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नारी विमर्श >> सूना अम्बर

सूना अम्बर

ज्ञान सिंह मान

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :211
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6057
आईएसबीएन :81-8143-706-8

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सामयिक संघर्षशील परिस्थितियों में उलझते संवेदनशील पात्रों की मार्मिक मनःस्थित का सहज विश्लेषण।

Soona Ambar - An attempt to analyze emotions by the awarded author Gyan Singh Maan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रस्तुत रचना सामयिक संघर्षशील परिस्थितियों में उलझते संवेदनशील पात्रों की मार्मिक मनःस्थित का सहज विश्लेषण है। सामाजिक परिवेश में पनपते भ्रष्टाचार एवं विकृतियों का बीज कहीं न कहीं अहमग्रस्त व्यक्ति के अन्तराल में निहित रहता है। यही कुंठागत बीज उसके बाह्य जीवन को विषाक्त करता है। सूना अम्बर इसी विशिष्ट दर्शन से प्रेरित है जहाँ लेखक ने कतिपय चिरंतन मानवीय संवेदनाओं के विश्लेषण का संकल्प जुटाया है। मानव जीवन की सराहनीयता, जीवन प्रवाह में प्रकट सहज दुख एवं संताप का कारण, दिशाहीन अर्थहीन, लक्ष्यहीन एवं संदर्भहीन जीवन की विडम्बना और दंश को प्रकट करती यह कृति पाठक को अवश्य अविभूत करेगी। ऐसा हमारा विश्वास है। आज के दिशाहीन मानव के लिए एक प्रश्न अत्यंत ज्वलंत है। महज शरीर में या कोरे अस्तित्व का संताप झेलते रहना ही क्या मानवीय जीवन की चरम नियति है ? इसी प्रकार के उलझे सारपूर्ण प्रश्नों का समाधान करने में संकल्पकृत है यह कृति !

दो शब्द

‘सूना अम्बर’ उपन्यास का नया संस्करण पाठकों को सौंपते हुए मैं हर्ष और संतोष का अनुभव कर रहा हूँ. यह कृति पहली बार सन 1976 में प्रकाशित हुई थी, तथा उसी वर्ष भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत भी हुई। ऐसे में इस पर सहृदय पाठकों, सुधी विद्वानों तथा शोधकर्ताओं की चर्चा स्वाभाविक ही है। एक लंबा समय, मैं नए लेखन, प्राध्यापक एवं प्रशासनिक गतिविधियों में व्यस्त रहने के कारण, इस कृति की ओर पुनः ध्यान नहीं दे पाया। कुछ मुक्तक्षण मिलते ही मैंने अपने स्नेही बंधु श्री अरुण माहेश्वरी (संचालक वाणी प्रकाशन) से इसके नवीन संस्करण के लिए अनुरोध किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी—इस सहयोग के लिए मैं माहेश्वरी जी का हृदय से आभारी हूँ।

विधागत रूप में उपन्यास मेरे लिए किसी विशिष्ट दर्शन में रमण करने का दूसरा नाम है। कहानी स्वयं एक दर्शन होती है, परंतु उपन्यास किसी भी लेखक के दर्शन में विकसित और पूर्ण होता है। कहानी के कथ्य और दर्शन में तद्रूपता सदा बनी रहती है जबकि उपन्यास के कथ्य में इसका दर्शन लहर-दर-लहर बार-बार उभरता रहता है। ‘सूना अम्बर’ भी एक विशिष्ट दर्शन से उत्प्रेरित है। सामयिक समस्याओं से ऊपर उठकर लेखक ने यहाँ कतिपय चिरंतन मानवीय संवेदनाओं के विश्लेषण का संकट जुटाया है। मानव जीवन की सार्थकता; जीवन प्रवाह में सहज प्रकट दुःख एवं संताप का कारण; दिशाहीन, अर्थहीन, लक्ष्यहीन एवं संदर्भहीन जीवन की विडम्बना—और सब से महत्त्वपूर्ण यह कि सहज शरीर में साँस भर लेना या फिर कोरे अस्तित्व का संताप झेलते रहना ही क्या मानवीय जीवन की चरम नियति है ? इसी प्रकार के असंख्य सारपूर्ण प्रश्नों का समापन खोजने में संकल्पनिष्ठ है यह कृति।

