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काँच की दीवार

सुचित्रा भट्टाचार्य

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6071
आईएसबीएन :978-81-8143-660

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स्त्री के अन्तर्द्वंद्व, संघर्ष, कल्पना, विचलन और भावनाओं को व्यक्त करता सुप्रसिद्ध बांग्ला लेखिका सुचित्रा भट्टाचार्य की कलम से एक रोचक उपन्यास...

Kanch Ki Deevar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्त्री के अन्तर्द्वंद्व, संघर्ष, कल्पना, विचलन और भावनाओं को व्यक्त करता यह उपन्यास अपने विन्यास, कसे हुए शिल्प तथा बहती हुई भाषा के कारण बेहद पठनीय रचना बन पडा़ है। उपन्यास में जया एक ऐसी स्त्री पात्र है जिसका पति सुवीर उस पर कई तरह के आरोप लगाकर त्याग चुका है। जया ने आत्मसंघर्ष, जद्दोजहद और आत्मसंमान के साथ जीवन जीते हुए अपनी बेटी वृष्टि को बड़ा किया है। वो अठारह वर्ष की हो चुकी है और यहाँ से नये कथासूत्र जुडते हैं। यहाँ से वृष्टि की आमद होती है वृष्टि एक प्रकार से हमारे समय की आधुनिक युवती का प्रतिनिधित्व कराती है। उसके सपने हैं। उसकी मित्र-मंडली है। उसकी निजता है। वह अपनी उपस्थिति में कोई हस्तक्षेप पसन्द नहीं करती।

सुप्रसिद्ध बांग्ला लेखिका सुचित्रा भट्टाचार्य ने माँ-बेटी के बीच जो कथानक बुना है, वह अपने पाठकों को तो बाँधे रखता ही है, दो समय अन्तरालों अथवा कहें कि माँ-बेटी के बीच टकराव और आत्मीयता का मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय ताना-बाना भी है।

 

काँच की दीवार
1

नींद टूटने के बाद जया काफी देर तक बिस्तर पर चुपचाप पड़ी रही। यह उसके ध्यान का वक्त है। हर रोज वह इसी तरह आँखें मूँदकर लेटे-लेटे, अपने को कुरेदने की कोशिश करती है। कल रात से ही उसके दिमाग में एक तस्वीर पकड़ में आते-आते, कही छूट जाती है। जाने कहाँ तो, कोई बड़ी-सी दरार रह जाती है। कहाँ तो है यह दरार ? कहाँ है ? तस्वीर के विन्यास में ? या रंगों में। जया ने अपनी कल्पना में नए सिरे से उन रंगों को सजाने की कोशिश की।

अंदर पैसेज में टेलीफोन बज उठा। बजता रहा। बजता ही रहा। चूँकि वह बेहद अनमनी थी, इसलिए पहले तो उसे लगा कि बाहर कोई दरवाजे पर कॉलिंग-बेल बजा रहा है। एक-दो बार घंटी सुनने के बाद उसकी गलतफहमी टूटी। इतनी सुबह-सुबह टेलीफोन पर कौन आवाजें दिए जा रहा है ? दिन की शुरुआत में ही बाहरी लोगों का यूँ आवाजें देना, उसे बिल्कुल पसन्द नहीं है।

मशीनी झंकार, तीव्र से तीव्रतर हो उठी। फोन कोई उठा क्यों नहीं रहा है ? सुधा कहाँ गई ? जया झुँझलाते हुए बिस्तर पर उठ बैठी। अनजाने में ही उसकी निगाह, दीवार पर टँगी, पुरानी जर्मन घड़ी की तरफ जा पड़ी। सात बजकर दस मिनट हुए थे, यानी सुधा बाजार गई है। सुबह किसी के बिस्तर छोड़ने से पहले ही सुधा घर के लिए जरूरी सौदा-सुलुफ बाजार से ले आती है। कभी-कभार बबलू की नींद जरूर खुल जाती है, लेकिन जब तक उसे उठाकर बैठाया न जाए, बाबूसाहब से खुद हिला-डुला भी नहीं जाता। और वृष्टि ? वह तो हरगिज नहीं उठती।

साड़ी का आँचल सँभालते हुए, जया कमरे से बाहर निकल आई।
काफी विरस मूड़ में उसने फोन का रिसीवर उठाया।
‘‘हलो....’’
दूसरे सिरे पर पल भर की चुप्पी।
उसके बाद स्वर फूटा, ‘‘मैं हूँ, सुवीर ! सुवीर बोल रहा हूँ।’’
आज इतने सवेरे-सवेरे सुवीर ? क्यों जया ईषत् ठिठक गई। अगले ही पल उसे याद आ गया। आज वृष्टि का जन्मदिन है। हर साल ही जन्मदिन पर, बेटी के जागने से पहले सुवीर का फोन आता है।

