हास्य-व्यंग्य >> आदमी और गिद्ध आदमी और गिद्धगोपाल चतुर्वेदी
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वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों-विद्रूपताओ की पोल खोलते प्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी के ये व्यंग्य-लेख अत्यंत धारदार हैं और...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एक गिद्ध ने थके-हारे बुजुर्ग को स्मरण दिलाया, ‘‘अब तो वृद्ध
के प्राण भी छूट गये हैं। वह बाहर लॉन में केवल कुत्ते और चिड़ियों के साथ
अकेला पड़ा है। भूख मिटाने का यह स्वर्णिम अवसर है। बस, हमें धावा बोलना
है।
वृद्ध गिद्ध ने चोंच घुमाकर एक बार सबकी तरफ देखा, फिर दुःखी स्वर में बोला, चलो कहीं और चले जिसे पशु-पक्षियों से इतना स्नेह था कि वे उसकी लाश पर रो रहे हैं। उसमें चोंच गढ़ाने का जी नहीं कर रहा है। मानव में भले न बची हो, पर हममें तो गिद्ध संवेदना अभी भी शेष है।’’
गिद्ध शहर से कूच कर जंगल की ओर उड़ लिये। बुजुर्ग को डर लगा कि यदि वे देर तक शहर में रुके तो गिद्धों पर कहीं इन्सानों का साया न पड़ जाए ! वैसे भी शहरों में गिद्धों की दरकार ही क्या है, वहाँ एक-एक घर में कई-कई गिद्ध हैं।
वृद्ध गिद्ध ने चोंच घुमाकर एक बार सबकी तरफ देखा, फिर दुःखी स्वर में बोला, चलो कहीं और चले जिसे पशु-पक्षियों से इतना स्नेह था कि वे उसकी लाश पर रो रहे हैं। उसमें चोंच गढ़ाने का जी नहीं कर रहा है। मानव में भले न बची हो, पर हममें तो गिद्ध संवेदना अभी भी शेष है।’’
गिद्ध शहर से कूच कर जंगल की ओर उड़ लिये। बुजुर्ग को डर लगा कि यदि वे देर तक शहर में रुके तो गिद्धों पर कहीं इन्सानों का साया न पड़ जाए ! वैसे भी शहरों में गिद्धों की दरकार ही क्या है, वहाँ एक-एक घर में कई-कई गिद्ध हैं।
इसी पुस्तक से
प्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी के ये व्यंग्य-लेख अत्यंत धारदार हैं
और वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों-विद्रूपताओ
की पोल खोलते नजर आते हैं। इनकी मारक क्षमता बेजोड़ है। ये व्यंग्य सुधी
पाठकों को गुदगुदाएंगे हँसाये और कुछ नया करने के लिये प्रेरित
करेंगे।
साहित्य का ब्राह्मणवाद
सरकार संकट में होती है तो कमेटी बनाती है। साहित्य का संकट मोचक गोष्ठी
है। यों साहित्य पर संकट कभी नहीं आता है, बस कुछ लेखकों पर कभी-कभार आ
जाता है। किसी को पुरस्कार नहीं मिला, कोई पाठ्यक्रम से हट गया। कभी कोई
विदेश जा रहे प्रतिनिधिमंडल से चूका तो कोई राष्ट्रीय सम्मान पाते-पाते
गँवा बैठा। हर बड़े लेखक के साथ ऐसी कोई–न कोई त्रासदी जुड़ी
है। जब
दस-बारह बड़े मिलते हैं तो उनका आंतरिक दर्द साहित्यिक संत्रास की शक्ल
आख्तियार करता है।
समान विचार यानी एक जैसे दुःख-दर्दवाले कोई मोटा मूँजी फाँसते हैं जो इस राष्ट्रीय रुदाली समारोह के सावन में खान-पान की हरियाली ला सके। साहित्य का गिरता स्तर उठाना एक दुष्कर कार्य है। इसके लिये रहने को वातानुकूलित कमरा, घूमने को कार, कंपनी को कन्या, पीने को स्कॉच और खाने को नॉन-वेज होना-ही-होना। जब बड़ा लेखक इनमें आकंठ डूबता है तो साहित्य का स्तर उठता है, जब इनसे वंचित रहता है तो स्तर गिरता है।
हमारे शहर में इधर साहित्य का स्तर दिनो-दिन गिर रहा है। एक कब्र में पैर लटकाए बड़े लेखक को पुरस्कारों का अजीर्ण हो चुका है, पर वह दुःखी है। सरकार साहित्यकारों की कद्र नहीं करती है। उसे साहित्य की समझ नहीं है, वरना वह आज तक परम सम्मान के बगैर रहते क्या ! उनकी चिन्ता अपनी नहीं है, सम्मान की है। उस सम्मान की कद्र कौन करेगा जिसे उन्होंने सुशोभित नहीं किया है।
अपने नगर में महान लेखकों का अंबार है। दूसरे को शिकायत है कि उन्हें पदम मिला तो, पर सिर्फ ‘श्री’ क्यों मिला, जबकि उनकी हैसियत किस ‘भूषण’ और रत्न’ वाले से कम है ! अपन ने सुना था कि रचनाकार दूसरों के दुःख-दर्द को शब्द देते हैं। हमने गलत सुना होगा। हमारे स्वनामधन्य लेखकों की अपनी निजी पीड़ा है। सब उसमें खुशी-खुशी खोए हैं, दुनिया-जहान के दर्द से उन्हें लेना ही क्या है !