अहंनिष्ठ एंव व्यक्तिपरक पात्रों के गहन आत्मचिंतन का मनोवैज्ञानिक भावोद्रेक होने के कारण यह कृति मनोविश्लेष्णात्मक है। कलागत जीवन की एक-सी निजता में भटकते तथा स्वार्थपरक प्रेम का दंश भोगते इन पात्रों की साँसों में परिवेशगत यथार्थ-जीवन की कटुता और मनोरमता सहज ही झलकती गई है, और शायद यही इस साहित्यिक रचना का सौंदर्य है।

नयी भव्यता के साथ ‘सूना अम्बर’ अपनी बहु-आयामी झलक फिर से सजा रहा है। पाठकों को यह पुनः अभिमोहित करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है, अस्तु।

ज्ञान सिंह मान

सूना अम्बर

अर्चना अस्वस्थ थी, मानसिक तथा शारीरिक दोनों ही दृष्टियों से। जीवन का अर्थ अब उसके लिए ‘ह्वील चेयर’ पर सरकना मात्र रह गया था। परंतु अपनी इस दीन-हीन एवं असहाय-सी अवस्था के लिए वह स्वयं तो जिम्मेवार नहीं थी। संभवतः परिस्थितियाँ ही ऐसी थीं या फिर नियति—? कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। प्रेमपयोधि में उसने दो बार डुबकी लगाने की मोहक कामना की थी—भाग्य की विडंबना—दोनों ही बार उसने इस भावात्मक सरसी में भीषण गोते खाए और विकलांग हो गई। संयोगवश उसके दोनों स्नेही सूत्र सेना में उच्चाधिकारी थे और कलाकार भी थे। पहला चित्रकार था और दूसरा कवि। वह स्वयं भी एक विख्यात चित्रकार्त्री तथा पारंगत नृत्यंगना थी। देश की रक्षा में जुटे कला साधकों के हाथों में उसे ऐसी कसकपूर्ण यातना भी झेलनी पड़ेगी, वह नहीं जानती थी।

प्रत्येक साँझ, ढलते सूर्य की लालिमा में वह अतीत की परछाइयों को पढ़ने का प्रयास करती—आँखों में बरबस आँसू उमड़ने लगते और वह कराह उठती थी। अपने अर्द्ध-मृत से शरीर के साथ वह केवल अपने अतीत को ही कुरेद सकती थी, भला और करती भी क्या ? बीते कल की स्मृतियाँ ही अब उसकी शेष संपत्ति थी, जो कभी-कभी आहों और आँसुओं में टपक पड़ती थी। अपने दोनों प्रेमियों को स्मरण कर वह भाव-विह्वल हो उठती थी। सुरदीप और सुनीत—कैसे श्वासबद्ध और लय-मुक्त हैं ये नाम...?

अर्चना कभी स्वयं से प्रश्न करने लगती थी। नामों में इतनी सरसता होने पर भी इनके व्यक्तित्वों में ऐसी दंशमय कटुता कहाँ से उमड़ आई है ! ओफ ! अर्चना सब कुछ स्मरण करके भी तो मौन बनी रहती थी। एक टीस थी, एक दर्द था, कुछ अधूरेपन का एहसास था—ये सब तिल-तिल करके उसे सालते रहते थे; काटते रहते थे। ऐसा ही निकट एवं निरीह अवस्था में वह पलकें मूँद कर स्वयं को परिवेश से पूर्णतया विलग करने का अभ्यास जुटाया करती थी। क्या सच ही इस अभ्यास में सफल हो पाती—शायद नहीं। तो फिर...