‘‘वृष्टि अभी तक नहीं जागी ?’’
जया के सीने में बेवजह ही गहरी सी हूक उमड़ आई। सुबह-सुबह अचानक ही सुवीर की आवाज सुनाई दी, क्या इसलिए ? या इसलिए कि आज वृष्टि का जन्मदिन है ? जया ठीक-ठीक समझ नहीं पाई। कभी-कभी खुद अपना मन भी किस कदर अनजान-अचीन्हा लगता है। उसे संयत होने में कई सेकेंड लग गए। फिर भी आवाज का भारीपन नहीं मिटाया जा सका।
‘‘रुको, देखती हूँ। लगता है, अभी भी सो रही है।’’

इतना कहकर भी, वह फोन कुछेक पल कानों में ही लगाए रही। सुवीर क्या और कुछ सभी कहेगा ? और कुछ नहीं, तो महज कुशल-समाचार ही पूछ लेता। सिर्फ दो छोटे-छोटे शब्द-कैसी हो ? दो परिचित इंसानों का मामूली-सा सौजन्य विनिमय ! न्ना ! फोन अगर जया उठाती है, तो सुवीर कभी गैरजरूरी बात नहीं करता। जरूरत भर के अलावा, वह एक भी वाक्य फिजूल खर्च नहीं करता। खैर, बातों की फिजूलखर्ची वह करता ही कब था ? वह तो हमेशा से ही आत्मसर्वस्व रहा है ! आत्मकेन्द्रित !
जया ने चुपचाप रिसीवर नीचे रख दिया। उस वक्त समूचा घर, गहरी नींद में बेहोश था ! चारों तरफ ऐसा घोर सन्नाटा कि अपनी साँसों की आवाज साफ सुनाई दे रही थी। चारों तरफ चूँकि और-और घर मकान खड़े थे, इसलिए पैसेज में ऐसे भी उजाला काफी कम था। खिड़की दरवाजे-खुले हों, तो भी थोड़ा-बहुत उजाला महसूस होता था। जब माँ-पापा जिन्दा थे। तब छोटे-छोटे हाल साइज का यह पैसेज बिल्कुल खाली ही रहता था। अब जया ने इस पैसेज को अपने मन-मुताबिक सजा लिया है। चूँकि यहाँ जरा अँधेरा रहता है, इसलिए ज्यादा कुछ यहाँ नहीं रखा है। पैसेज के बीचोंबीच, संगमरमर की होल टेबल पर, चीनी मिट्टी पर चाइनीज पेंटिंग किया हुआ, सिर्फ एक फूलदान। इधर-उधर बिखरे हुए पीतल के गमले में, बहारी जूनियर, जेड, मनेस्टरिया। दीवार पर भी ओल्ड मास्टर्स की एक पेंटिंग। वैन गॉथ के सूर्यमुखी के खेत। इतना पीला रंग की अचानक निगाह डालें तो आँखें चौंधिया जाएँ। इस तस्वीर की वजह से ही पैसेज जरा उजला-उजला लगता है।

मौका पाते ही, निखिल व्यंग्य करता है, तेरी यह हर चीज बस, एक-एक की तादाद में रखने की आदत, जिसे शगल भी कह सकते हैं, आखिर कब जाएगी ? अभी भी ऐसी एकाकिनी, इतना शोकाकुल भाव आखिर क्यों है ?
इतना पुराना....इतना अंतरंग दोस्त होने के बावजूद, वह कभी-कभी यूँ अचानक ही ऐसा खोंचा क्यों मारता है ?
जया एकदम से भड़क जाती है, ‘‘यह हर किसी के व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और चुनाव का मामला है। इसमें तू और कोई इशारा क्यों खींच लाता है ?’’