एक और कवि हैं। उन्हें दूसरों से गहरा ताल्लुक है। उन्होंने कवि-सम्मेलनों में रोकर, गाकर और चुटकुले सुनाकर तीन-तीन मकान खड़े किए हैं। तीनों किराए पर हैं। वह गैरों के पास महीने में एक बार नियम से जाते हैं। एक चुटकला ‘फ्री’ में सुनाते हैं और किराया कैश में लाते हैं।
दरअसल जब से एक आयोजक ने चैक का चूना लगाया है (चैक ‘बाउंस’ कर गया), वह केवल कैस में यकीन रखते हैं। अधिकतर भारतीयों के सामूहिक सोच की तरह उनके व्यक्तिगत अर्थतंत्र में भी आयकर एक अर्थ की देनदारी है, जिसे सरकारी अफसर, मंत्री और नेता अपने ऐशो-आराम के लिये वसूलते हैं। वह इनकी फिजूलखर्ची में क्यों अपनी रोने-गाने की गाढ़ी कमाई गँवाए।
किराए और कवि-सम्मेलन की कमाई से उनका जीवन आराम से गुजर रहा था एक दिन हादसा हो गया। आयकर विभाग के निरीक्षक के बच्चे का जन्मदिन था। उसने उन्हें सादर आमन्त्रित किया। शादी-ब्याह, जनेऊ, जन्मदिन, अफसरों के डिनर आदि पर वह निःशुल्क लोगों का मनोरंजन कर अपना सामाजिक दायित्व निभाते आए हैं। उस दिन उन्हें एक कमाऊ कवि-सम्मेलन में जाना था। अर्थ कमाने का अवसर गँवाने का अनर्थ वह कैसे करते ! कविजी ने क्षमा माँगी, निरीक्षक ने जिद की। उसके बड़े अफसर आने वाले थे। निरीक्षक को उन्हें अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक सुरुचि से प्रभावित करना था। कवि ने ‘हाँ-हाँ’ कर निरीक्षक को टाला।
उनके न जाने से निरीक्षक के अहम को ठेस लगी। अपने अधिकारियों के आगे उसकी हेठी हुई। उसने अपने रामबाण का इस्तेमाल किया। कवि के काले धन की फर्जी शिकायत करवाई। अधिकारी के पास उनके घर ‘रेड’ करने की फाइल भेजी। जब तक सत्ता के नेता का नाम न हो, अफसर नीचेवालों के सुझाव पर सिर्फ चिड़िया बनाते हैं। खाना तो मिल-जुल के ही है। कविजी के यहाँ छापा पड़ा। आठ-दस लाख का कैश, फोन, कार, जेवर, घर सबकी छानबीन हुई। केस बना। पर आयकर निरीक्षक को निराशा ही हाथ लगी।
यकायक कविजी की फीस और सामाजिक रुतबा बढ़ गया। अब वह पूँजीपतियों, मंत्रियों, उद्योपतियों जैसे आदरणीयों की श्रेणी में शामिल हैं। साहित्यिक जगत में उनकी कीर्ति में चार चाँद लगे हैं। प्रतियोगी कवि सिर्फ हाथ मलते हैं। अब अगर औरों के घर रेड हुई तब भी रहेंगे तो दूसरे नंबर पर ही। पहले नंबर की बाजी तो हमारे शहर के कविजी के हाथ लग चुकी है।
फिर भी इस दुर्घटना से कवि उदास हैं। कर और फाइल की संभावना, वकील का खर्चा, इधर-उधर की दौड़-भाग से वह त्रस्त है। सबसे हृदय-विदारक खतरा भी तो नकदी जाने का है।
सारे बड़े लेखक एक दिन मिले तो स्वाभाविक था कि वह साहित्य के आसन्न संकट से दुखी हों। कविजी ने अपनी व्यथा व्यक्त की-
‘‘सरकार हाथ धोकर साहित्य के पीछे पड़ी है। मुझे झूठे केस में फँसा दिया। मेरा गुनाह इतना है कि मैं अफसरों के दरबार में हाजिरी नहीं बजाता हूँ।’’
पद्म सम्मान मुखर हुआ- ‘‘साहित्यकारों का कोई सम्मान नहीं है।’’
पद्म अभाव के पीड़ित का निराश स्वर फूटा - ‘‘टी.वी. युग में अब पाठक ही कहाँ बचे हैं !’’
