व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> आसमान को छू लो आसमान को छू लोए. जी. कृष्णमूर्ति
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प्रस्तुत है पुस्तक आसमान को छू लो ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘आसमान को छू लो’’, में एक ऐसे संघर्षमय
बीज की कहानी जिसने हवाओं के थपेड़ों को सहते हुए अंकुरण के लिए उचित
स्थान की तलाश की। बीज का पौधे में बदलना और फिर वृक्ष रूप धारण करना शायद
सुनने में आम बात लगे। किन्तु यह वृक्ष आम वृक्षों में शामिल नहीं किया जा
सकता। इसकी जड़ों की गहराई से इसके पत्तों की चमक का अंदाजा लगाया जा सकता
है। जड़ों की गहराइयों का पूर्ण अंदाजा पाठक इस पुस्तक के माध्यम से लगा
सकता है। इस बीज का विकसित होकर वृक्ष बनने की कहानी के पीछे छिपी है
दिन-रात की कड़ी मेहनत, सत्य, निष्ठा और जड़ों का पूर्ण सहयोग।
सफलता के कदम सभी चूमना चाहते हैं। कितने इस मंजिल की चोटी तक पहुंचते हैं, इसका निर्धारण ईमानदारी, सत्य, निष्ठा और कड़ी मेहनत करती है। यह पुस्तक ‘आसामना को छू लो’, कड़ी मेहनत और ईमानदारी की सीढियों द्वारा सफलता की चरम सीमा तक पहुंचने का मार्ग है। इस मार्ग का मूल मंत्र है ‘‘जीना यहाँ, मरना यहाँ’’ जो प्रसन्नता और उमंग से भर संकल्प की शक्ति बढ़ाता है जिससे आकाश को छूना सरल हो जाता है। यदि आप भी अपने ऊपर सच्चा विश्वास रखते हैं तो आपको अपनी मनपसंद मंजिल पाने में यह पुस्तक बहुत सहयोगी सिद्ध होगी।
सफलता के कदम सभी चूमना चाहते हैं। कितने इस मंजिल की चोटी तक पहुंचते हैं, इसका निर्धारण ईमानदारी, सत्य, निष्ठा और कड़ी मेहनत करती है। यह पुस्तक ‘आसामना को छू लो’, कड़ी मेहनत और ईमानदारी की सीढियों द्वारा सफलता की चरम सीमा तक पहुंचने का मार्ग है। इस मार्ग का मूल मंत्र है ‘‘जीना यहाँ, मरना यहाँ’’ जो प्रसन्नता और उमंग से भर संकल्प की शक्ति बढ़ाता है जिससे आकाश को छूना सरल हो जाता है। यदि आप भी अपने ऊपर सच्चा विश्वास रखते हैं तो आपको अपनी मनपसंद मंजिल पाने में यह पुस्तक बहुत सहयोगी सिद्ध होगी।
लेखक की ओर से
‘आसामना को छू लो’ पुस्तक इंग्लिश पुस्तक ‘इनविज़बल
सी.ई.ओ.’ का हिन्दी अनुवाद है। मुझे अदृश्य सी.ई.ओ. का उपनाम
कैरियर के मध्यकाल में दिया गया था। ज्यों ही मैंने इसे पढ़ा, मुझसे इससे लगाव हो
गया। जो मैं हूँ व था, यह उसे सही मायनों में प्रकट करता था। जो मैं
प्राय: ‘कॉकटेल पार्टियों को दायरों से गायब रहने के लिए
प्रसिद्ध था, मेरे पूरे कैरियर के दौरान, यह
‘अदृश्यता’ हमेंशा टिप्पणी का विषय रही। मुझे इसे स्पष्ट करने का अवसर दें।
मैं मानता हूँ कि सी.ई.ओ. (मुख्य कार्यकारी प्रबंधक) दो प्रकार के होते हैं। वैसे मैं किसी भी प्रकार अपना फैसला नहीं सुना रहा, यह तो एक आम राय हैं। वर्ग ‘अ’ में ऐसे मुख्य कार्यकारी प्रबंधक आते हैं जो प्राय: सही स्थान पर, सही लोगों की चर्चाओं के बीच पाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में ऐसे व्यक्तित्व जो ध्यान आकर्षण के लिए जनका के सम्मुख व्यवहार करते हैं। आम जनता उन्हें उनके चेहरे से पहचानती हैं। यदि उनकी कंपनी के प्रदर्शन का स्तर गिर भी जाए, तो भी वे उसी तरह सुर्खियों में बने रहते हैं। वे एक तरह से अपनी कंपनी से थोड़ा अलग अस्तित्व रखते हैं। कंपनी के प्रदर्शन में आने वाली कमी, किसी भी रूप में उनकी सार्वजनिक छवि को नुकसान नहीं पहुँचाती।