खैर, सुनाने को तो वह सुना देती है, मगर मन ही उसे निखिल के ही मंतव्य की गूँज सुनाई देती है। इंसान का अतीत, कोई न कोई छाया तो डालता ही है। इंसान चाहकर भी उस छाया को कहाँ मिटा पाता है।

पैसेज से गुजरकर, बेटी के कमरे में उढ़का हुआ दरवाजा खोलते ही, जया की छाती धक् से रह गई। वृष्टि कमरे में नहीं थी।

उसकी आँखों के सामने, सिर्फ बेतरतीब, खाली कमरा, आधे उजाला और आधे अँधेरे के झुटपुटे में, वृष्टि की जैसी-तैसी बिखरी हुई किताबें, गीतों के कैसेट, जूते। लकड़ी के बकसे पर अनगिनत कपड़े-लत्तों के बेतरतीब ढेर ! रंगीन सुजनी पलंग से झूलती हुई। सुवीर ने उसे जो विदेशी वाकमैन दिया था, विध्वस्त हालत में, मुँह के बल औंधा पड़ा था। अचानक नजर डालें, तो ऐसा लगेगा, मानो कोई अपरिचित डाकू समूचा कमरा तहस-नहस करके नौ-दो ग्यारह हो गया है।

जया की दहशतभरी निगाहें उस सूने कमरे में कई-कई बार चक्कर लगाती रहीं। समूचे कमरे, वार्डरोब, दीवार, दरवाजे पर-हर ओर, कतार-दर-कतार, रंग-बिरंगे पोस्टर ! हँसता हुआ बोरिस बेकर, कपिल देव, सुन्दरी मेडोना, छलनामयी सामंथा फॉक्स, सचिन तेन्दुलकर, हाथ में गिटार लिए, जॉर्ज माइकेल। इसके अलावा भी ढेर-
ढेर पोस्टर्स, जया उन्हें नहीं पहचानती थी। पोस्टरों से चारों तरफ की दीवार बिल्कुल ढँक गई थी। बचपन से ही अपने प्रिय लोगों के विचित्र-विचित्र पोस्टर लगाने का अजीब नशा है उसे ! उफ !
वृष्टि के बिस्तर के सिरहाने की टेबल पर मॉस्क्यूटो रिपेलेंट की लाल-लाल आँखें अभी तक स्थिर घूर रही थीं। पश्चिम की खिड़की के पेल्मेट से झूलते हुए दोनों पर्दों और बंद काँच पर भोर के उजाले का आभास ! बेचैन कर जानेवाली यादों की तरह ! मनोरम, मगर उदास !
झुटपुटा उजाला, रंगीन पोस्टर, हरे रंग के पर्दे-सब मिलाकर, पूरे दृश्य का एक अलग ही आकर्षण है। लेकिन यह मंजर, इस वक्त जया को खींच नहीं पाया।

यह लड़की गई कहाँ ? इस वक्त तो वह नींद से कभी जागती भी नहीं। जया तेज-तेज कदमों से अंदर पैसेज में आई और बाथरूम की तरफ बढ़ गई। बाथरूम का दरवाजा खुला हुआ था। वृष्टि वहाँ भी नहीं थी। जरूर वह कहीं बाहर निकली है या फिर छत पर गई है। अभी कुछ दिनों पहले तक, वह छत पर घंटों अकेली खड़ी रहती थी।

जया उस पर गुस्सा किया करती थी, ‘‘न लिखना, न पढ़ना, जब देखो वृष्टि छत पर खड़ी रहती है, तुम लोग जरा डाँट-डपट नहीं कर सकतीं, माँ ?’’
मृणमयी का जवाब होता था, ‘‘हर वक्त खिचखिच मत किया कर। लिखती-पढ़ती तो वह ठीकठाक है, वर्ना इतना बढ़िया रिजल्ट कैसे करती ? अरे, छत पर खड़ी-खड़ी चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखना, उसे भला लगता है। मैं उस पर भी रोक लगा दूँ ?’’

वहीं लड़की आजकल घर में टिकती ही कितनी देर है, जो वह चारों तरफ की दुनिया पर नजर डालेगी ? जरा ऊँची क्लास में चढ़ते ही, छत पर चढ़ने की उसकी आदत चली गई। अब तो जितनी देर घर में वह रहती है, उसके कमरों में विदेशी गानों का झन्न-झन्न शोर गूँजता है या नस-नस खिंचने वाली अंग्रेजी थ्रिलर पढ़ती रहती है। आजकल के बच्चों की जिन्दगी से लाज-हया तो धीरे-धीरे निश्चिह्न हो गई है। वृष्टि भी उसकी व्यतिक्रम नहीं थी। हालाँकि जया के माँ-पापा के निधन के पहले, यह लड़की कितनी निरीह और शांत किस्म की थी। जाने कब से तो वृष्टि बदल गई थी ! एक के बाद एक, जया के माँ-बाप के निधन के बाद ? या सुवीर के विवाह कर लेने के बाद ? इन दिनों उसकी भाव-भंगिमा में जाने कैसी तो दबी-दबी उग्रता प्रकट होने लगी है !
छत तक चढ़ते हुए, जया की निगाह सीढ़ी के लैंडिंग में टँगे, अपने बनाये हुए किसी पुराने लैंडस्कोप पर पड़ गई। पेंटिंग पर खासी धूल जम चुकी थी। आँखों में उँगली घुसेड़कर न दिखाओ, तो सुधा जो कुछ भी नजर नहीं आता। आज सुधा पर थोड़ी सी डाँट-डपट जरूरी है। इतनी काहिल क्यों ? इतनी लापरवाही ?