सबने एक राय से निश्चित किया कि आधुनिक युग में साहित्य की प्रासंगिकता पर एक लेख अखिल भारतीय परिचर्चा आयोजित की जाए। चर्चा खर्च की हुई। कवि ने दलित मुख्यमंत्री को काफी चुटकुला-साहित्य सुनाकर उनका मनोरंजन किया था। उन्होंने तपाक से प्रस्ताव रखा, ‘‘मुख्यमंत्रीजी की साहित्य में काफी रुचि है। उनसे उद्घाटन करवाते हैं। एक-दो लाख तो मिल ही जाएँगे। ठहरने की व्यवस्था भी अतिथि-ग्रह में हो जाएगी। हम लोगों के सम्मिलित प्रयास से चार-पांच लाख इकट्ठे करना कौन मुश्किल है ! आखिर अपना शहर हिन्दी क्षेत्र की राजधानी है।’’
सब मगन थे। अपनी जेब भरने का कुछ-न-कुछ डौल तो लग ही जाएगा। जिनको बुला रहे हैं वह सबके सब नाशुक्रे हैं, फिर भी अपने शहर में आयोजन किया तो उनको भी आमंत्रित करेंगे। शिक्षा क्षेत्र में एक-दूसरे को परीक्षक बनाने की परंपरा के समान पारस्परिक पीठ खुजाई साहित्य में भी एक विकसित कला का दर्जा पा चुकी है। जब तक जेब, गुट और ख्याति को खतरा न हो हर साहित्यकार अपनी साहित्यिक भाई-बिरादरी का सोचता है।
राजनेताओं में भी समानता है। उनका सोच केवल वोट-केंद्रित है। सामाजिक विद्वेष बढ़े तो बढ़े; देश, संविधान, सिद्धांत भाड़-चूल्हे में जाए नेता की चिंता केवल अपना वोट बैंक बढ़ाने की है। मुख्यमंत्री से साहित्य के महारथी मिले तो उन्होंने तत्काल इस साहित्य सम्मेलन के उद्घाटन की स्वीकृति ही न दिया। वह जानते हीं दी अपनी ओर से भरपूर मदद का आश्वासन भी हैं कि साहित्यकार किसी के सगे नहीं हैं, पर वोट बैंक में अगर इफाजा हो गया तो बुरा क्या है-
‘‘आप लोगों ने आने की कृपा की, हम आपके आभारी हैं। हमारा सपना तो सूबे का विकास है। साहित्य आगे बढ़ेगा तो समाज भी तरक्की करेगा। वह क्या कहते हैं कि जहां न पहुँचे रवी, वहाँ पहुँचे कवी। आप सब तो पहुँचे हुए लोग हैं जितना हो सकेगा, हम करेंगे।’’
जहां पहुँचे हुए महाराथी लौटे तो प्रसन्न थे। जनता के पैसे को उड़ाने में मुख्यमंत्री वचन का बेहद पक्का है। अगर कहता है तो करता भी है। अखिल भारतीय साहित्यक गोष्ठी में भाग लेने के लिये सबने अपने-अपने गुट के खास वफादारों को याद किया। दो दिन की बहस, भरपूर प्रचार, लंच-डिनर, सैर- सपाटा, ठहरने की व्यवस्था, आने-जाने का किराया, सत्ता का सान्निध्य, साहित्कारों को और चाहिए ही क्या ! सबने ‘फ्री-फंडिया-जालिया इंडिया’ की जय बोली और आने की स्वीकृति दे दी।
स्टेशन पर सा.स. (साहित्य सम्मेलन) का बैज लगाए कार्यकर्ता लेखकों के स्वागत के लिये तैनात थे। परिचर्चा में तीन प्रकार के लेखक पधारे। एक सिर्फ लेखक, दूसरे अकादमी लेखक, तीसरे संपादक-लेखक। हर कागज काला करनेवाला अपने को लेखक कहलवाने का अधिकार रखता है। अकादमिक लेखक का दर्जा कुछ ऊँचा है। वह धंधे से लेक्चरर-प्रोफेसर है, पर पढ़ने-पढ़ाने से हड़ताल पर रहता है और हर विधा की पड़ताल में अपने समय का सदुपयोग करता है। संपादक लेखक का कहना ही क्या। वह कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य सब में अपने समय का शिखर पुरुष है। यह साहित्य में इक्कीसवीं सदी के नए संपादकों की ऐसी प्रजाति है जो एक-दूसरे को छापती है और अपने संपर्कों के सेंसर से कभी आगे नहीं बढ़ती है।
