जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी एक कहानी यह भीमन्नू भंडारी
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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...
यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है और नई कहानी दौर की रचनात्मक बेकली और तत्कालीन लेखकों की ऊँचाइयों-नीचाइयों से भी परिचित करता है। साथ ही उन परिवेशगत स्थितियों को भी पाठक के सामने रखता है जिन्होंने उनकी संवेदना को झकझोरा।
एक
स्पष्टीकरण
आज तक मैं दूसरों की जिन्दगी पर आधारित कहानियाँ ही ‘रचती' आई थी, पर इस बार
मैंने अपनी कहानी लिखने की जुर्रत की है। है तो यह जुर्रत ही क्योंकि हर
कथाकार अपनी रचनाओं में भी दूसरों के बहाने से कहीं न कहीं अपनी ज़िन्दगी के,
अपने अनुभव के टुकड़े ही तो बिखेरता रहता है। कहीं उसके विचार और विश्वास
गुंथे हुए हैं तो कहीं उसके उल्लास और अवसाद के क्षण...कहीं उसके सपने और
उसकी आकांक्षाएँ अंकित हैं तो कहीं धिक्कार और प्रताड़ना के उद्गार। इतना सब
जानने-महसूसने के बावजूद अगर मैंने इसे लिखा तो केवल इसलिए कि दूसरों की
कहानियाँ ‘रचते' समय मुझे अपनी कल्पना की उड़ान के लिए पूरी छूट रहती थी,
जिसके चलते मैं उनकी ज़िन्दगी से जुड़ी घटनाओं को जितना चाहती काटती-छाँटती,
बदलती-बढ़ाती रहती थी, क्योंकि उस समय मेरा लक्ष्य न सामनेवाला व्यक्ति रहता
था, न उसकी ज़िन्दगी की किसी घटना या अनुभव को उकेरना। वह सब तो मेरे लिए
निमित्त मात्र रहता था, जिसे माध्यम बनाकर मैं हमेशा उसके अनुभव को सीमित
दायरे से निकालकर किसी व्यापक सन्दर्भ के साथ जोड़ने की कोशिश करती थी, ताकि
उसके अनुभव के साथ अनेक दूसरे भी तादात्म्य स्थापित कर सकें यानी वह सबका
अनुभव बन सके। पर अपनी कहानी लिखते समय सबसे पहले तो मुझे अपनी कल्पना के पर
ही कतर एक ओर सरका देने पड़े, क्योंकि यहाँ तो निमित्त भी मैं ही थी और
लक्ष्य भी मैं ही। यहाँ न किसी के साथ तादात्म्य स्थापित करने की अपेक्षा थी,
न सम्भावना। यह शुद्ध मेरी ही कहानी है और इसे मेरा ही रहना था, इसलिए न कुछ
बदलने-बढ़ाने की आवश्यकता थी, न काटने-छाँटने की। यहाँ मुझे केवल उन्हीं
स्थितियों का ब्योरा प्रस्तुत करना था, वो भी जस-का-तस, जिनसे मैं
गुजरी...दूसरे शब्दों में कहूँ तो जो कुछ मैंने देखा, जाना, अनुभव किया,
शब्दशः उसी का लेखा-जोखा है यह कहानी। जहाँ मेरे लेखन के क्रमिक विकास, उससे
जुड़ी घटनाओं...मुझे सहेजते-सँवारते, जोड़ते-तोड़ते सम्पर्को सम्बन्धों पर ही
केन्द्रित रहना इसकी सीमा है, वहीं इसकी अनिवार्यता भी। बस, शायद यहीं दूसरे
पर कहानियाँ ‘रचने' की विधा अपने पर कहानी लिखने से अलग जा पड़ती है।
आगे बढ़ने से पहले एक बात अच्छी तरह स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि यह मेरी
आत्मकथा क़तई नहीं है, इसीलिए मैंने इसका शीर्षक भी ‘एक कहानी यह भी' ही रखा।
जिस तरह कहानी ज़िन्दगी का एक अंश मात्र ही होती है, एक पक्ष...एक पहलू, उसी
तरह यह भी मेरी ज़िन्दगी का एक टुकड़ा मात्र ही है, जो मुख्यतः मेरे लेखन और
