कहानी संग्रह >> भार्या भार्यावीरेंद्र जैन
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प्रस्तुत है पुस्तक भार्या ......
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वीरेन्द्र कहानी कहने की अपनी सादगी और किस्सागो शैली के लिए जाने जाते
हैं- उलझाव रहित कथा, उसे प्रस्तुत करने का किस्सागो अंदाज और गिरफ्त में
ले लेने वाली पारदर्शी भाषा। लेकिन यह तो हुआ लेखक का अपना स्थायी भाव।
महत्त्वपूर्ण है एक दूसरी चीज, और यह दूसरी चीज ही इन कहानियों को सामान्य
से अलग कर दुर्लभ बनाती है। यह एक ऐसा समय है जब कनिष्ठ से वरिष्ठ रचनाकार
तक यह मान और मनवा रहे हैं कि कहानियों से चरित्रों की विदाई हो चुकी है-
चरित्रों की विदाई की समवेत सहमति के विरुद्ध इसलिए वीरेन्द्र जैन की
कहानियां एक रचनात्मक क्षमता प्रतिवाद की तरह उपस्थित हैं- रचनात्मक
क्षमता पर नई बहस की अपेक्षाओं और अनिवार्यता के साथ फिर यह भरोसा देती
हुईं कि चरित्र लौट रहे हैं।
धीरेन्द्र अस्थाना (सारिका में)
वीरेन्द्र जैन की कहानियों का तेवर अलग है। मुख्यधारा की बात करें, तो
उनकी कहानियां उससे अलग तरह की हैं। मताग्रही न होने के बावजूद उनके यहां
समाज को परखने की वहीं शिल्प है जो प्रगतिशील लेखकों के पास है।
व्यंग्यधर्मिता उनके गद्य की खास पहचान है। कहानियों में एक खुलापन है जो
सहज ही आकर्षित करता है। कथ्य की ताजगी, विषय की विविधता और
व्यंग्यात्मकता इन कहानियों की कुछ अन्य विशेषताएं हैं।
हेमन्त कुकरेती (समाज कल्याण में)
आज की कहानी
परम दुर्लभ श्रोता-पाठक मित्रो,
मैं दुविधा में हूँ। इस सुविधा में भय कम और आशंका ज्यादा है। भय से तो मैं दो-दो हाथ कर भी लूँ, ऐसा करने में हो सकता है खेत रहूँ, या भगवती बाबू के ‘दो बाँके’ वाले दो-दो हाथ ही मुझमें और जिन अदृश्यों से मैं भयभीत हूँ, उनमें हों। यों मेरे कहने भर से आप उन्हें अदृश्य न मान लीजिएगा। वे तो बाकायदा दृश्यमान हैं। मैं जो उन्हें अदृश्य कह रहा हूँ, वह तो महज अपने मन का भय कम करने के लिए।
आशंका, जो भय से कहीं ज्यादा है, वह यह है कि हो सकता है, ज्यों ही मैं इधर यह कहने का जोखिम उठाऊँ कि आज की हिन्दी कहानी में अनंत संभावनाएँ हैं, उधर से मुनादी हो, सरासर झूठ ! नितांत नासमझ समझभरा आकलन ! हिन्दू कहानी की तमाम संभावनाएँ तो ‘पिछली गर्मियों में ही’ उजागर हो चुकी थीं। कहना न होगा, उसके बाद बची-खुची संभावनाएँ जिसने उजागर कीं, उस कथाकार का निवास-स्थान काशी है, बाकी सब बासी है। यदि उसके बाद भी लिखी गई हिन्दी कहानी में कोई संभावना दिखाई दी होती तो हम कहानी से मुँह फेर कर केवल कविता संग्रहों के ही विमोचन समारोहों में मौखिक चिंतन काहे करते रहे होते ?