लेखक ट्रेन से यों चोरी-छिपे उतरे कि कहीं कोई किसी के सफर के क्लास की असलियत न भाँप ले और मुसकराते हुए सा स. कार्यकर्ताओं की ओर बढ़ लिये। दोनों संपादक- लेखक ट्रेन रुकने के बाद आराम से ए.सी. फर्स्ट के दरवाजे पर इस अदा से खड़े हो गए जैसे नेता-मंत्री स्वागत के लिये लाई गई भाड़े की भीड़ को माला पहनाने और नारे लगाने का मौका देते हैं। सामान्य और अकादमिक लेखकों ने उन्हें पहचाना और सलामी दी। देखा-देखी सा. स. के कार्यकर्ता भी वहाँ लपके।
एक दूसरे से जानना चाहा, ‘‘क्या यह कोई खास हैं ?’’
उसने फुसफुसाया, ‘‘दिखने में तो दूसरे चिड़ीमारों जैसे हैं।’’
तभी तीसरे ने भी लेखक से प्राप्त जानकारी के आधार पर उसका शंका-समाधान किया, ‘‘अरे यार ! यह तो संपादक हैं।
संपादकों को देख उनकी पत्रिका के स्थानीय संवाददाता भी दौड़ आए और बैग ढोकर उन्हें टैक्सी से पाँचतारा होटल ले उड़े। लेखक टापते रहे गए। पता लगा कि एक का गवर्नर से साक्षात्कार है, दूसरे का मुख्यमंत्री से।
परिचर्चा-स्थल पर बड़े-बड़े बैनर सजे थे ‘प्रगतिशील मोरचे के तत्त्वावधान में- ‘आधुनिक युग में साहित्य की प्रासंगिकता’ पर आयोजित अखिल भारतीय गोष्ठी।’ मोरचे के कर्ता-धर्ता, आयोजक और अतिथि-लेखक पधार चुके थे। दफ्तर जानेवाले बैनरों पर नजर डालते और किसी नये तमाशे की उम्मीद में गोष्ठी-स्थल की श्रीवृद्धि में शरीक हो जाते। पान की दुकान के ठलुओं ने सुना कि मंत्री मुख्यमंत्री आने वाले हैं। उन्होंने भी पान दाबा और पीक की पिचकारी चलाते साहित्यिक अभियान में योगदान देने आ पहुंचे।
आयोजन स्थल को देखकर लग रहा था कि भारत निठल्लों का हो न हो, दर्शकों का देश जरूर है। चाहे दुर्घटना हो या मारपीट, कार बाजार हो या पुस्तक मेला, मंत्री का भाषण हो या यूनियन के नेता का अनशन-सब जगह मजमा लग जाता है।
समान विचार यानी एक जैसे दुःख-दर्दवाले कोई मोटा मूँजी फाँसते हैं जो इस राष्ट्रीय रुदाली समारोह के सावन में खान-पान की हरियाली ला सके। साहित्य का गिरता स्तर उठाना एक दुष्कर कार्य है। इसके लिये रहने को वातानुकूलित कमरा, घूमने को कार, कंपनी को कन्या, पीने को स्कॉच और खाने को नॉन-वेज होना-ही-होना। जब बड़ा लेखक इनमें आकंठ डूबता है तो साहित्य का स्तर उठता है, जब इनसे वंचित रहता है तो स्तर गिरता है।
हमारे शहर में इधर साहित्य का स्तर दिनो-दिन गिर रहा है। एक कब्र में पैर लटकाए बड़े लेखक को पुरस्कारों का अजीर्ण हो चुका है, पर वह दुःखी है। सरकार साहित्यकारों की कद्र नहीं करती है। उसे साहित्य की समझ नहीं है, वरना वह आज तक परम सम्मान के बगैर रहते क्या ! उनकी चिन्ता अपनी नहीं है, सम्मान की है। उस सम्मान की कद्र कौन करेगा जिसे उन्होंने सुशोभित नहीं किया है।