एक बार फिर से पूर्ववत् विस्मृति। हाँ, वही तो—कहते हैं विस्मृति, मुक्ति क्षणों का उपहार ही तो है। जो प्रशांति जाग्रत अवस्था में नहीं मिलती, प्रसुप्ति के क्षणों मे संत्रस्त मन इसे सहज ही पा लेता है। ऐसे क्षणों में विधाता के अदृश्य दिशासूचक मानों सहसा ठहर जाते हैं; अतीत के नुकीले विषाद-शर दम तोड़ जाते हैं। सब कुछ भूलकर भी व्यक्ति प्रतिबद्ध –सी स्थिति में भविष्य की ओर सरकता चला जाता है।

कैसी अद्भुत संरचना है यह। अर्चना सोचती है, साँसों की पतवार क्या सच ही उसके शिथिल शरीर को किसी सुखमय प्रशांति ‘डॉक’ की ओर ले जाएगी। ओफ ! कैसी छलनामयी है यह आत्म-विस्मृति ! सब कुछ खो देने की लालसा; सब कुछ अनुभव करके भी बिसार देने की आकांक्षा; सब कुछ उगल देने का विफल प्रयास; सब कुछ संचित करके भी विस्मृति और आत्मचिंतन के क्षणों में भी अर्चना खिन्न हो उठती है। जो चित्र वह बनाना चाहती है, नहीं बना पाती।
एक दीर्घ स्वास भर रक उसने ‘ब्रुश’ फिर से दूर फेंक दिया। अंतर्मन का मंथन और गहरा गया। अर्चना, कितना प्यारा नाम था उसका। ऐसा ही क्या सुदीप ने नहीं कहा था। सुदीप, हाँ—स्मरण आया, वही तो था। प्रथम मिलन, पगली, स्मृति, कोमल भावनों की सरस फुहार—नहीं, अर्चना एक गहरी निश्वास भर कर और पीछे हट जाती है। अपने ही हाथों से बनाया-सजाया चित्र उसे अपरिचित-सा लगने लगता है। एक अजनबी की भाँति घूरने लगता है। वह पुनः अशांत हो उठती है। इस आंतरिक वेदना से भला उसे कब छुटकारा मिलेगा ? नहीं जानती वह। विस्मृति भूल ही सही, अतीत के धूमिल मार्ग का मायवी अवगुंठन ही सही-सब होने पर भी अंतर्मन में सिमटे, ग्रथियों से आबद्ध अहं-चलित एवं विषाद-जनित शरों से तो छुटकारा नहीं मिल पाता। जीवन-गति पूर्वत ही अनुभव के नवपटल सँवारती रहती है; किसी कल्पित स्फुरण की जिज्ञासा बनी हमेशा एक शुभ सुप्रभाव की आकांक्षा सजाती रहती है। ऐसे में आंखों से अविरल बहती अंतर्वेदना का कोई क्या करे ? अर्चना प्रयास करने पर भी समझ नहीं पाती थी, तो फिर...

जी में आया कि अपनी ही कला का अंत अपने ही हाथों कर दे। तीखे नाखूनों से कुरेद दे उस अनचाहे फलक को। क्यों उसकी आंतरिक वेदना रंगों में साकार नहीं हो पा रही है ? वह खीझ उठी। अपने ही स्वभाव पर विक्षुब्ध हुई कुर्सी के पहियों को सरकाकर दूर ले गई। मस्तक पीछे पटक नीलांबर की ओर टकटकी बाँध देखने लगी। विशाल पलकों में अम्बर की विशाल गहराई, कैसा अनोखा था वह भाव-चित्र-क्षण गहरा होता बादलों का धूमिल प्रसार। कहीं वर्षा तो नहीं होगी ? अपना ही भय शरीर को कंपित कर गया। अंतराल में छिपी कोई कसक पुनः फुंकार उठी। एक हलकी चीख अर्चना के अर्ध-शुष्क होंठों से निकल मेघों की ठहरती गति से टकरा गई। चित्रकारी में पारंगत हाथ की कला की साधना-आराधना से शुद्ध एवं पावन बने वे मृदुल हाथ पुनः उभरती मचलती छाती पर आ पड़े—बहुकथित वही वाक्य, एक दबी आवाज, एक वेदना ‘जाने इस दर्द से कब मुक्ति मिलेगी ? मौत भी तो करीब नहीं आती ? ओ भगवान् ! सुप्त अश्रु अनायास ही आंतरिक वाष्प को साथ ले विशाल पलकों में उमड़ पड़े। दो नन्हे बिन्दु, सूने अम्बर की धूमिल वेदी पर दो श्रद्धा पुष्प ! वह समचुच रो उठी, कैसे सहन करे उस असह्य दुःख को—कहाँ होगा उसकी सुदीप—वही दुष्ट प्रेमी, जिसने उसे विकलांग-सी बना बेजान पहियों पर सरकने और गिरने के लिए अकेली छोड़ दिया है।

