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उपन्यास >> यह तो वही है

यह तो वही है

सुधा

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6090
आईएसबीएन :81-88140-86-4

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प्रस्तुत है पुस्तक यह तो वही है .....

Yah To Wahi Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मिश्रित अंतर्वस्तु को लेकर चलने वाले इस उपन्यास में लेखिका सुधाजी का उद्देश्य स्पष्ट है- राज और राजनीति में फैले भ्रष्टाचार का निर्वस्त्रण। यहाँ अंकित किया गया है कि यह भ्रष्टता नई नहीं हैं, इसके प्रति उसका आक्रोश भी नया नहीं है। संभवत: इसी बात पर बल देने के लिए लेखिका ने तमिल महाकाव्य ‘सिलपदिकारम्’ के कथानक की पार्श्व ध्वनि को इस उपन्यास में उभारा है। आज के परिवेश में ‘सिलपदिकारम्’ की मूलकथा के प्रासंगिक सार का पुनर्कथन उन्होंने पूरी विश्वसनीयता से वर्तमान कदाचारों का नमूना भी उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया है। लेखिका ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इससे बढ़कर दुःख की बात क्या हो सकती है कि हजारों साल से जड़ जमाकर बैठी हुई अंध अपराध-मित्र न्याय-व्यवस्था अभी भी ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं !

देश के लिए, समाज के लिए लेखिका के मन में जो संवेदना है, उसके अमिट रंगों से उन्होंने इस उपन्यास का शोभन-पट चित्रित किया है। इस विलक्षण कृति द्वारा वे अपनी प्रतिबद्धता को बड़े ही सशक्त और मनोरंजन ढंग से पाठकों तक संप्रेषित करने में सफल हुई हैं।


डॉ.टी.सी.ए. श्रीनिवास रामानुजन्


‘यह तो वही है’ का कथा-सूत्र



कण्णगी की कथा तमिल भाषा के प्रसिद्ध पौराणिक महाकाव्य ‘सिलपदिकारम्’ की विषयवस्तु है। वह नारी उस काल में फैले सामाजिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध सक्रिय हुई थी। भ्रष्ट और निकम्मे शासन-तंत्र के द्वारा उसके निर्दोष। पति की हत्या कर दी गई थी। इस दारूण आघात से उसकी क्रोधाग्नि फूट पड़ी, जिसने मदुरै नगर को जलाकर भस्म कर डाला।

वही कण्णगी प्रस्तुत उपन्यास ‘यह तो वही है’ की प्रेरणा है और इसका मेरुदण्ड भी। वह महिमामयी पौराणिक अतीत होकर भी वर्तमान में इस तरह उपस्थित है मानो उसकी कहानी समाप्त नहीं हुई हो, भ्रष्टाचार के विरुद्ध सबल-समर्थ होकर बहुत-कुछ करने की जरूरत है- यह कहने आई हो।

लेखिका


यह तो वही है



‘‘वह अभी तक बैठी हुई है ?’’ थानेदार ने पूछा।
‘‘कौन, वह पगली ?’’
‘‘सुनो, वह पागल नहीं है।’’ थानेदार गंभीर होकर बोला।
‘‘बिलकुल सिरफिरी है। उसका दिमाग एकदम खिसका हुआ है।’’
‘‘जानते हो, परसों से ही उसने कुछ खाया नहीं है।’’
‘‘खाने को कुछ दे-दिलाकर भगाना चाहिए इस आफत को।’’
‘‘वह भीख लेगी ?’’
‘‘देंगे, तो क्यों नहीं लेंगी ?’’
‘‘कहती है कि बड़े बाप की बेटी है, ससुर भी नामी श्रेष्ठी था।’’
‘‘तो यह क्यों मारी-मारी फिर रही है।’’
‘‘अपने पति के बारे में पूछती फिर रही है।’’
‘‘तो बता दीजिए उसे कि.....कुछ कहकर टाल दीजिए।’’
‘‘मैं कहूँ ? क्यों ? और तुम किस काम के लिए हो ?’’
‘‘सर, आपका कहना ही ठीक होगा।’’
‘‘यह मेरा काम नहीं हैं।’’
‘‘तो मुझमें भी इतनी हिम्मत नहीं है कि उससे झूठ बोलूँ।’’
‘‘एक औरत से झूठ नहीं बोल सकते ? किस बूते पर सिपाही की नौकरी करने आए हो ? उँह....झूठ नहीं बोल सकते तो किसी आश्रम में चले जाओं !’’ थानेदार कुढ़कर बोला।
थानेदार ने अपने मातहत को डाँटा, लेकिन स्वयं उसमें भी यह साहस नहीं था कि उस स्त्री से जाकर बात करे। कोई दूसरा सिपाही भी अपनी जगह से नहीं हिला, थानेदार के हुक्म की उदूली होती रही।