मेरी दूसरी आशंका पहली से कहीं ज्यादा गहरी है। इसकी मारक क्षमता भी कहीं अधिक है। इस आशंका को आप चिंताओं में शामिल करने के लिए मैं एक पुराने किस्से से अपनी बात शुरू करना चाहूँगा।
कहते हैं, एक बार एक राजा ने बहुत से बच्चे इकट्ठे किए। उन बच्चों में बहुत से बच्चे साफ-सुथरे, स्वस्थ-सुकुमार दिखाई दे रहे थे। बहुत सों के बारे में सब जानते थे कि वे बुद्धिमान, पढ़ाई में प्रखर, खेलों में निपुण, बड़ों को सम्मान देने के मामलें में संस्कारी हैं। शेष जो बच्चों थे वे ऊपर बताई गई दोनों श्रेणियों से इतर थे। उनकी शरारतें जगजाहिर थीं, सुसंस्कारों का उनसे दूर का भी रिश्ता न था। इनमें कई खासे उम्रदराज को कई अविकसित रह जाने के चलते अपनी उम्र से कहीं छोटे लग रहे थे।
इन तमाम बच्चों के राजदरबार में इकट्ठा करने के बाद राजा ने एक स्त्री को बुलाया। उससे कहा कि इन बच्चों में से जो बच्चा तुम्हें सबसे अच्छा लग रहा हो उसके सिर पर हाथ रख दो। हम उसे राज्य का सबसे सुन्दर बच्चा घोषित करेंगे और मुनादी कर दी जाएगी कि पूरा राज्य स्त्री अपनी जगह से हिली और क्षणांश में उसने तीसरी कोटि के एक बच्चे के सिर पर हाथ जा रखा। राज दरबार में बैठे तमाम सभासद भौचक। उन्हें अपनी आँखों पर यकीन ही न होकर दे। उन्हें लगा, या तो इस स्त्री की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, या इसने राजा के आदेश को ठीक से सुना नहीं है, या फिर इसकी आँखें खराब हो गई हैं।
चूँकि राजा वचन दे चुके थे, सो उसी बच्चे को सबसे सुन्दर बच्चा घोषित कर दिया गया। राजपुरोहित ने उसकी प्रशस्ति में दो-चार श्लोक भी रच दिए।
शुरू-शुरू में लोगों ने असहमियत, हैरानी का भाव दिखाया, लेकिन बार-बार यही ऐलान सुनते-सुनते उन्होंने भी मान लिया कि हाँ यही सबसे सुन्दर बच्चा है। इसे यों ही कह सकते हैं कि उनकी सुंदरता की परिभाषा ही बदल गई।
आप जानना चाहेंगे, उस स्त्री ने उस बच्चे को ही सबसे सुन्दर बच्चा क्यों बताया था, जबकि न वह बुद्धिमान था, न सुंदर-सुकुमार दिखता था, न उसकी शरारतों से वह स्त्री अनभिज्ञ थी ? इतना ही नहीं, अपनी शरारतों और करतूतों के चलते उसे ठीक-ठीक बच्चा भी नहीं माना जा सकता था। केवल वय के, उसके हाव-भाव में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे देखकर उसे बच्चा भी कहा जा सके। सुन्दर या सबसे सुन्दर कहना तो दूर की बात।
फिर भी उस स्त्री ने उसे सबसे सुन्दर बच्चा इसलिए कहा क्योंकि वह उसका अपना जाया बच्चा था।
यही हाल आज की हिन्दी कहानी का भी देखने में आ रहा है।
हिन्दी के कुछ पुराने कथाकार, जिन्हें अंतिम कहानी लिखे तीन से चार दशक हो चुके हैं, उनके पास कुछ पुरानी अप्रकाशित रचनाएँ सुरक्षित हैं। यों कोई भी लेखक अपना लिखा एक भी पन्ना कहाँ हिराने देता है। ये कहानियाँ जब लिखी गईं, तब ‘कमजोर हैं’ ऐसा मानकर नहीं छपवाईं गईं। लगता है ऐसे लेखक अब शोधार्थियों के खोजने के लिए कुछ भी छोड़ कर नहीं जाना चाहते।
अब इतने सोलह सालों बाद जब कहानियाँ चुनने और छापने का दारोमदार ऐसे कथाकारों के हाथ आया है, तभी से वे कर यह रहे हैं कि पहले तो राजा बन कहानियाँ इकट्ठी करते हैं, उनमें एक कहानी अपनी अपनी भी शामिल कर लेते हैं। नई नहीं, उन्हीं ‘कमजोर हैं’ वाले ढेर में से झाड़-पोंछकर निकाली हुई कोई एक।
