जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
पिताजीने शरीर से पीड़ा भोगते हुए भी बाहर से प्रसन्न दीखने का प्रयत्न किया और विवाह में पूरी तरह योग दिया। पिताजी किस-किस प्रसंग में कहाँ-कहाँ बैठेथे, इसकी याद मुझे आज भी जैसी की वैसी बनी है। बाल-विवाह की चर्चा करते हुए पिताजी के कार्य की जो टीका मैंने आज की है, वह मेरे मन में उस समयथोड़े ही की थी? तब तो सब कुछ योग्य और मनपसंद ही लगा था। ब्याहने का शौकथा और पिताजी जो कर रहे हैं, ठीक ही कर रहे हैं, ऐसा लगता था। इसलिए उससमय के स्मरण ताजे हैं।
मण्डप में बैठे, फेरे फिरे, कंसार खाया-खिलाया, और तभी से वर-वधू साथ में रहने लगे। वह पहली रात! दो निर्दोषबालक अनजाने संसार-सागर में कूद पड़े। भाभी ने सिखलाया कि मुझे पहली रातमें कैसा बरताब करना चाहिये। धर्मपत्नी को किसने सिखलाया, सो पूछने की बातमुझे याद नहीं। पूछने की इच्छा तक नहीं होती। पाठक यह जान लें कि हम दोनों एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे है। एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही।बातें कैसे करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूँ? प्राप्त सिखावन भी क्या मदद करती? लेकिन क्या इस सम्बन्ध में कुछ सिखाना जरुरी होता है? जहाँसंस्कार बलबान हैं, वहाँ सिखावन सब गैर-जरुरी बन जाती हैं। धीरे-धीरे हमएक-दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनों बराबरी की उमर के थे। परमैंने तो पति की सत्ता चलाना शुरू कर दिया।
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