मैं यहीं मानता था कि मैं वर्ग ‘ब’ से संबंध रखता हूँ। ऐसा नेता हमेशा सत्ता के दायरों से दूर रहना पसंद करता है। जी हाँ, यह काफी दह तक मुझ जैसा ही होता है। मैंने हमेशा अदृश्य रूप में रहना पसंद किया और यही चाहा कि मेरा नाम कंपनी के प्रदर्शन स्तर से जुड़ा रहे। वैसे संस्थापक, अध्यक्ष व प्रबंधक निदेशक के रूप में जब मैंने 25 मार्च 1980 को एक ग्राहक व 35,000 रूपये की पूंजी के साथ मुद्रा कम्यूनिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड की शुरूआत की तो भी मेरे जीवन के महत्त्वपूर्ण 23 वर्षों (1980-2003) के दौरान, मेरी पहचान वही थी, जो ‘मुद्रा’ की थी। यदि मुद्रा हार जाती तो मैं भी सफल होता। तभी तो जब भी मुद्रा को कोई हानि होती तो उसका पूरा दोष मैं हारता, मुद्रा को सफलता मिलती तो मैं भी सफल होता। तबी तो जब भी मुद्रा को कोई हानि होती तो उसका पूरा दोष मैं अपने सिर ले लेता। मैंने कभी ऐसा नहीं कहा कि यहाँ मेरी गलती नहीं थी क्योंकि मेरा इस धारणा में पूरा विश्वास था कि मेरी पहचान, मेरे पहचान पत्र से आरंभ होती है और वही समाप्त हो जाती है। कार्ड से मुद्रा का ‘लोगो’ हट जाता तो ए.जी. कृष्णामूर्ति कुछ नहीं था।
अब मुझे यह बताने का अवसर दें कि इतने समय तक ओझल रहने के बाद मैंने ‘मुद्रा’ के बारे में लिखने का मन क्यों बनाया ? जब मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मुझे एहसास हुआ कि मुद्रा का मुख्य कार्यालय एक असामान्य स्थान पर खास किस्म के लोगों के द्वारा चलाया जा रहा था। हम एजेंसी टाइप लोगों में से थे। अस्सी के दशक का अहमदाबाद भले मानसों का शहर था। हमारी भाषा में भारतीयता की सीधी गंध थी, हम अपनी अंगुलियों से खाते, जब भी कोई खुशी मनानी होती तो ‘जलेबी’ व ‘पेड़े’ बाँटते लेकिन हमारी सबसे खास बात यह है कि हमारी एजेंसी का नाम संस्कृत में था, तब तक संस्कृत नाम चलन में भी नहीं थे। इस तरह हमने विपरीत परिस्थितियों के बीच भी उस दुनिया में अपने लिए एक पहचान व जगह बनाई जहाँ तीन-मारटीनी लंच, सगार का धुँआ उगलते सी.ई.ओ. व स्कूल के पुराने मित्रों के जमघट व अमरीकी/अंग्रेजी नामों वाली एजेंसियाँ थीं।
लेकिन फिर भी, कुछ ही समय में इस उद्योग ने हमें स्वीकार लिया। यही कहानी मैं आपके साथ बाँटना चाहती हूँ। ताकि इससे किसी कोई प्रेरणा मिल सके। चाहे आप कितने भी अलग क्यों न हों, दुनिया से कितने भी निराले क्यों न हों, यदि आप अपने-ऊपर सच्चे मन से विश्वास रखते हैं, तो आपको अपने मनपसंद काम में सफलता मिल सकती है।
मैं अपने तीन गुरुओं व एक सहकर्मी को धन्यवाद देना चाहूँगा। गिराबेन साराभाई, जिन्होंने मुझे विज्ञापन जगत की बारह कड़ी रटाई। धीरुभाई अंबानी, जिन्होंने मुझे बड़े व ऊँचे सपने देखने व उन्हें साकार करने के लिए प्रोत्साहित्य किया, डॉ. वर्गीज करियन जिसने मैंने भारतीय होने की कला व लाभ सीखे। मेरे सहकर्मी मिनी अब्राहिम, जिनके सहयोग व योगदान के बिना यह पुस्तक व पिछले सत्रह महीनों से ‘बिजनेस स्टैंडर्स’ को लोकप्रिय स्तंभ ‘ए.जी.के. स्पीक’ साकार रूप नहीं ले सकते थे।