फिर राजा के स्थान से उतर कर स्त्री का रूप धर उनमें से श्रेष्ठ कहानी का चयन करने का दायित्व निभाते हैं। ऐसे कथाकारों में कुछ तो स्त्रियों के जर्बदस्त पक्षधर हैं। स्त्रियों को इस धरा-धाम पर उस धज-धजा के साथ देखना चाहते हैं जैसी वह न कभी लेखी गई, न देखा गई। यह दीगर बात है कि किसी पहल-वान को ललकारने के लिए जब हंस उड़ते हैं तो ऐसा वाटर बगराते हैं कि उनका वह सम-वय प्रतिद्वंद्वी तो चारों कपड़ें सही सलामत दिखाई देता रहता है लेकिन स्त्री बेवजह निर्वसन और निर्लज्ज दिखाई देने लगती है। यहाँ मैं उनके कहे को उजागर करने से पहले यह भी बता दूँ कि उनके सम-वय ने उन पर भोगी होने की तोहमत नहीं लगाई थी, सुविधा भोगी होने का आरोप लगाया था, ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि वे कोई मर्दाना हुँकार भरते, लेकिन उन्होंने अपनी कलम की नोक पर स्त्री को बींधा और तार-तार कर दिया।
अपने पहल-वान बैरी को ललकारते हुए वह लिखते हैं : ‘‘बुढ़ापे में हर खिलाड़ी स्त्री’’ परम नैतिकतावादी हो जाती है।’’
वह इससे आगे भी बहुत से शब्द-बाण ‘मेरी तेरी उसकी बात’ के बहाने छोड़ते हैं, लेकिन वे सब यहाँ अप्रासंगिक हैं।
उनका उपरोक्त कथन कुछ-कुछ उस कहावत की याद दिलाता है- दो हाथियों की लड़ाई में सबसे ज्यादा कुचली जाती है घास, जिसका उस लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं होता।
मित्रो, इन पंक्तियों को सुनते ही यदि आज के किसी समर्थ कवि-कथाकार का स्मरण हो आया हो और आप मुझे उनका नामोल्लेख किए बिना उनकी मशहूर पंक्तियाँ उद्धृत करने का दोषी मान रहे हों, तो यकीन मानिए मैं विवश हूँ, चाह कर भी यह नहीं कह सकता कि ये पंक्तियाँ मैंने उसकी कविता पढ़ कर याद की हैं। दरअसल उपरोक्त पंक्तियाँ मैंने शब्दश: एक चीनी पुस्तक में पढ़ीं थीं, जिसमें इनसे पहले इतना और लिखा था- एक पुरानी चीनी कहावत है कि दो हाथियों की......वगैरह-वगैरह। ऐसे में आप ही बताइए कि मैं कैसे किसी भी हिन्दी कवि, भले ही गद्य विधा में भी जिसका उदय हो चुका हो, ऐसा कथाकार हो, उसके नाम पर प्रकाश डाल सकता हूँ ?
बहरहाल, तो राजा से स्त्री का रूप धर कर वे कथाकार सबसे सशक्त कहानी, आज की कहानी का चयन करते समय निर्भय होकर अपनी ही कहानी पर वरदहस्त रख देते हैं। फिर राजा बन उसी की सबसे अच्छी कहानी की मुनादी रख देते हैं फिर राजा बन उसी को आज की सबसे अच्छी कहानी की मुनादी ही नहीं करवाते, नामवर राज-पुरोहितलोचकों से यह कहलवाते हैं कि हिन्दी जगत को यही पिछले 55 साल के दौरान लिखी गई राजनीतिक कहानियों में सबसे सशक्त कहानी ‘हासिल’ हुई है।
श्रोता, पाठक यह सब सुन-पढ़ पहले हैरान होते हैं, कि भला यह कैसे हो सकता है ? जिस कहानी में न आज का समय, न आज का समाज, न आज की चिंताएँ, न आज के सरोकार, न आज के सवाल, वह कहा जा रही है आज की कहानी ? संभावनाशील कहानी ? क्या इस ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि को कंप्यूटर पर कंपोज करके, आफसेट मशीन पर छाप देने भर से वह आज की रचना हो जाएगी ? या इससे उलट किसी आधुनिक कहानी को ताड़पत्र पर लिख देने भर से प्राचीन मानी जा सकता है।
