लोगों की राय

इतिहास और राजनीति >> वंदे मातरम्

वंदे मातरम्

सव्यसाची भट्टाचार्य

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6107
आईएसबीएन :81-267-1437-7

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

396 पाठक हैं

राष्ट्रगान वंदे मातरम् आरंभ से ही विवाद के केन्द्र में है। इसकी रचना, लोकप्रियता और विवाद तीनों का इतिहास एक ही है। इतिहासकार और समाजशास्त्री सब्यसाची भट्टाचार्य ने वंदे मातरम् पुस्तक में इसी इतिहास-कथा को सिलसिलेवार और सप्रमाण बतलाने का सार्थक यत्न किया है।

Vande Matram-A Hindi Book by Savysachi Bhattacharya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


सन् 1905 के बंगाल के स्वदेशी आंदोलन ने ‘वंदे मातरम्’ को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और अरविंद घोष ने बंकिम को राष्ट्रवाद का ‘ऋषि’ कहकर पुकारा। सन् 1920 तक, सुब्रह्मण्यम् भारती तथा दूसरों के हाथों विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर यह गीत ‘राष्ट्रगान’ की हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन् 1930 के दशक में ‘वंदे मातरम्’ की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीत की मूर्तिपूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। एम. ए. जिन्ना इस गीत के सबसे उग्र आलोचकों में एक थे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर भारतीय राष्टीय कांग्रेस ने सन् 1937 में इस गीत के उन अंशों को छाँट दिया जिनमें बुतपरस्ती के भाव ज्यादा प्रबल थे और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया।


इसी पुस्तक से


राष्ट्रगान वंदे मातरम् आरंभ से ही विवाद के केन्द्र में है। इसकी रचना, लोकप्रियता और विवाद तीनों का इतिहास एक ही है। इतिहासकार और समाजशास्त्री सब्यसाची भट्टाचार्य ने वंदे मातरम् पुस्तक में इसी इतिहास-कथा को सिलसिलेवार और सप्रमाण बतलाने का सार्थक यत्न किया है।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्य ने सन् 1870 के दशक के शुरुआती वर्षों में इसे वंदना-गीत के रूप में रचा। 1881 में इसे उपन्यास आनंदमठ में शामिल किया गया। कथा-संदर्भ के भीतर इस गीत ने विस्तृत रूपाकरा में हिन्दू-युद्धघोष का रूप धारण कर लिया सन् 1905 में बंगाल के आंदोलन ने इस गीत को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में इसे पहली बार गाया।

1920 तक विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर यह राष्ट्रीय हैसियत पा चुका था। 1930 में गीत के बिंब-विधान, व्यंजना और बुतपरस्ती को लेकर व्यापक विरोध हु्ए। सन् 1937 में गीत के उन अंशों को छाँट दिया गया, जिनको लेकर आपत्तियाँ थीं तथा शेषांश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया गया।

विभिन्न समय और संदर्भों में गीत के ‘पाठ’ और ‘पाठक’ के बीच जारी संवाद में निरंतरता और परिवर्तन को जानना इस पुस्तक का सबसे दिलचस्प पहलू है।

लेखक इसमें विवाद की ऐतिहासिकता को रेखांकित करता है।

संक्षिप्तियों की सूची


ए.आई.सी.सी. फाइल्स : आल इंडिया कांग्रेस कमिटी फाइल्स, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी नई दिल्ली।
बी.आर. : बंकिम रचनावली, भाग-I, II (सं.-जे.सी.बागल, कलकत्ता, 1959)।
सी.डबल्यू.एम.जी. :कलेक्टेड वर्क्स ऑव महात्मा गांधी (पब्लिकेशन डिवीजन, जीओआई, नई दिल्ली)।
होम पॉल : होम डिपार्टमेंट, पोलिटिकल ब्रांच, गवर्नमेंट ऑव इंडिया, नेशनल, अर्काइव्स ऑफ इंडिया।
एन.ए.आई. : नेशनल अर्काइव्स ठफ इंडिया, नई दिल्ली।
एन.एम.एम.एल. : नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, नई दिल्ली (निजी दस्तावेजों के संग्रहों के संदर्भ दिए गए हैं)।
पी.पी. डाक्यूमेंट्स : द पेराडॉक्सेज ऑव पार्टीशन, कलेक्शन ऑव डाक्यूमेंट्स (सं.—एस.ए.आई. तिरमिज़ी, नई दिल्ली, 1998)।
आर.आर : रवीन्द्र रचनावली, भाग,-1-26 (विश्वभारती, कलकत्ता, 1986)।
टी.बी. डाक्यूमेंट्स : टेरिरिज़्म इन बंगाल : ए कलेक्शन ऑव डाक्यूमेंट्स ऑव टेरिरिस्ट एक्टिविटीज़, 1905-1939 भाग 1-6 (सं.—ए.के. सामंत, गवर्नमेंट ऑव वेस्ट बंगाल, कलकत्ता, 1995)।