अपने नगर में महान लेखकों का अंबार है। दूसरे को शिकायत है कि उन्हें पदम मिला तो, पर सिर्फ ‘श्री’ क्यों मिला, जबकि उनकी हैसियत किस ‘भूषण’ और रत्न’ वाले से कम है ! अपन ने सुना था कि रचनाकार दूसरों के दुःख-दर्द को शब्द देते हैं। हमने गलत सुना होगा। हमारे स्वनामधन्य लेखकों की अपनी निजी पीड़ा है। सब उसमें खुशी-खुशी खोए हैं, दुनिया-जहान के दर्द से उन्हें लेना ही क्या है !
एक और कवि हैं। उन्हें दूसरों से गहरा ताल्लुक है। उन्होंने कवि-सम्मेलनों में रोकर, गाकर और चुटकुले सुनाकर तीन-तीन मकान खड़े किए हैं। तीनों किराए पर हैं। वह गैरों के पास महीने में एक बार नियम से जाते हैं। एक चुटकला ‘फ्री’ में सुनाते हैं और किराया कैश में लाते हैं।
दरअसल जब से एक आयोजक ने चैक का चूना लगाया है (चैक ‘बाउंस’ कर गया), वह केवल कैस में यकीन रखते हैं। अधिकतर भारतीयों के सामूहिक सोच की तरह उनके व्यक्तिगत अर्थतंत्र में भी आयकर एक अर्थ की देनदारी है, जिसे सरकारी अफसर, मंत्री और नेता अपने ऐशो-आराम के लिये वसूलते हैं। वह इनकी फिजूलखर्ची में क्यों अपनी रोने-गाने की गाढ़ी कमाई गँवाए।
किराए और कवि-सम्मेलन की कमाई से उनका जीवन आराम से गुजर रहा था एक दिन हादसा हो गया। आयकर विभाग के निरीक्षक के बच्चे का जन्मदिन था। उसने उन्हें सादर आमन्त्रित किया। शादी-ब्याह, जनेऊ, जन्मदिन, अफसरों के डिनर आदि पर वह निःशुल्क लोगों का मनोरंजन कर अपना सामाजिक दायित्व निभाते आए हैं। उस दिन उन्हें एक कमाऊ कवि-सम्मेलन में जाना था। अर्थ कमाने का अवसर गँवाने का अनर्थ वह कैसे करते ! कविजी ने क्षमा माँगी, निरीक्षक ने जिद की। उसके बड़े अफसर आने वाले थे। निरीक्षक को उन्हें अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक सुरुचि से प्रभावित करना था। कवि ने ‘हाँ-हाँ’ कर निरीक्षक को टाला।
उनके न जाने से निरीक्षक के अहम को ठेस लगी। अपने अधिकारियों के आगे उसकी हेठी हुई। उसने अपने रामबाण का इस्तेमाल किया। कवि के काले धन की फर्जी शिकायत करवाई। अधिकारी के पास उनके घर ‘रेड’ करने की फाइल भेजी। जब तक सत्ता के नेता का नाम न हो, अफसर नीचेवालों के सुझाव पर सिर्फ चिड़िया बनाते हैं। खाना तो मिल-जुल के ही है। कविजी के यहाँ छापा पड़ा। आठ-दस लाख का कैश, फोन, कार, जेवर, घर सबकी छानबीन हुई। केस बना। पर आयकर निरीक्षक को निराशा ही हाथ लगी।
यकायक कविजी की फीस और सामाजिक रुतबा बढ़ गया। अब वह पूँजीपतियों, मंत्रियों, उद्योपतियों जैसे आदरणीयों की श्रेणी में शामिल हैं। साहित्यिक जगत में उनकी कीर्ति में चार चाँद लगे हैं। प्रतियोगी कवि सिर्फ हाथ मलते हैं। अब अगर औरों के घर रेड हुई तब भी रहेंगे तो दूसरे नंबर पर ही। पहले नंबर की बाजी तो हमारे शहर के कविजी के हाथ लग चुकी है।
