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ध्यान

जे. कृष्णमूर्ति

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6034
आईएसबीएन :9788170287230

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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान ...

Dhyaan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महान् शिक्षक जे. कृष्णमूर्ति की वार्ताओं तथा लेखन से संकलित संक्षिप्त उद्धरणों का यह क्लासिक संग्रह ध्यान के संदर्भ में उनकी शिक्षा का सार प्रस्तुत करता है-अवधान की, होश की वह अवस्था जो विचार से परे है, जो समस्त द्वंद्व, भय व दुख से पूर्णत: मुक्ति लाती है जिनसे मनुष्य चेतना की अंतर्वस्तु निर्मित है। इस परिवर्द्धित संस्करण के मूल संकलन की अपेक्षा कृष्णमूर्ति के और अधिक वचन संग्रहीत हैं, जिनमें कुछ अब तक प्रकाशित सामग्री भी सम्मिलित है।

प्राक्कथन

जब ‘मेडिटेशन्ज़’ 1979 में पहली बार प्रकाशित हुई थी, तो यह प्रश्न सामने आया था कि कृष्णमूर्ति के बहुआयामी लेखन से कतिपय अनुच्छेद उद्धत करना तथा एक ही विषय व उससे संबद्ध उद्धरणों तक किसी पुस्तक को सीमित-केन्द्रित कर देना कहां तक उपयुक्त होगा ? यह कहा गया है कि ऐसे उद्धरण निश्चित रूप से उनकी शिक्षाओं की संपूर्णता व गंभीरता को प्रभावित करेंगे। आखिरकार, कृष्णमूर्ति अपने जीवनकाल (1895-1986) में कभी भी किसी एक विषय को केन्द्र बनाकर नहीं बोले, अपितु उन्होंने बहुत सारी विषय-वस्तुओं के धागों से एक विशाल चित्र-गलीचा बुना। क्या अध्ययन-अवलोकन के लिए उसमें एक धागा निकाल लेना ठीक होगा, और वह भी उद्धरणों के अर्थात् उस धागे के अंशों के रूप में ?

 बरस-दर-बरस कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं के अवगाहन से यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती जाती है कि उनमें ध्यान का प्रश्न सभी संदर्भों में जुड़ा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किस विषय पर चर्चा हो रही है, किन्तु उस विषय के बोध के लिए एक ऐसे मन की अपरिहार्य की बात की गई है, जो ज्ञात से, अतीत पर आधारित अटकलों, अनुमानों से मुक्त है। कृष्णमूर्ति कहते हैं कि केवल ऐसा मन ही, एक ध्यान पूर्ण मन ही जीवन के विविध प्रश्नों जैसे कि भय, द्वंद्व, संबंध, प्रेम, मृत्यु और स्वयं ध्यान में भी गहरे पैठ जाता है। इस परिवर्द्धित संस्करण में जो संकलन है, वह वार्ताओं, लेखनों तथा डायरी के पन्नों से उद्धत अभिव्यक्तिप्रवाह का प्रतिनिधि संकलन हैं जिससे यह सुस्पष्ट होता है कि जे.कृष्णमूर्ति के जीवन में ध्यान का कितना गहन महत्त्व था।

आमुख

मनुष्य ने अपने संघर्षों से पलायन करने के लिए अनेक प्रकार के ध्यान का आविष्कार कर लिया है। इन सबों का आधार है अभीप्सा, संकल्प एवं उपलब्धि की उत्कंठा, और इनमें निहित है द्वंद्व तथा कहीं पहुंचने के लिए संघर्ष। जान-बूझकर और सोच-समझकर किया जाने वाला यह प्रयास हमेशा संस्कारबद्ध मन की सीमाओं में ही होता है, और इसमें कोई स्वातंत्र्य नहीं है। ध्यान करने की सारी चेष्टा और सारा आयोजन ध्यान का निषेध है।
ध्यान का अर्थ है विचार का अंत हो जाना। और तभी एक भिन्न आयाम प्रकट होता है जो समय से परे है।