फिर भी, जैसा कि उस राजा के राज में हुआ था, अब भी बार-बार, पत्र-पत्रिकाओं के हर अंक में, सभी-गोष्ठियों के हर मंच से वही मुनादी सुनते-सुनते सजग पाठकों को भी अपनी समझ पर भ्रम और उस मुनादी पर भरोसा होने लगा है। नतीजा, उसी तरह की, अपने समय से कटी, कमजोर-सी सैकड़ों कहानियाँ न केवल लिखी जाने लगा हैं बल्कि पत्रिकाओं का ‘सारा आकाश’ घेर रही हैं।
एक ओर आशंका यह है कि कहीं हमारी कहानी विधा उस रास्ते पर न चल निकले जिस हाल-फिलहाल कुछ रचनाकारों ने ही अपनाया हुआ है, यानी किसी और भाषा की रचनाओं को उड़ाकर अपनी भाषा में लिखकर उसे अपनी मौलिक रचना घोषित करना।
हैरानी की बात यह है कि ऐसे रचनाकारों के नाम में उजाले का, कहीं प्रकाशित होते सूर्य का तो कहीं शाम को जलाए जाने वाले स्वदेशी दीपक का उल्लेख होता है, फिर भी वे ऐसा अँधेर करने से पहला जरा भी नहीं सोचते कि भले ही हिन्दी के अधिकांश पाठक चीनी या बग्ला न जानते हों, उनकी कहानियों के पीछे छिपी कहानी को उजागर करने के लिए तो उनके नाम में शामिल उजियारा ही काफी है।
किसी और की रचना से अपनी रचना बुन लेने का खयाल तो मुझे भी बार-बार आया लेकिन ऐसा करना अनैतिक होगा कहीं अधिक यह सोच कर कि यह रचनाकार के साथ ही नहीं रचना के साथ भी पाठक का नहीं चोर का रिश्ता गाँठना कहलाएगा, मैंने अपने इरादे को आकार नहीं लेने दिया।
आप जानना चाहेंगे वह कौन सी कहानी है जिसमें मुझे एक मुकम्मल रचना की संभावना दिखाई दी और जिसने मुझे यह चुनौती दी कि, है कलाकार तो उठा कलम और लिख एक कहानी !
कुछ साल पहले आकाशवाणी इंदौर ने एक कथा पर्व का आयोजन किया था। उसमें हमारे अग्रज कथाकार और पहल सम्मान से सम्मानित स्वयं प्रकाश ने एक कहानी सुनाई थी- नीलकांत का सफर।
कहानी का सार संक्षेप यह है कि एक स्टेशन से चल पड़ी गाड़ी के तीसरे दर्जे के अंतिम डिब्बे में किसी तरह कुछ मजदूर सवार हो गए। डिब्बे में बड़ी अराजकता थी। खिड़कियाँ बन्द और जाम होने से ताजी हवा की आवाजा ही नहीं हो पा रही थी। पहले से विराजमान सवारियाँ मजदूरिनी को तो बैठने की जगह देने को तैयार थीं लेकिन मजदूरों को नहीं। बावजूद इसके कि कई सवारियाँ तो विराजमान ही नहीं सीट को अकेले घेरे लंबायमान थीं।
खैर, मजदूरों ने सबसे पहले तो अपने गैंती-कुदाल से बंद खिड़कियाँ को खोला। डिब्बे में ताजी हवा पहुँची। फिर उनके शरीर सौष्ठव को देख पसरी पड़ी सवारियाँ थोड़ी सिकुड़ी-सिमटीं और देखते ही देखते सब के लिए जगह बन गई। वे मजदूर भाई ही नहीं, और भी जो सवारियाँ खड़ी थीं, खुद नीलकांत जो टायलेट के लगभग भीतरी जगह पा सका था, सीटासीन हो गए।
कहानी सशक्त थी, थी क्या है। भाई स्वयं प्रकाश का सुनाने का ढंग पुरअसर। श्रोता मंत्रमुग्ध। सभी ने बेआवाज परसाई जी के शब्दों में यही कहा होगा- जैसे इनके दिन फिरे, सब के फिरें।
इस कहानी को सुनना था कि मुझे इसमें एक और पुरअवसर कहानी अनलिखी नजर आई। मैंने उसे अब तक क्यों नही लिखा, बता ही चुका हूँ। मैं चाहता हूँ इसमें से
झाँक रही एक और संभावनापूर्ण और चुनौती पूर्ण कहानी भी भाई प्रकाश स्वयं ही लिखें।