प्रकृति का फहराता अंचल जैसे भीगना चाहता हो। आलोक का अपहरण कर कालिमा अपना कुरुप चेहरा प्रकट करने लगी। निराधाम व्योम अपने ही भव्य रूप में जैसे खो गया और एकबारगी सृष्टि की समस्त संपदा को आंदोलित करने के लिए आसमानी छाता जैसे फड़क ही उठा। कैसी भयंकर थी वह तेज वर्षा—नहीं तो अर्चना अपने हाथों से कुर्सी को शीघ्रता से चला, इसे टीन के ‘शैड’ के नीचे ले ही आई। लगा, वह प्रयास भी बिफल ही रहेगा। भीगना तो पड़ेगा ही। फिर इतनी दौड़-धूप क्यों ? अर्चना ने अपनी भीगी साड़ी को शरीर से पृथक् करने के लिए शरीर का समस्त बल घुटनों पर डालना चाहा, परंतु शरीर का वह दुर्बल निम्न भाग, अस्थिर-सा हो उठा। क्लांत पक्षी की भाँति वह पुनः उसी प्रकार लेट गई। उत्साह जैसे शरीर पर बिखरी बूँदों के साथ फिसल-फिसल धराशायी हो गया। अर्चना सहसा सिहर उठी। मस्तक उठाकर देखा ‘स्टैड’ पर टंगा अधूरा चित्र बिलकुल ही धुल गया था। जल का निरंतर प्रवाह गहरे-हलके रंगों को अपनी रंगीनी का साथी बनाया जैसे धरती पर सोने का अभिनय जुटा रहा हो।

अर्चना उद्विग्न हो उठी। भ्रांत एवं उद्देवलित चित्त जैसे वर्षा की सरसता में भी दग्ध होकर रह गया। कैसा उपहास था वह ? अपनी कृति को यूँ झण भर में ही विस्मृति-तिमिर में मुख छिपाते देख व्याकुल हो उठी। वातावरण की बढ़ती स्निग्धता पल-भर को भी उसे रससिक्त न कर सकी। उदासी और बढ़ गयी। फलक पर बिखरी मृत-सी रेखाएँ मानों अपनी गाथा कह चुकीं; मिटीं और सदैव के लिए सो गईं। अर्चना के नेत्र मानो कुशल-चपल चरंग में कौंध गए। आकाश पर जैसे कोई महाविस्फोट समस्त नक्षत्रों की कांति को फुलझड़ी बनाता हुआ प्रगाढ़ अलिंगन में विचरण करते श्यामल मेघों में खो गया। हृदय की धड़कन तेज हो गई। लगा, कोई करुण माँ अपने कोमल शिशु को पुनीत दिठौना देकर भी उसे यमराज के हाथों से बचा न सकी। कोई अबोध बालक अपनी चिर-स्नेही कपोती को प्रयत्न करने पर भी बिल्ली के रक्त-पिपासु अहं से बचा न पाया। आह ! कैसा था वह व्यवहार। बनते-उमड़ते अंधकार में मिटता-घुलता कला का वह रूप ! वियोग ही तो था जो अर्चना को साल रहा था।

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