लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

57 पाठक हैं

प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....


'पर मैंने लन्दन की मैंट्रिक्युलेशन परीक्षा पास की हैं। लेटिन मेरी दूसरीभाषा थी।' मैंने कहा।

'सो तो ठीक हैं, पर हमें तो ग्रेज्युएट की ही आवश्यकता हैं।'

मैं लाचार हो गया। मेरी हिम्मत छूट गयी। बड़े भाई भी चिन्तित हुए। हम दोनों नेसोचा कि बम्बई में अधिक समय बिताने निरर्थक हैं। मुझे राजकोट में ही जमना चाहिये। भाई स्वयं छोटा वकील थे। मुझे अर्जी-दावे लिखने का कुछ-न-कुछ कामतो दे ही सकते थे। फिर राजकोट में तो घर का खर्च चलता ही था। इसलिए बम्बई का खर्च कम कर डालने से बड़ी बचत हो जाती। मुझे यह सुझाव जँचा। यों कुललगभग छह महीने रहकर बम्बई का घर मैंने समेट सिया।

जब तक बम्बई में रहा, मैं रोज हाईकोर्ट जाता था। पर मैं यह नहीं कह सकता कि वहाँ मैंनेकुछ सीखा। सीखने लायक ही मुझ में न थी। कभी-कभी तो मुकदमा समझ में न आताऔर इसकी कार्यवाई में रुचि न रहती, तो बैठा-बैठा झपकियाँ भी लेता रहता।यों झपकियाँ लेने वाले दूसरे साथी भी मिल जाते थे। इससे मेरी शरम का बोझहलका हो जाता था। आखिर मैं यह समझने लगा कि हाईकोर्ट में बैठकर ऊँघना फैशनके खिलाफ नहीँ हैं। फिर तो शरम की कोई वजह ही न रह गयी।

यदि इस युग में भी मेरे समान कोई बेकार बारिस्टर बम्बई में हो, तो उनकेलिए अपना एक छोटा सा अनुभव यहाँ मैं लिख देता हूँ।

घर गिरगाँव में होते हुए भी मैं शायद ही कभी गाड़ीभाड़े का खर्च करता था।ट्राम में भी क्वचित ही बैठता था। अकसर गिरगाँव से हाईकोर्ट तक प्रतिदिन पैदल ही जाता था। इसमे पूरे 45 मिनट लगते थे और वापसी में तो बिना चूकेपैदल ही घर आता था दिन में धूप लगती थी, पर मैंने उसे सहन करने की आदत डाल ली थी। इस तरह मैंने काफी पैसे बचाये।

बम्बई में मेरे साथी बीमार पड़ते थे, पर मुझे याद नहीं हैं कि मैं एक दिन भी बीमार पड़ा होऊँ। जब मैंकमाने लगा तब भी इस तरह पैदल ही दफ्तर जाने की आदत मैंने आखिर तक कायम रखी। इसका लाभ मैं आज तक उठा रहा हूँ।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book