अलबत्ता कहानी के एक पाठक के नाते मैं उस कहानी में क्या-क्या वर्णित हुआ देखता चाहता हूँ, यह मैं अभी से बताए देता हूँ।
भाई स्वयं प्रकाश चाहें तो ऐसा कर सकते हैं कि अपने मजदूरों को इस बार अफरा-तफरी में ही सही, जरा रेल के प्रथम श्रेणीयान का वातानुकूलित यान में पठै दें। यों भी ये तमाम यान प्राय: प्लेटफार्म के दरवाजे के ऐन सामने ठहराए जाते हैं। इससे उनके मजदूर खामसाँ गाड़ी के अंतिम डिब्बे तक दौड़ लगाने से बच जाएँगे और रेल छूटने की आशंका भी नहीं रहेंगी।
मैं दुविधा में हूँ। इस सुविधा में भय कम और आशंका ज्यादा है। भय से तो मैं दो-दो हाथ कर भी लूँ, ऐसा करने में हो सकता है खेत रहूँ, या भगवती बाबू के ‘दो बाँके’ वाले दो-दो हाथ ही मुझमें और जिन अदृश्यों से मैं भयभीत हूँ, उनमें हों। यों मेरे कहने भर से आप उन्हें अदृश्य न मान लीजिएगा। वे तो बाकायदा दृश्यमान हैं। मैं जो उन्हें अदृश्य कह रहा हूँ, वह तो महज अपने मन का भय कम करने के लिए।
आशंका, जो भय से कहीं ज्यादा है, वह यह है कि हो सकता है, ज्यों ही मैं इधर यह कहने का जोखिम उठाऊँ कि आज की हिन्दी कहानी में अनंत संभावनाएँ हैं, उधर से मुनादी हो, सरासर झूठ ! नितांत नासमझ समझभरा आकलन ! हिन्दू कहानी की तमाम संभावनाएँ तो ‘पिछली गर्मियों में ही’ उजागर हो चुकी थीं। कहना न होगा, उसके बाद बची-खुची संभावनाएँ जिसने उजागर कीं, उस कथाकार का निवास-स्थान काशी है, बाकी सब बासी है। यदि उसके बाद भी लिखी गई हिन्दी कहानी में कोई संभावना दिखाई दी होती तो हम कहानी से मुँह फेर कर केवल कविता संग्रहों के ही विमोचन समारोहों में मौखिक चिंतन काहे करते रहे होते ?
मेरी दूसरी आशंका पहली से कहीं ज्यादा गहरी है। इसकी मारक क्षमता भी कहीं अधिक है। इस आशंका को आप चिंताओं में शामिल करने के लिए मैं एक पुराने किस्से से अपनी बात शुरू करना चाहूँगा।
कहते हैं, एक बार एक राजा ने बहुत से बच्चे इकट्ठे किए। उन बच्चों में बहुत से बच्चे साफ-सुथरे, स्वस्थ-सुकुमार दिखाई दे रहे थे। बहुत सों के बारे में सब जानते थे कि वे बुद्धिमान, पढ़ाई में प्रखर, खेलों में निपुण, बड़ों को सम्मान देने के मामलें में संस्कारी हैं। शेष जो बच्चों थे वे ऊपर बताई गई दोनों श्रेणियों से इतर थे। उनकी शरारतें जगजाहिर थीं, सुसंस्कारों का उनसे दूर का भी रिश्ता न था। इनमें कई खासे उम्रदराज को कई अविकसित रह जाने के चलते अपनी उम्र से कहीं छोटे लग रहे थे।
इन तमाम बच्चों के राजदरबार में इकट्ठा करने के बाद राजा ने एक स्त्री को बुलाया। उससे कहा कि इन बच्चों में से जो बच्चा तुम्हें सबसे अच्छा लग रहा हो उसके सिर पर हाथ रख दो। हम उसे राज्य का सबसे सुन्दर बच्चा घोषित करेंगे और मुनादी कर दी जाएगी कि पूरा राज्य स्त्री अपनी जगह से हिली और क्षणांश में उसने तीसरी कोटि के एक बच्चे के सिर पर हाथ जा रखा। राज दरबार में बैठे तमाम सभासद भौचक। उन्हें अपनी आँखों पर यकीन ही न होकर दे। उन्हें लगा, या तो इस स्त्री की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, या इसने राजा के आदेश को ठीक से सुना नहीं है, या फिर इसकी आँखें खराब हो गई हैं।
चूँकि राजा वचन दे चुके थे, सो उसी बच्चे को सबसे सुन्दर बच्चा घोषित कर दिया गया। राजपुरोहित ने उसकी प्रशस्ति में दो-चार श्लोक भी रच दिए।
