जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
57 पाठक हैं |
प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
अतएवयद्यपिमैं उन्हे जितना चाहता था उतना अक्षर-ज्ञान नहीं गदे सका, तो भी अपनेपिछले वर्षो का विचार करते समय मेरे मन में यह ख्याल नहीं उठता कि उनकेप्रति मैंने अपने धर्म का यथाशक्ति पालन नहीं किया है और न मुझे उसके लिएपश्चाताप होता हैं। इसके विपरीत, अपने बड़े लड़के के बारे में मैं जोदुःखद परिणाम देखता हूँ, वह मेरे अधकतरे पूर्वकाल की प्रतिध्वनि है, ऐसामुझे सदा ही लगा हैं। उस समय उसकी उमर इतनी थी कि जिसे मैंने हर प्रकार से अपना मूर्च्छाकाल, वैभव-काल माना हैं, उसका स्मरण उसे बना रहे। वह क्योंमाने कि वलह मेरा मूर्च्छाकाल था? वह ऐसा क्यों न माने कि वह मेरा ज्ञानकालथा और उसके बाद में हुए परिवर्तन अयोग्य और मोहजन्य थे? वह क्यों न माने किउस समय मैं संसार के राजमार्ग पर चल रहा था इस कारण सुरक्षित था तथा बादमें किये हुए परिवर्तन मेरे सूक्ष्म अभिमान और अज्ञान की निशानी थे? यदिमेरे लड़के बारिस्टर आदि की पदवी पाते तो क्या बुरा होता? मुझे उनके पंखकाट देने का क्या अधिकार था? मैंने उन्हे ऐसी स्थिति में क्यों नहीं रखाकि वे उपाधियाँ प्राप्त करके मनचाहा जीवन-मार्ग पसन्द कर सकते? इस तरह कीदलीले मेरे कितने ही मित्रो ने मेरे सम्मुख रखी हैं।
मुझे इन दलीलो में कोई तथ्य नहीं दिखायी दिया। मैं अनेक विद्यार्थियों के सम्पर्कमें आया हूँ। दूसरे बालकों पर मैंने दूसरे प्रयोग भी किये हैं, अथवा करानेमें सहायक हुआ हूँ। उनके परिणाम भी मैंने देखे हैं। वे बालक और मेरे लड़केआज समान अवस्था के हैं। मैं नहीं मानता कि वे मनुष्यता में मेरे लड़को से आगे बढ़े हुए हैं अथवा उनसे मेरे लड़के कुछ अधिक सीख सकते हैं।
|