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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....

बढ़ती हुई त्यागवृति


ट्रान्सवाल में भारतीय समाज के अधिकारो के लिए किस प्रकार लड़ना पड़ा और एशियाई विभागके अधिकारियों के साथ कैसा व्यवहार करना पड़ा, इसका वर्णन करने से पहलेमेरे जीवन के दूसरे अंग पर दृष्टि डाल लेना आवश्यक हैं।

अब तक कुछ द्रव्य इकट्ठा करने की मेरी इच्छा थी। परमार्थ के साथ स्वार्थका मिश्रण था।

जब बम्बई में दफ्तर खोला, तो एक अमेरिकन बीमा-एजेंट मिलने आया। उसका चेहरासुन्दर था और बाते मीठी थी। उसने मेरे साथ मेरे भावी हित की बाते ऐसे ढंगसे की मानो हम पुराने मित्र हो, 'अमेरिका में तो आपकी स्थिति के सब लोगबीमा कराते हैं। आपके भी ऐसा करके भविष्य के विषय में निश्चिंत हो जानाचाहिये। जीवन का भरोसा है ही नहीं। अमेरिका में तो हम बीमा कराना अपनाधर्म समझते हैं। क्या मैं आपको एक छोटी-सी पॉलिसी लेने के लिए ललचा नहींसकता?'

तब तक दक्षिण अफ्रीका में और हिन्दुस्तान में बहुत से एजेंट की बात मैंने मानी नहीं थी। मैं सोचता था कि बीमा कराने में कुछभीरुता और ईश्वर के प्रति अविश्वास रहता हैं। पर इस बार मैं लालच में आ गया। वह एजेंट जैसे-जैसे बातो करता जाता, वैसे-वैसे मेरे सामने पत्नी औरबच्चो की तस्वीर खड़ी होती जाती। 'भले आदमी, तुमने पत्नी के सब गहने बेच डाले हैं। यदि कल तुम्हें कुछ हो जाय तो पत्नी और बच्चो के भरण-पोषण काभार उन गरीब भाई पर ही पड़ेगा न, जिन्होंने पिता का स्थान लिया हैं और उसे सुशोभित किया है? यह उचित न होगा।' मैंने अपने मन के साथ इस तरह की दलीलेकी और रु. 10,000 का बीमा करा लिया।

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