शुरू-शुरू में लोगों ने असहमियत, हैरानी का भाव दिखाया, लेकिन बार-बार यही ऐलान सुनते-सुनते उन्होंने भी मान लिया कि हाँ यही सबसे सुन्दर बच्चा है। इसे यों ही कह सकते हैं कि उनकी सुंदरता की परिभाषा ही बदल गई।
आप जानना चाहेंगे, उस स्त्री ने उस बच्चे को ही सबसे सुन्दर बच्चा क्यों बताया था, जबकि न वह बुद्धिमान था, न सुंदर-सुकुमार दिखता था, न उसकी शरारतों से वह स्त्री अनभिज्ञ थी ? इतना ही नहीं, अपनी शरारतों और करतूतों के चलते उसे ठीक-ठीक बच्चा भी नहीं माना जा सकता था। केवल वय के, उसके हाव-भाव में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे देखकर उसे बच्चा भी कहा जा सके। सुन्दर या सबसे सुन्दर कहना तो दूर की बात।
फिर भी उस स्त्री ने उसे सबसे सुन्दर बच्चा इसलिए कहा क्योंकि वह उसका अपना जाया बच्चा था।
यही हाल आज की हिन्दी कहानी का भी देखने में आ रहा है।
हिन्दी के कुछ पुराने कथाकार, जिन्हें अंतिम कहानी लिखे तीन से चार दशक हो चुके हैं, उनके पास कुछ पुरानी अप्रकाशित रचनाएँ सुरक्षित हैं। यों कोई भी लेखक अपना लिखा एक भी पन्ना कहाँ हिराने देता है। ये कहानियाँ जब लिखी गईं, तब ‘कमजोर हैं’ ऐसा मानकर नहीं छपवाईं गईं। लगता है ऐसे लेखक अब शोधार्थियों के खोजने के लिए कुछ भी छोड़ कर नहीं जाना चाहते।
अब इतने सोलह सालों बाद जब कहानियाँ चुनने और छापने का दारोमदार ऐसे कथाकारों के हाथ आया है, तभी से वे कर यह रहे हैं कि पहले तो राजा बन कहानियाँ इकट्ठी करते हैं, उनमें एक कहानी अपनी अपनी भी शामिल कर लेते हैं। नई नहीं, उन्हीं ‘कमजोर हैं’ वाले ढेर में से झाड़-पोंछकर निकाली हुई कोई एक।
फिर राजा के स्थान से उतर कर स्त्री का रूप धर उनमें से श्रेष्ठ कहानी का चयन करने का दायित्व निभाते हैं। ऐसे कथाकारों में कुछ तो स्त्रियों के जर्बदस्त पक्षधर हैं। स्त्रियों को इस धरा-धाम पर उस धज-धजा के साथ देखना चाहते हैं जैसी वह न कभी लेखी गई, न देखा गई। यह दीगर बात है कि किसी पहल-वान को ललकारने के लिए जब हंस उड़ते हैं तो ऐसा वाटर बगराते हैं कि उनका वह सम-वय प्रतिद्वंद्वी तो चारों कपड़ें सही सलामत दिखाई देता रहता है लेकिन स्त्री बेवजह निर्वसन और निर्लज्ज दिखाई देने लगती है। यहाँ मैं उनके कहे को उजागर करने से पहले यह भी बता दूँ कि उनके सम-वय ने उन पर भोगी होने की तोहमत नहीं लगाई थी, सुविधा भोगी होने का आरोप लगाया था, ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि वे कोई मर्दाना हुँकार भरते, लेकिन उन्होंने अपनी कलम की नोक पर स्त्री को बींधा और तार-तार कर दिया।
अपने पहल-वान बैरी को ललकारते हुए वह लिखते हैं : ‘‘बुढ़ापे में हर खिलाड़ी स्त्री’’ परम नैतिकतावादी हो जाती है।’’
वह इससे आगे भी बहुत से शब्द-बाण ‘मेरी तेरी उसकी बात’ के बहाने छोड़ते हैं, लेकिन वे सब यहाँ अप्रासंगिक हैं।
उनका उपरोक्त कथन कुछ-कुछ उस कहावत की याद दिलाता है- दो हाथियों की लड़ाई में सबसे ज्यादा कुचली जाती है घास, जिसका उस लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं होता।