मैं टी.एन.निनन व बिज़नेस स्टैंडर्स को ए.डी.के. के लिए प्रोत्साहित करने व मैगइंडिया (ऑन लाइन विज्ञापन अबिलेखागार) को प्रिंट व टी.वी. संपर्कों के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा।
मैं मानता हूँ कि सी.ई.ओ. (मुख्य कार्यकारी प्रबंधक) दो प्रकार के होते हैं। वैसे मैं किसी भी प्रकार अपना फैसला नहीं सुना रहा, यह तो एक आम राय हैं। वर्ग ‘अ’ में ऐसे मुख्य कार्यकारी प्रबंधक आते हैं जो प्राय: सही स्थान पर, सही लोगों की चर्चाओं के बीच पाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में ऐसे व्यक्तित्व जो ध्यान आकर्षण के लिए जनका के सम्मुख व्यवहार करते हैं। आम जनता उन्हें उनके चेहरे से पहचानती हैं। यदि उनकी कंपनी के प्रदर्शन का स्तर गिर भी जाए, तो भी वे उसी तरह सुर्खियों में बने रहते हैं। वे एक तरह से अपनी कंपनी से थोड़ा अलग अस्तित्व रखते हैं। कंपनी के प्रदर्शन में आने वाली कमी, किसी भी रूप में उनकी सार्वजनिक छवि को नुकसान नहीं पहुँचाती।
मैं यहीं मानता था कि मैं वर्ग ‘ब’ से संबंध रखता हूँ। ऐसा नेता हमेशा सत्ता के दायरों से दूर रहना पसंद करता है। जी हाँ, यह काफी दह तक मुझ जैसा ही होता है। मैंने हमेशा अदृश्य रूप में रहना पसंद किया और यही चाहा कि मेरा नाम कंपनी के प्रदर्शन स्तर से जुड़ा रहे। वैसे संस्थापक, अध्यक्ष व प्रबंधक निदेशक के रूप में जब मैंने 25 मार्च 1980 को एक ग्राहक व 35,000 रूपये की पूंजी के साथ मुद्रा कम्यूनिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड की शुरूआत की तो भी मेरे जीवन के महत्त्वपूर्ण 23 वर्षों (1980-2003) के दौरान, मेरी पहचान वही थी, जो ‘मुद्रा’ की थी। यदि मुद्रा हार जाती तो मैं भी सफल होता। तभी तो जब भी मुद्रा को कोई हानि होती तो उसका पूरा दोष मैं हारता, मुद्रा को सफलता मिलती तो मैं भी सफल होता। तबी तो जब भी मुद्रा को कोई हानि होती तो उसका पूरा दोष मैं अपने सिर ले लेता। मैंने कभी ऐसा नहीं कहा कि यहाँ मेरी गलती नहीं थी क्योंकि मेरा इस धारणा में पूरा विश्वास था कि मेरी पहचान, मेरे पहचान पत्र से आरंभ होती है और वही समाप्त हो जाती है। कार्ड से मुद्रा का ‘लोगो’ हट जाता तो ए.जी. कृष्णामूर्ति कुछ नहीं था।
अब मुझे यह बताने का अवसर दें कि इतने समय तक ओझल रहने के बाद मैंने ‘मुद्रा’ के बारे में लिखने का मन क्यों बनाया ? जब मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मुझे एहसास हुआ कि मुद्रा का मुख्य कार्यालय एक असामान्य स्थान पर खास किस्म के लोगों के द्वारा चलाया जा रहा था। हम एजेंसी टाइप लोगों में से थे। अस्सी के दशक का अहमदाबाद भले मानसों का शहर था। हमारी भाषा में भारतीयता की सीधी गंध थी, हम अपनी अंगुलियों से खाते, जब भी कोई खुशी मनानी होती तो ‘जलेबी’ व ‘पेड़े’ बाँटते लेकिन हमारी सबसे खास बात यह है कि हमारी एजेंसी का नाम संस्कृत में था, तब तक संस्कृत नाम चलन में भी नहीं थे। इस तरह हमने विपरीत परिस्थितियों के बीच भी उस दुनिया में अपने लिए एक पहचान व जगह बनाई जहाँ तीन-मारटीनी लंच, सगार का धुँआ उगलते सी.ई.ओ. व स्कूल के पुराने मित्रों के जमघट व अमरीकी/अंग्रेजी नामों वाली एजेंसियाँ थीं।