मार्च, 1979

जे.कृष्णमूर्ति

ध्यानपूर्ण मन शांत होता है। यह मौन विचार की कल्पना और समझ से परे है। यह मौन किसी निस्तब्ध संध्या की नीरवता भी नहीं है। विचार जब अपने सारे अनुभवों, शब्दों और प्रतिमाओं सहित पूर्णत: विदा हो जाता है, तभी इस मौन का जन्म होता है। यह ध्यानपूर्ण मन ही धार्मिक मन है-धर्म, जिसे कोई मंदिर, गिरजाघर या भजन-कीर्तन छू भी नहीं पाता।
धार्मिक मन प्रेम का विस्फोटक है। यह प्रेम किसी भी अलगाव को नहीं जानता। इसके लिए दूर निकट है। यह न एक है न अनेक, अपितु यह प्रेम की अवस्था है जिसमें सारा विभाजन समाप्त हो चुका होता है। सौंदर्य की तरह उसे भी शब्दों के द्वारा नहीं मापा जा सकता। इस मौन से ही एक ध्यानपूर्ण मन का सारा क्रियाकलाप जन्म लेता है।

ध्यान जीवन की महानतम कलाओं में से एक है- बल्कि शायद यही महानतम् कला है। यह कला संभवत: दूसरे से नहीं सीखी जा सकती-और यही इसका सौन्दर्य है। ध्यान की कोई तकनीक और तरकीब नहीं होती, इसलिए इसका कोई अधिकारी और दावेदार भी नहीं होता। जब आप स्वयं का निरीक्षण करते हुए अपने बारे में सीखते हैं, अर्थात् किस तरह आप खाते-पीते हैं, किस ढंग से आप चलते-फिरते हैं, क्या बातचीत और गपशप करते हैं, आपका ईर्ष्या करना, नफरत करना-जब आप अपने भीतर और बाहर इन सारी चीज़ों के प्रति सचेत होते हैं, बिना किसी कांट-छांट के, तो यह ध्यान का ही अंग है।
और यह ध्यान हर जगह हर समय हो सकता है: जब आप किसी बस में बैठे हों या जब आप धूप और छाया से परिपूर्ण किसी वनस्थली में टहल रहे हों या जब आप पक्षियों के कलरव-गान को सुन रहे हों या जब आप अपनी पत्नी या अपने बच्चे के चेहरे को देख रहे हों।

ध्यान का सहसा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो जाना कितना अद्भुत और विचित्र है ! ध्यान-जिसका न आदि है न अन्त। यह वर्षा की एक बूँद के समान है। इसी बूंद में छिपी हैं सारी की सारी नदियां और जलधाराएं, इसी में समाये हैं बड़े से बड़े समुद्र और जल-प्रपात। जल की यह बूँद पृथ्वी को भी पोषण देती है और मानव को भी। इसके बिना तो यह धरती रेगिस्तान बन जाती ! ध्यान के बिना हमारा हृदय भी ऊसर-बंजर मरुस्थल हो जाता है।

ध्यान का अर्थ यह पता लगाना है कि अपनी सारी गतिविधियों और अपने सारे अनुभवों समेत मस्तिष्क क्या पूर्णत: शान्त हो सकता है। बाध्य होकर नहीं, क्योंकि जिस क्षण आप इसे बाध्य करते हैं, फिर से द्वैत आ खड़ा होता है, और वह सत्ता भी, जो कहती है, ‘‘अद्भुत अनुभूतियों के जगत में प्रवेश के लिए मुझे अपने मस्तिष्क को नियंत्रित कर शान्त कर लेना चाहिए’’-ऐसा कभी संभव नहीं होगा।

लेकिन अगर आप विचार की सारी खोजों और गतिविधियों को, इसके भय, सुखों और संस्कारों को देखने, सुनने और समझने लग जायें, अगर आप अपने मस्तिष्क का निरीक्षण करने लग जायें कि यह किस तरह कार्य करता है, तो आप देखेंगे कि मस्तिष्क असाधारण रूप से शान्त, मौन हो जाता है। यह शांति निद्रा नहीं है बल्कि यह प्रचंड रूप से सक्रिय है और इसलिए शांत है। विद्युत उत्पन्न करने वाला एक बड़ा यंत्र जब अच्छी तरह कार्य करता है तो इससे शायद ही कोई ध्वनि निकलती हो। ध्वनि और शोर-गुल तभी पैदा होता है जब कहीं घर्षण होता है।
मौन और विस्तार का आपसी मेल है। मौन की अनंतता वह अनंतता है जिसके भीतर का केन्द्र मिट चुका है।
 

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