मित्रो, इन पंक्तियों को सुनते ही यदि आज के किसी समर्थ कवि-कथाकार का स्मरण हो आया हो और आप मुझे उनका नामोल्लेख किए बिना उनकी मशहूर पंक्तियाँ उद्धृत करने का दोषी मान रहे हों, तो यकीन मानिए मैं विवश हूँ, चाह कर भी यह नहीं कह सकता कि ये पंक्तियाँ मैंने उसकी कविता पढ़ कर याद की हैं। दरअसल उपरोक्त पंक्तियाँ मैंने शब्दश: एक चीनी पुस्तक में पढ़ीं थीं, जिसमें इनसे पहले इतना और लिखा था- एक पुरानी चीनी कहावत है कि दो हाथियों की......वगैरह-वगैरह। ऐसे में आप ही बताइए कि मैं कैसे किसी भी हिन्दी कवि, भले ही गद्य विधा में भी जिसका उदय हो चुका हो, ऐसा कथाकार हो, उसके नाम पर प्रकाश डाल सकता हूँ ?
बहरहाल, तो राजा से स्त्री का रूप धर कर वे कथाकार सबसे सशक्त कहानी, आज की कहानी का चयन करते समय निर्भय होकर अपनी ही कहानी पर वरदहस्त रख देते हैं। फिर राजा बन उसी की सबसे अच्छी कहानी की मुनादी रख देते हैं फिर राजा बन उसी को आज की सबसे अच्छी कहानी की मुनादी ही नहीं करवाते, नामवर राज-पुरोहितलोचकों से यह कहलवाते हैं कि हिन्दी जगत को यही पिछले 55 साल के दौरान लिखी गई राजनीतिक कहानियों में सबसे सशक्त कहानी ‘हासिल’ हुई है।
श्रोता, पाठक यह सब सुन-पढ़ पहले हैरान होते हैं, कि भला यह कैसे हो सकता है ? जिस कहानी में न आज का समय, न आज का समाज, न आज की चिंताएँ, न आज के सरोकार, न आज के सवाल, वह कहा जा रही है आज की कहानी ? संभावनाशील कहानी ? क्या इस ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि को कंप्यूटर पर कंपोज करके, आफसेट मशीन पर छाप देने भर से वह आज की रचना हो जाएगी ? या इससे उलट किसी आधुनिक कहानी को ताड़पत्र पर लिख देने भर से प्राचीन मानी जा सकता है।
फिर भी, जैसा कि उस राजा के राज में हुआ था, अब भी बार-बार, पत्र-पत्रिकाओं के हर अंक में, सभी-गोष्ठियों के हर मंच से वही मुनादी सुनते-सुनते सजग पाठकों को भी अपनी समझ पर भ्रम और उस मुनादी पर भरोसा होने लगा है। नतीजा, उसी तरह की, अपने समय से कटी, कमजोर-सी सैकड़ों कहानियाँ न केवल लिखी जाने लगा हैं बल्कि पत्रिकाओं का ‘सारा आकाश’ घेर रही हैं।
एक ओर आशंका यह है कि कहीं हमारी कहानी विधा उस रास्ते पर न चल निकले जिस हाल-फिलहाल कुछ रचनाकारों ने ही अपनाया हुआ है, यानी किसी और भाषा की रचनाओं को उड़ाकर अपनी भाषा में लिखकर उसे अपनी मौलिक रचना घोषित करना।
हैरानी की बात यह है कि ऐसे रचनाकारों के नाम में उजाले का, कहीं प्रकाशित होते सूर्य का तो कहीं शाम को जलाए जाने वाले स्वदेशी दीपक का उल्लेख होता है, फिर भी वे ऐसा अँधेर करने से पहला जरा भी नहीं सोचते कि भले ही हिन्दी के अधिकांश पाठक चीनी या बग्ला न जानते हों, उनकी कहानियों के पीछे छिपी कहानी को उजागर करने के लिए तो उनके नाम में शामिल उजियारा ही काफी है।
किसी और की रचना से अपनी रचना बुन लेने का खयाल तो मुझे भी बार-बार आया लेकिन ऐसा करना अनैतिक होगा कहीं अधिक यह सोच कर कि यह रचनाकार के साथ ही नहीं रचना के साथ भी पाठक का नहीं चोर का रिश्ता गाँठना कहलाएगा, मैंने अपने इरादे को आकार नहीं लेने दिया।
आप जानना चाहेंगे वह कौन सी कहानी है जिसमें मुझे एक मुकम्मल रचना की संभावना दिखाई दी और जिसने मुझे यह चुनौती दी कि, है कलाकार तो उठा कलम और लिख एक कहानी !