मेरी लेखकीय यात्रा पर केन्द्रित है। बचपन और किशोरावस्था के मेरे
सम्पर्क-सम्बन्ध (जिसमें माँ-पिता, भाई-बहिन, मित्र-अध्यापक आदि हैं) और वह
परिवेश तो है ही, जिसमें मेरे लेखकीय व्यक्तित्व की नींव पड़ी थी। होश
सँभालने के बाद जिन पिता से मेरी कभी नहीं बनी...उम्र के इस पौढ़ेपन पीछे
मुड़कर देखती हूँ तो आश्चर्य होता है, बल्कि कहूँ कि अविश्वसनीय लगता है कि
आज अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ, उसका
बहुत-सा अंश विरासत के रूप में शायद मुझे पिता से ही मिला है...इसीलिए उनका
वर्णन थोड़े विस्तार में चला गया। फिर लेखन की शुरुआत का पहला चरण और उसकी
विकास-यात्रा, जो बेहद मंथर गति से चलने के बावजूद नाटक, उपन्यास और
पटकथा-लेखन तक तो फैली। अन्य विधाओं पर तो कभी प्रयोग ही नहीं किया...जानती
हूँ, वे सब मेरी सामर्थ्य की सीमा के बाहर हैं। हाँ, अपनी विधा की रचनाओं के
दौरान इनसे सम्बन्धित व्यक्तियों और स्थितियों के जो दिलचस्प अनुभव हुए, उनका
संक्षिप्त ब्योरा इस कहानी का प्रमुख हिस्सा है।
अपनी इस लेखकीय यात्रा में लेखक-बन्धुओं और लेखन में रुचि रखनेवाले लोगों का
जुड़ते चले जाना स्वाभाविक भी था और अनिवार्य भी। फिर तो आज तक यही सहयात्री
रहे मेरे और इन्हीं के स्नेह-सहयोग से मेरी ज़िन्दगी का छोटा-बड़ा अंजाम भी
पाता रहा। मेरी ज़िन्दगी का अभिन्न हिस्सा होने के कारण
कुछ साहित्येतर सम्बन्धों की उपस्थिति अनिवार्य थी...जहाँ मैं हूँ, चाहे जिस
रूप में भी, उन्हें तो होना ही था। हाँ, कुछ लोग एक झोंके की तरह आकर मात्र
मेरी संवेदना को ही नहीं झकझोर गए बल्कि मेरे सामने कुछ अनुत्तरित प्रश्न भी
छोड़ गए और जब तक इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल जाते, हो सकता है तब तक ये
भी मेरे साथ ही बने रहें ! अपने निश्छल स्नेह और सहयोग से जिन्होंने जीवन के
प्रति मेरी आस्था को बढ़ाया...उन्हें मैं भूल सकती हूँ क्या ? इसमें कोई
सन्देह नहीं कि मेरा अस्तित्व ही इन साहित्यिक, साहित्येतर मित्रों पर ही
टिका हुआ है। इसलिए ये हैं तो मैं हूँ...इनके बिना तो मेरी कहानी बन ही नहीं
सकती थी, उसके बावजूद मैंने इनमें से किसी का भी व्यक्तित्व-विश्लेषण नहीं
किया। हो सकता है कि इसके मूल में यही बात रही हो कि अपनी कहानी के बीच
दूसरों की कहानी क्यों डाली जाए ? इनका कहीं और उपयोग नहीं किया जा
सकता...ज्यादा सार्थक उपयोग। यों छोटी-मोटी टिप्पणियाँ तो ज़रूर की हैं, पर
वे या तो उनको परिचित कराने के लिए या फिर किसी सन्दर्भ-विशेष के चलते।
कोई भी लेखक न तो सम्पर्क-सम्बन्धविहीन हो सकता है, न परिवेश-निरपेक्ष, इसलिए
उन घटनाओं को तो इसका अनिवार्य हिस्सा होना ही था, जिन्होंने मात्र मेरी
संवेदना को ही नहीं बल्कि पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। उससे जुड़े वे
छोटे-बड़े प्रसंग, जिन्होंने कभी मुझे आहत किया, कभी बेहद क्षुब्ध तो कभी मुझ
नासमझ के भ्रम-भंग भी किए। यों भी एक लेखक की यात्रा होती ही क्या है ? बस,