फिर भी इस दुर्घटना से कवि उदास हैं। कर और फाइल की संभावना, वकील का खर्चा, इधर-उधर की दौड़-भाग से वह त्रस्त है। सबसे हृदय-विदारक खतरा भी तो नकदी जाने का है।
सारे बड़े लेखक एक दिन मिले तो स्वाभाविक था कि वह साहित्य के आसन्न संकट से दुखी हों। कविजी ने अपनी व्यथा व्यक्त की-
‘‘सरकार हाथ धोकर साहित्य के पीछे पड़ी है। मुझे झूठे केस में फँसा दिया। मेरा गुनाह इतना है कि मैं अफसरों के दरबार में हाजिरी नहीं बजाता हूँ।’’
पद्म सम्मान मुखर हुआ- ‘‘साहित्यकारों का कोई सम्मान नहीं है।’’
पद्म अभाव के पीड़ित का निराश स्वर फूटा - ‘‘टी.वी. युग में अब पाठक ही कहाँ बचे हैं !’’
सबने एक राय से निश्चित किया कि आधुनिक युग में साहित्य की प्रासंगिकता पर एक लेख अखिल भारतीय परिचर्चा आयोजित की जाए। चर्चा खर्च की हुई। कवि ने दलित मुख्यमंत्री को काफी चुटकुला-साहित्य सुनाकर उनका मनोरंजन किया था। उन्होंने तपाक से प्रस्ताव रखा, ‘‘मुख्यमंत्रीजी की साहित्य में काफी रुचि है। उनसे उद्घाटन करवाते हैं। एक-दो लाख तो मिल ही जाएँगे। ठहरने की व्यवस्था भी अतिथि-ग्रह में हो जाएगी। हम लोगों के सम्मिलित प्रयास से चार-पांच लाख इकट्ठे करना कौन मुश्किल है ! आखिर अपना शहर हिन्दी क्षेत्र की राजधानी है।’’
सब मगन थे। अपनी जेब भरने का कुछ-न-कुछ डौल तो लग ही जाएगा। जिनको बुला रहे हैं वह सबके सब नाशुक्रे हैं, फिर भी अपने शहर में आयोजन किया तो उनको भी आमंत्रित करेंगे। शिक्षा क्षेत्र में एक-दूसरे को परीक्षक बनाने की परंपरा के समान पारस्परिक पीठ खुजाई साहित्य में भी एक विकसित कला का दर्जा पा चुकी है। जब तक जेब, गुट और ख्याति को खतरा न हो हर साहित्यकार अपनी साहित्यिक भाई-बिरादरी का सोचता है।
राजनेताओं में भी समानता है। उनका सोच केवल वोट-केंद्रित है। सामाजिक विद्वेष बढ़े तो बढ़े; देश, संविधान, सिद्धांत भाड़-चूल्हे में जाए नेता की चिंता केवल अपना वोट बैंक बढ़ाने की है। मुख्यमंत्री से साहित्य के महारथी मिले तो उन्होंने तत्काल इस साहित्य सम्मेलन के उद्घाटन की स्वीकृति ही न दिया। वह जानते हीं दी अपनी ओर से भरपूर मदद का आश्वासन भी हैं कि साहित्यकार किसी के सगे नहीं हैं, पर वोट बैंक में अगर इफाजा हो गया तो बुरा क्या है-
‘‘आप लोगों ने आने की कृपा की, हम आपके आभारी हैं। हमारा सपना तो सूबे का विकास है। साहित्य आगे बढ़ेगा तो समाज भी तरक्की करेगा। वह क्या कहते हैं कि जहां न पहुँचे रवी, वहाँ पहुँचे कवी। आप सब तो पहुँचे हुए लोग हैं जितना हो सकेगा, हम करेंगे।’’
जहां पहुँचे हुए महाराथी लौटे तो प्रसन्न थे। जनता के पैसे को उड़ाने में मुख्यमंत्री वचन का बेहद पक्का है। अगर कहता है तो करता भी है। अखिल भारतीय साहित्यक गोष्ठी में भाग लेने के लिये सबने अपने-अपने गुट के खास वफादारों को याद किया। दो दिन की बहस, भरपूर प्रचार, लंच-डिनर, सैर- सपाटा, ठहरने की व्यवस्था, आने-जाने का किराया, सत्ता का सान्निध्य, साहित्कारों को और चाहिए ही क्या ! सबने ‘फ्री-फंडिया-जालिया इंडिया’ की जय बोली और आने की स्वीकृति दे दी।