लेकिन फिर भी, कुछ ही समय में इस उद्योग ने हमें स्वीकार लिया। यही कहानी मैं आपके साथ बाँटना चाहती हूँ। ताकि इससे किसी कोई प्रेरणा मिल सके। चाहे आप कितने भी अलग क्यों न हों, दुनिया से कितने भी निराले क्यों न हों, यदि आप अपने-ऊपर सच्चे मन से विश्वास रखते हैं, तो आपको अपने मनपसंद काम में सफलता मिल सकती है।
मैं अपने तीन गुरुओं व एक सहकर्मी को धन्यवाद देना चाहूँगा। गिराबेन साराभाई, जिन्होंने मुझे विज्ञापन जगत की बारह कड़ी रटाई। धीरुभाई अंबानी, जिन्होंने मुझे बड़े व ऊँचे सपने देखने व उन्हें साकार करने के लिए प्रोत्साहित्य किया, डॉ. वर्गीज करियन जिसने मैंने भारतीय होने की कला व लाभ सीखे। मेरे सहकर्मी मिनी अब्राहिम, जिनके सहयोग व योगदान के बिना यह पुस्तक व पिछले सत्रह महीनों से ‘बिजनेस स्टैंडर्स’ को लोकप्रिय स्तंभ ‘ए.जी.के. स्पीक’ साकार रूप नहीं ले सकते थे।
मैं टी.एन.निनन व बिज़नेस स्टैंडर्स को ए.डी.के. के लिए प्रोत्साहित करने व मैगइंडिया (ऑन लाइन विज्ञापन अबिलेखागार) को प्रिंट व टी.वी. संपर्कों के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा।
ए.जी.कृष्णमूर्ति
अहमदाबाद
अहमदाबाद
मेरे खिलते पल
संस्थापक, अध्यक्ष व प्रबंधक निदेशक के रूप में जब मैंने 25 मार्च 1980 को
एक ग्राहक व कुल जमा पूंजी 35,000 रूपये के साथ मुद्रा कम्यूनिकेशंस
प्राइवेट लिमिटेड की शुरूआत की जिसने नौ वर्षों के भीतर ही भारत में तीसरी
विशाल विज्ञापन एजेंसी की सूँची में अपना नाम दर्ज करा लिया। 31 मार्च
2003 को जब मैंने ‘मुद्रा’ छोड़ा तो इसकी स्थापना हुए
पूरे 23 वर्ष व सात दिन हो चुके थे।
25 मार्च, 1980- पाँच सादे शब्द, जिन्होंने न केवल मेरी जिन्दगी बदली बल्कि वे मेरी जिन्दगी ही बन गए। मुद्रा में ही मेरा अधिकतर समय बीता जो कि सुबह नौ बजे से आरम्भ होकर देर रात तक होता था। अपने लंबे व कड़े परिश्रम वाले घंटों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मेरे सहकर्मी एक ही मंत्र रटते थे- ‘‘जीना यहाँ, मरना यहाँ’’। इसी प्रसन्नता व उमंग से भरपूर सामूहिक संकल्प की शक्ति के बल पर हमने सारी बाधाएँ पार की व नौ सालों के भीतर ही विशालतम भारतीय विज्ञापन एजेंसी बन गए और उसके बाद भी यही स्तर बनाए रखा। इस पुस्तक में आगे ‘मुद्रा’ शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।
मैं यह पृष्ठ उन लोगों को समर्पित करना चाहता हूँ जिन्होंने मुद्रा रूपी जादू को साकार किया। मित्रों ! ईश्वर तुम्हारा भला करें !
25 मार्च, 1980- पाँच सादे शब्द, जिन्होंने न केवल मेरी जिन्दगी बदली बल्कि वे मेरी जिन्दगी ही बन गए। मुद्रा में ही मेरा अधिकतर समय बीता जो कि सुबह नौ बजे से आरम्भ होकर देर रात तक होता था। अपने लंबे व कड़े परिश्रम वाले घंटों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मेरे सहकर्मी एक ही मंत्र रटते थे- ‘‘जीना यहाँ, मरना यहाँ’’। इसी प्रसन्नता व उमंग से भरपूर सामूहिक संकल्प की शक्ति के बल पर हमने सारी बाधाएँ पार की व नौ सालों के भीतर ही विशालतम भारतीय विज्ञापन एजेंसी बन गए और उसके बाद भी यही स्तर बनाए रखा। इस पुस्तक में आगे ‘मुद्रा’ शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।
मैं यह पृष्ठ उन लोगों को समर्पित करना चाहता हूँ जिन्होंने मुद्रा रूपी जादू को साकार किया। मित्रों ! ईश्वर तुम्हारा भला करें !
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