उसकी दृष्टि परिवार के छोटे-से दायरे से निकलकर धीरे-धीरे अपने आसपास के
परिवेश को समेटते हुए समाज और देश तक फैलती चलती है। इस प्रक्रिया के दौरान
होनेवाले अनुभव उसे केवल समृद्ध ही नहीं करते...उसकी दृष्टि को साफ़ और
संवेदना को प्रखर भी करते हैं। हाँ, अब यह लेखक की अपनी सामर्थ्य पर निर्भर
करता है किस हद तक वह इन अनुभवों का रचनात्मक उपयोग कर सकता है।
यह भी कैसी विचित्र विडम्बना है कि दूसरों की कहानियाँ रचते समय मुझे
सामनेवाले को उसकी सम्पूर्णता के साथ अपने में मिलाना पड़ता था और इस हद तक
मिलाना पड़ता था कि 'स्व' और 'पर' के सारे भेद मिटकर दोनों एकलय, एकाकार हो
जाते थे। पर अपनी कहानी लिखते समय तो मुझे अपने को अपने से ही काटकर बिल्कुल
अलग कर देना पड़ा। यह निहायत ज़रूरी था और इस विधा की अनिवार्य शर्त,
तटस्थता, की माँग भी कि लिखनेवाली मन्नू और जीनेवाली मन्नू के बीच पर्याप्त
फासला बनाकर रख सकूँ। अब इसमें कहाँ तक सफल हो सकी हूँ, इसके निर्णायक तो
पाठक ही होंगे...मुझे तो न इसका दावा है, न दर्प !
लेखन और साहित्य से हटकर अपने निजी जीवन की त्रासदियों भरे ‘पूरक प्रसंग' को
लेखकीय जीवन पर केन्द्रित अपनी इस कहानी में सम्मिलित किया जाए या नहीं, इस
दुविधा ने कई दिनों तक मुझे परेशान रखा। अपने कुछ घनिष्ठ मित्रों से सलाह ली
और उनके आग्रह पर अन्ततः इसे सम्मिलित करने का निर्णय ही लिया। बाद में तो
मैं भी सोचने लगी कि मेरा और राजेन्द्र का सम्बन्ध जितना निजता और अन्तरंगता
के दायरे में आता है, उससे कहीं अधिक लेखन के दायरे में आता है। लेखन के कारण
ही हमने विवाह किया था...हम पति-पत्नी बने थे। उस समय मुझे लगता था कि
राजेन्द्र से विवाह करते ही लेखन के लिए तो जैसे राजमार्ग खुल जाएगा और उस
समय यही मेरा एकमात्र काम्य था। उस समय कैसे मैं यह भूल गई कि शादी करते ही
मेरे व्यक्तित्व के दो हिस्से हो जाएँगे...लेखक और पत्नी। इसमें कोई सन्देह
नहीं कि मेरे लेखकीय व्यक्तित्व को राजेन्द्र ने ज़रूर प्रेरित और
प्रोत्साहित किया...इनके साथ मिलनेवाला साहित्यिक वातावरण, होनेवाली
गप्प-गोष्ठियाँ मेरे बहुत बड़े प्रेरणा-स्रोत भी रहे। लेकिन मेरे व्यक्तित्व
का पत्नी-रूप ? इस पर राजेन्द्र निरन्तर जो और जैसे प्रहार करते रहे, उसका
परिणाम तो मेरे लेखक ने ही भोगा। निरन्तर खंडित होते आत्म-विश्वास से लेखन
में आए गतिरोध का जो सिलसिला शुरू हुआ अन्ततः वह उसके पूर्ण विराम पर ही
समाप्त हुआ। इसलिए ‘पूरक प्रसंग' की सारी बातें लगने को मेरे निजी जीवन से
सम्बन्धित ही लगेंगी पर जुड़ी हुई तो मेरे लेखन से ही हैं, बल्कि मेरे लेखकीय
जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। हाँ, यह मैं बहुत-बहुत ईमानदारी के साथ कह सकती
हूँ कि मैंने न तो इसमें वर्णित तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की है, न
अपनी किसी दुर्भावना के चलते उन्हें विकृत करने की। जो कुछ भी लिखा, एक
आवेगहीन तटस्थता के साथ ही लिखा है।
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