कारवाँ का सरदार,3 पथ प्रदर्शक, 4 पथ प्रदर्शन की पद्धति, 5. हरकत 6. जीवन के रहस्य 7. विचारों की सभा, 8. चन्द्रमा का प्रकाश, 9. सूर्य का प्रकाश फैलानेवाला, 10 वृहस्पति ग्रह के समान (उज्जवल के भाव में प्रयुक्त (11. अग्नि के रंग जैसा चेहरा, 12. फ़िराक़ के युग के बाद बचने वाले, 13 स्तर, 14 वियोग की पीड़ा, 15 रात की ज़ुल्फ,


किसको रोता है उम्रभर कोई,
आदमी जल्द भूल जाता है।

कुछ चौंक सी उठी हैं फ़ज़ा की उदासियाँ
इस दश्ते-बेकसी1 में सरे-शाम तुम कहाँ।

सोयी क़िस्मत जाग उठी है।
तुम बोले या जादू बोला।
एक मैं था और अब तो मैं भी कहाँ,
आ कि अब कोई दरमियान नहीं।

हम वहाँ हैं जहाँ अब अपने सिवा,
एक भी आदमी बहुत है मियाँ।

और ऐ दोस्त क्या कहूँ तुझसे,
थी मुझे भी इक आस टूट गयी।

इश्क़ के कुछ लम्हों की क़ीमत उजले-उजले आँसू हैं,
हुस्न से जो कुछ भी पाया था कौड़ी-कौड़ी अदा किया।

मैंने इस आवाज़ को पाला है मर-मर के ‘फ़िराक़’,
आज जिसकी नर्म लौ है शम्म-ए-महराबे-हयात।2

जिनकी तामीर3 इश्क़ करता है,
कौन रहता है उन मकानों में।


1.    मजबूर वातावरण
2.    जीवन के मेहराब की दिया
3.    निर्माण


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