जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
मैंने उन वयोवृद्ध मित्र का बहुतआभार माना। उनकी उपस्थिति में तो मेरा भय क्षण भर के लिए दूर हो गया। पर बाहर निलकने के बाद तुरन्त ही मेरी घबराहट फिर शुरू हो गयी। चेहरा देखकरआदमी को परखने की बात को रटता हुआ और उन दो पुस्तकों का विचार करता हुआमैं घर पहुँचा। दुसरे दिन लेवेटर की पुस्तक खरीदी। शेमलपेनिक की पुस्तक उसदुकान पर नहीं मिली। लेलेटर की पुस्तक पढ़ी, पर वह तो स्नेल से भी अधिककठिन जान पड़ी। रस भी नहीं के बराबर ही मिला। शेक्सपियर के चेहरे काअध्ययन किया। पर लंदन की सडको पर चलने वाले शेक्सपियरों को पहचाने की कोईशक्ति तो मिली ही नहीं।
लेवेटर की पुस्तक से मुझे कोई ज्ञान नहीं मिला। मि. पिंकट की सलाह का सीधा लाभ कम ही मिला, पर उनके स्नेह का बड़ालाभ मिला। उनके हँसमुख और उदार चेहरे की याद बनी रही। मैंने उनके इन वचनों पर श्रद्धा रखी कि वकालत करने के लिए फीरोजशाह महेता की होशियारी औऱयाददाशत की वगैरा की जरूरत नहीं हैं, प्रामाणिका और लगन से काम चल सकेगा। इन दो गुणो की पूंजी तो मेरे पास काफी मात्रा में थी। इसलिए दिल में कुछआशा जागी।
के और मेंलेसन की पुस्तक विलायत में पढ़ नहीं पाया। परमौका मिलते ही उसे पढ डालने का निश्चय किया। यह इच्छा दक्षिण अफ्रीका मेंपूरी हुई।
इस प्रकार निराशा में तनिक सी आशा का पटु लेकर मैं काँपते पैरो 'आसाम' जहाज से बम्बई के बन्दरगाह पर उतरा। उस समय बन्दरगाहमें समुद्र क्षुब्ध था, इस कारण लांच (बडी नाव) में बैठकर किनार पर आना पड़ा ।
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