छत पर कदम रखते ही, जया को वृष्टि नजर आ गई। वह लड़की रेलिंग से टिकी, बेसुध की तरह एकटक सामने के पार्क पर नजरें गड़ाए खड़ी थी। पल भर के लिए, जया मानों पत्थर की बुत बन गई। स्थिर ! विह्नल ! उल पलों में माँ नहीं, मानों कोई अपरिचित औरत, किसी दूसरी भरी-पूरी औरत को देख रही थी। विराट आसमान के नीचे, छत पर अकेली खड़ी, यह जवान और क्या जया की ही बेटी है ? वृष्टि पीछे से कितनी बड़ी और सयानी नजर आ रही थी।
जया ने सकपकाई आवाज में सूचना दी, ‘‘वृष्टि तुम्हारा फोन है।’’
वृष्टि के कानों तक उसकी आवाज पहुँची ही नहीं।
जया ने दुबारा जोर से अपना वाक्य दुहराया।
‘‘एइ वृष्टि, तेरे बाबुम का फोन है- ’’
वृष्टि ने पलटकर देखा। निगाहे उदास और भावलेशहीन ! जया अवाक् ! बाबुम का नाम सुनते ही, बेटी की आँखे चमक उठती थीं। आज क्या हो गया ?
वृष्टि धीमी चाल से सीढ़ियाँ उतरने लगी। जया पीछे से अपनी बेटी को निहारती रही। उसकी बेटी बेहद खूबसूरत निकली है। नरम-नाजुक ! गुलाबी ! सिर पर घने-घने बाल, आँख की पँखुडियाँ श्यामल ! नन्हा-सा चिबुक ! भरे-भरे गाल। काफी रेनोया की पेंटिंग की तरह । हाँ, गढ़न जरूर धान-पान जैसा है। वैसे उसका कद खास लंबा नहीं है। इसलिए वह ज्यादा दुबली नहीं लगती।

सुवीर की माँ कहाँ करती थी, ‘‘मेरी पोती का गढ़न बहूरानी जैसा होगा और चेहरा, देह का रंग सुवीर जैसा होगा।’’
जया के पापा, प्रयतोष, उनकी यह बात सुनकर काफी मजा लेते थे।
‘‘पता नहीं, कैसे तो आप लोग, इस नन्ही-सी बच्ची के चेहरे का भावी गढ़न का पहले से ही अंदाजा लगा लेती हैं। मुझे तो भई, इस उम्र के सारे बच्चे एक जैसे लगते हैं।’’
उतनी-सी शिशु, देखते ही देखते, जाने कब तो इतनी बड़ी हो गई। अभी भी उसी दिन तो तिल-तिल करके, जया की कोख में उसे आकर लिया था। अदृश्य तूलिका से जया ने उसकी आँखें आँकीं, चेहरे को आकार दिया। लिओनार्दो की मोनालिसा से, उसकी सृष्टि ही क्या कम है।

वही वृष्टि एक-दो-तीन करके, अब पूरे अठारह साल की हो गई है।
अठारह ! अठारह शब्द झन्न से दिमाग में क्यों बज उठा ?
......अलीपुर जज कोर्ट के बरामदे में खड़े-खड़े, उँगली उठाकर, सुवीर ने जया को धमकी दी थी, ‘‘देख लूँगा ! मेरी बेटी को अठारह साल की हो जाने दो, फिर मैं देख लूँगा, तुम उसे अपने पास कैसे रोक सकती हो ?’’
.........सुवीर के साथ लंबी लड़ाई के बाद, उसी दिन, सद्य: कस्टडी के मुकदमे के बारे में फैसला सुनाया गया था। हिंस्र आक्रोश से एक-दूसरे पर प्रत्यक्ष रूप से कीचड़ उछालने के कार्यक्रम का उसी दिन अंत हुआ था।

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