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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....

तूफ़ान की आगाही


कुटुम्ब के साथ यह मेरी पहली समुंद्री यात्रा थी। मैने कितनी बार ही लिखा हैं किहिन्दू समाज में ब्याह बचपन में होने के कारण और मध्यम श्रेणी के लोगों में पति के प्रायः साक्षर होने और पत्नी के प्रायः निरक्षर होने के कारणपति-पत्ना के जीवन में अन्तर रहता हैं और पति को पत्नी का शिक्षक बनना पड़ता हैं। मुझे अपनी धर्मपत्नी और बालकों की लेश-भूषा की, खाने-पीने कीऔर बोलचाल की संभाल रखनी होती थी। मुझे उन्हें रीति-रिवाज सिखाने होते थे। उन दिनों की कितनी बातों की याद मुझे आज भी हँसाती हैं। हिन्दू पत्नीपति-परायणता में अपने धर्म की पराकाष्ठा मानती हैं ; हिन्दू पति अपने कोपत्नी का ईश्वर मानता हैं। इसलिए पत्नी को पति जैसा नचाये वैसा नाचना होताहैं।

जिस समय की बात लिख रहा हूँ, उस समय मैं मानता था कि सभ्य माने जाने के लिए हमारा बाहरी आचार-व्यवहार यथासम्भव यूरोपियनों से मिलताजुलता होना चाहिये। ऐसा करने से ही लोगों पर प्रभाव पड़ता हैं और बिना प्रभाव पड़े देशसेवा नहीं हो सकती। इस कारण पत्नी की और बच्चों कीवेश-भूषा मैने ही पसन्द की। स्त्री-बच्चों का परिच काठियावाड़ी बनियों के बच्चों के रूप में कराना मुझे कैसे अच्छा लगता? भारतीयों में पारसी अधिकसे अधिक सुधरे हुए माने जाते थे। अतएव जहाँ यूरोपियन पोशाक का अनुकरण करना अनुचित प्रतीत हुआ, वहाँ पारसी पोशाक अपनायी। पत्नी के लिए साड़ियाँ पारसीबहनों के ढंग की खरीदी। बच्चो के लिए पारसी कोट-पतलून खरीदे। सबके लिए बूटऔर मोजे तो जरूर थे ही। पत्नी और बच्चों को दोनोंं चीजें कई महीने तक पसंदनहीं पड़ी। जूते काटते। मोजे बदबू करते। पैर सूज जाते। लेकिन इस सारीअड़चनों के जवाब मेरे पास तैयार थे। उत्तर की योग्यता की अपेक्षा आज्ञा काबल अधिक था ही। इसलिए पत्नी और बालकों में पोशाक के फेरबदल को लाचारी सेस्वीकार कि लिया। उतनी ही लाचारी और उससे भी अधिक अरुचि से खाने मेंउन्होंने छुरी-काँटे का उपयोग शुरू किया। बाद में जब मोह दूर हुआ तो फिरसे बूट-मोजे, छुरी-काँटे इत्यादि का त्याग किया। शुरू में जिस तरह से येपरिवर्तन दुःखदायक थे, उसी तरह आदत पड़ने के बाद उनका त्या भी कष्टप्रदथा। पर आज मैं देखता हूँ कि हम सब सुधारों की कैंचुल उतारकर हलके हो गयेहैं।

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