स्टेशन पर सा.स. (साहित्य सम्मेलन) का बैज लगाए कार्यकर्ता लेखकों के स्वागत के लिये तैनात थे। परिचर्चा में तीन प्रकार के लेखक पधारे। एक सिर्फ लेखक, दूसरे अकादमी लेखक, तीसरे संपादक-लेखक। हर कागज काला करनेवाला अपने को लेखक कहलवाने का अधिकार रखता है। अकादमिक लेखक का दर्जा कुछ ऊँचा है। वह धंधे से लेक्चरर-प्रोफेसर है, पर पढ़ने-पढ़ाने से हड़ताल पर रहता है और हर विधा की पड़ताल में अपने समय का सदुपयोग करता है। संपादक लेखक का कहना ही क्या। वह कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य सब में अपने समय का शिखर पुरुष है। यह साहित्य में इक्कीसवीं सदी के नए संपादकों की ऐसी प्रजाति है जो एक-दूसरे को छापती है और अपने संपर्कों के सेंसर से कभी आगे नहीं बढ़ती है।
लेखक ट्रेन से यों चोरी-छिपे उतरे कि कहीं कोई किसी के सफर के क्लास की असलियत न भाँप ले और मुसकराते हुए सा स. कार्यकर्ताओं की ओर बढ़ लिये। दोनों संपादक- लेखक ट्रेन रुकने के बाद आराम से ए.सी. फर्स्ट के दरवाजे पर इस अदा से खड़े हो गए जैसे नेता-मंत्री स्वागत के लिये लाई गई भाड़े की भीड़ को माला पहनाने और नारे लगाने का मौका देते हैं। सामान्य और अकादमिक लेखकों ने उन्हें पहचाना और सलामी दी। देखा-देखी सा. स. के कार्यकर्ता भी वहाँ लपके।
एक दूसरे से जानना चाहा, ‘‘क्या यह कोई खास हैं ?’’
उसने फुसफुसाया, ‘‘दिखने में तो दूसरे चिड़ीमारों जैसे हैं।’’
तभी तीसरे ने भी लेखक से प्राप्त जानकारी के आधार पर उसका शंका-समाधान किया, ‘‘अरे यार ! यह तो संपादक हैं।
संपादकों को देख उनकी पत्रिका के स्थानीय संवाददाता भी दौड़ आए और बैग ढोकर उन्हें टैक्सी से पाँचतारा होटल ले उड़े। लेखक टापते रहे गए। पता लगा कि एक का गवर्नर से साक्षात्कार है, दूसरे का मुख्यमंत्री से।
परिचर्चा-स्थल पर बड़े-बड़े बैनर सजे थे ‘प्रगतिशील मोरचे के तत्त्वावधान में- ‘आधुनिक युग में साहित्य की प्रासंगिकता’ पर आयोजित अखिल भारतीय गोष्ठी।’ मोरचे के कर्ता-धर्ता, आयोजक और अतिथि-लेखक पधार चुके थे। दफ्तर जानेवाले बैनरों पर नजर डालते और किसी नये तमाशे की उम्मीद में गोष्ठी-स्थल की श्रीवृद्धि में शरीक हो जाते। पान की दुकान के ठलुओं ने सुना कि मंत्री मुख्यमंत्री आने वाले हैं। उन्होंने भी पान दाबा और पीक की पिचकारी चलाते साहित्यिक अभियान में योगदान देने आ पहुंचे।
आयोजन स्थल को देखकर लग रहा था कि भारत निठल्लों का हो न हो, दर्शकों का देश जरूर है। चाहे दुर्घटना हो या मारपीट, कार बाजार हो या पुस्तक मेला, मंत्री का भाषण हो या यूनियन के नेता का अनशन-सब जगह मजमा लग जाता है।
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