कुछ साल पहले आकाशवाणी इंदौर ने एक कथा पर्व का आयोजन किया था। उसमें हमारे अग्रज कथाकार और पहल सम्मान से सम्मानित स्वयं प्रकाश ने एक कहानी सुनाई थी- नीलकांत का सफर।
कहानी का सार संक्षेप यह है कि एक स्टेशन से चल पड़ी गाड़ी के तीसरे दर्जे के अंतिम डिब्बे में किसी तरह कुछ मजदूर सवार हो गए। डिब्बे में बड़ी अराजकता थी। खिड़कियाँ बन्द और जाम होने से ताजी हवा की आवाजा ही नहीं हो पा रही थी। पहले से विराजमान सवारियाँ मजदूरिनी को तो बैठने की जगह देने को तैयार थीं लेकिन मजदूरों को नहीं। बावजूद इसके कि कई सवारियाँ तो विराजमान ही नहीं सीट को अकेले घेरे लंबायमान थीं।
खैर, मजदूरों ने सबसे पहले तो अपने गैंती-कुदाल से बंद खिड़कियाँ को खोला। डिब्बे में ताजी हवा पहुँची। फिर उनके शरीर सौष्ठव को देख पसरी पड़ी सवारियाँ थोड़ी सिकुड़ी-सिमटीं और देखते ही देखते सब के लिए जगह बन गई। वे मजदूर भाई ही नहीं, और भी जो सवारियाँ खड़ी थीं, खुद नीलकांत जो टायलेट के लगभग भीतरी जगह पा सका था, सीटासीन हो गए।
कहानी सशक्त थी, थी क्या है। भाई स्वयं प्रकाश का सुनाने का ढंग पुरअसर। श्रोता मंत्रमुग्ध। सभी ने बेआवाज परसाई जी के शब्दों में यही कहा होगा- जैसे इनके दिन फिरे, सब के फिरें।
इस कहानी को सुनना था कि मुझे इसमें एक और पुरअवसर कहानी अनलिखी नजर आई। मैंने उसे अब तक क्यों नही लिखा, बता ही चुका हूँ। मैं चाहता हूँ इसमें से
झाँक रही एक और संभावनापूर्ण और चुनौती पूर्ण कहानी भी भाई प्रकाश स्वयं ही लिखें।
अलबत्ता कहानी के एक पाठक के नाते मैं उस कहानी में क्या-क्या वर्णित हुआ देखता चाहता हूँ, यह मैं अभी से बताए देता हूँ।
भाई स्वयं प्रकाश चाहें तो ऐसा कर सकते हैं कि अपने मजदूरों को इस बार अफरा-तफरी में ही सही, जरा रेल के प्रथम श्रेणीयान का वातानुकूलित यान में पठै दें। यों भी ये तमाम यान प्राय: प्लेटफार्म के दरवाजे के ऐन सामने ठहराए जाते हैं। इससे उनके मजदूर खामसाँ गाड़ी के अंतिम डिब्बे तक दौड़ लगाने से बच जाएँगे और रेल छूटने की आशंका भी नहीं रहेंगी।
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लोगों की राय
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