थाने के बाहर वह बेहाल बैठी हुई है। उसे पता चला है कि इसी थाने में उसके पति को लाया गया है। वह अपने पति से मिलना चाहती है और उसकी ओर से सफाई भी देती जा रही है, क्योंकि उसी के कहने पर वह उसके एक पैर का झाँझन लेकर बेचने आया था। उसके बाद क्या हुआ, उसे पता नहीं है। यही पता लगाने आई थी कि वह लौटा क्यों नहीं, तो मालूम हुआ कि सरकार के सिपाही उसे थाने ले गए।
‘‘क्यों ? क्यों ले गए उसे ? उसने तो कोई कसूर नहीं किया !’’
‘‘तो ?’’ लोग सहानुभूति के साथ पूछते हैं।

‘‘हाँ, मेरा पति बड़ा भला है। वह बहुत बड़े श्रेष्ठी का बेटा है। और मैं ? मेरे पति का व्यवसाय तो विदेशों तक फैला था। हमारे बड़े-बड़े जहाजी बेड़े थे। एक साथ सामानों से लदे जहाज विदेश जाने के लिए खुलते थे तो ऐसा लगता था, जैसे समुद्र में पहाड़ तैर रहे हों। ऐसा ही तब लगता था जब वे विदेशों से सामान लेकर लौटते थे- हमें दूर से ही दीख जाता था, इत्र और मसालों की सुगंध भी दूर से ही आने लगती थी। कितनी बेसब्री से हम अपने जहाजों की राह देखते थे ! मेरी कई सहेलियों के अप्पा मेरे अप्पा के लिए काम करते थे। उन परिवारों को भी बेड़ों के लौटने की चिन्ता रहती होगी, लेकिन हम तो नायाब चीजों की ताक में रहते थे। मेरी अम्मा स्वागत की तैयारी में लग जाती थी। जाते समय भी वह पूरे अनुष्ठान से पूजा करने के बाद लंगर खोलने देती थी और जितने दिन अप्पा के जहाज विदेश में होते, अम्मा उनके सकुशल लौटने के लिए पूजा-अर्चना करती रहती थी। मेरा पति जब कुछ दिनों के लिए गलत आदतों का शिकार हो गया था, तब भी अम्मा ने उस बला को टालने के लिए व्रत-उपवास किए और अम्मा की ही प्रार्थनाओं का असर था कि सब कुछ ठीक हो गया। लगा, जैसे उजड़ते बाग में फिर से हरियाली छा गई हो।’’

‘‘तुम्हारे पति की आदतें गलत थीं ?’’
‘‘वह तो समय ही ऐसा था और इसमें उसका अधिक दोष नहीं था, माधवी ही उसे अपना हृदय दे बैठी, उसी ने पहल की थी।’’
‘‘कौन है यह माधवी ?’’
‘‘नर्तकी है, बहुत प्रसिद्ध नर्तकी।’’
‘‘तो तुम्हारे पति को नाचने वाली ने नचाया था ?’’

‘‘इस तरह मत बोलो। मेरा पति किसी के इशारे पर नाचनेवाला नहीं है। वह तो गुण-रसिक है। माधवी के गुण उसे भर गए थे। वह साधारण नर्तकी नहीं है। वह विद्याधरी कुल की है। उसका घराना बहुत प्रसिद्ध है। इसके ऊपर जान छिड़कने वालों की कतार लगी रहती थी, लेकिन वह मेरे पति के व्यक्तित्व पर रीझ गई थी और मेरा पति उसकी चौंसठ कलाओं पर मुग्ध था। वह शुरू से ही उसका प्रशंसक था। मुझे बताया था उसने। लेकिन जब उसने अनुभव किया कि माधवी भी उसे बेहद चाहती है, तो धीरे-धीरे वह उसके समीप होता चला गया।’’
‘‘लेकिन उन दोनों ने मिलकर तुम्हें तो दु:खी कर ही दिया !’’




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