प्रस्तावना


1994 में इस पुस्तक ने आकार लेना आरंभ किया था। उस वक्त बंकिम चंद्र चटर्जी की सौवीं पुण्यतिथि मनाने के लिए देशभर में अनेक सम्मेलन आयोजित किये गये। उनमें से कुछ बंगाल में हुए और चूँकि उस समय मैं विश्वभारती, शांतिनिकेतन में कार्यरत था इसलिए मैंने भी उनमें भाग लिया। सालों से मैं इस विषय पर नोट्स तैयार कर रहा था और नई दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी में जब मैंने बंकिम चंद्र शताब्दी भाषण दिया तो इस नोट्स ने एक आकार ग्रहण कर लिया। इसमें ‘वंदे मातरम्’ गीत ने केन्द्रीय विषयवस्तु का रूप ले लिया क्योंकि इस गीत का राजनीतिक हित साधन के लिए इस्तेमाल अथवा उन्हीं अर्थों में इस सांस्कृतिक कला तथ्य का अस्वीकार आज के वक्त की राजनीतिक चर्चाओं में एक अहम मामला रहा है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक अध्ययन केंद्र में अपनी वापसी के बाद सहकर्मियों के साथ हुई चर्चाओं ने इस पुस्तक को तैयार करने में बहुत सहायता की। डॉ. वाई. चिन्नाराव ने दक्षिण भारत संबंधी सूचनाएँ और पुस्तक के अंत में ‘व्यक्तित्व संबंधी टिप्पणियों’ की जानकारी एकत्र करने में मेरी सहायता की। मैंने सोचा, ऐसी टिप्पणियाँ उन पाठकों के लिए लाभप्रद हो सकती हैं जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित नहीं हैं। मैं पेगुइन बुक्स, भारत के शांतनु राय चौधरी को अत्यंत कुशल कॉपी-एडिटिंग के लिए धन्यावाद देना चाहता हूँ। और सबसे बड़ी बात, सहधर्मिणी मालविका का इस काम से जुड़ाव और उनका धीरज इस पुस्तक को लिखने में एक बार फिर मेरा संबल साबित हुए।


भूमिका


कहते हैं कि रचनाएँ पुस्तक के पन्नों में ही सिमटी रह जाती हैं लेकिन कुछ रचनाएँ पुस्तक के पन्नों से बाहर आती हैं और हमारे जीवन में पैठ जाती हैं। ‘वंदे मातरम्’ गीत लंबे समय से ऐसी ही अनूठी रचना रही है। एक तरफ इस गीत को लोकमानस में राष्ट्रीय गीत के रूप में प्रसिद्ध मिली तो दूसरी तरफ इसके बिम्ब-विधान, व्यंजना और बुतपरस्ती के आधार पर उठे आक्षेपों ने विवाद का घमासान ही तैयार कर दिया। यह गीत सन् 1870 के दशक के शुरुआती सालों में किसी वक्त मूलतः वंदना-गीत अथवा स्तुति के रूप में रचा गया और अगले कुछ वर्षों तक अप्रकाशित रहा। सन् 1881 में इसे ‘आनन्दमठ’ नामक उपन्यास में शामिल किया गया। उपन्यास के कथा-संदर्भ के भीतर इस गीत के विस्तृत रूपाकार ने हिंदू-युद्धघोष का स्वर धारण कर लिया। और इस तरह, बंकिमचंद्र चटर्जी ने ‘मातृभूमि’ नाम की एक नई प्रतिमा ही गढ़ दी।

सन् 1905 के बंगाल के स्वदेशी आंदोलन ने ‘वंदे मातरम्’ को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और अरविंद घोष ने बंकिम को राष्ट्रवाद का ‘ऋषि’ कहकर पुकारा। सन् 1920 तक, सुब्रह्मण्यम् भारती कथा दूसरों के हाथों विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर यह गीत ‘राष्ट्रगान’ के हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन् 1930 के दशक में ‘वंदे मातरम्’ की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीति की मूर्तिपूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। एम.ए. जिन्ना इस गीत के सबसे उग्र आलोचकों में एक थे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन् 1937 में इस गीत के उन अंशो को छाँट दिया जिनमें बुतपरस्ती के भाव ज्यादा प्रबल थे और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया। संविधान-सभा ने राजेन्द्र प्रसाद के कहने पर गीत के इसी रूप को ‘जन-गण-मन’ के साथ राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया और राष्ट्रगान का दर्जा दिया गया। सन् 1930 और 1940 के समूचे दशक में मुस्मिल लीग इस गीत के विरोध पर अड़ी रही और ठीक इसी अनुपात में हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों ने गीत की तरफदारी की। सन् 1947 से, कुछ भारतीय की नजर में वंदे मातरम् सांप्रदायिक युद्धनाद बन चुका था तो कुछ दूसरों का मानना था कि यह राष्ट्रीय संस्कृति का जायज प्रतीक है। इस गीत की हैसियत पर टकराव की शुरुआत हो गई।

इस प्रकार, वंदे-मातरम् गीत के सियासी इस्तेमाल ने इसके अर्थ को बार-बार बदला। गीत एक सांस्कृतिक कला-तथ्य है। इसके ऊपर आरोपित विभिन्न अर्थों की तह से कई मुद्दे उभरते हैं मसलन्-राष्ट्रीय अथवा साम्प्रदायिक पहचान को साहित्य के एक अंश का इस्तेमाल औजार की तरह करना; अलग-अलग समय में अलग-अलग पीढ़ियों के लिए अर्थ का भिन्न-भिन्न होना। उदाहरण के लिए, ‘‘वंदे मातरम’ का जो अर्थ अरविंद की पीढ़ी ने ग्रहण किया, वही अर्थ जवाहर लाल नेहरू, एम.ए. जिन्ना अथवा वी.डी सावरकर की पीढ़ी ने नहीं किया। किसी रचनाकार की रचनाधर्मी स्वायत्तता के राजनीतिक इस्तेमाल की संभावना बराबर रहती है और इसमें राजनेताओं की खास भूमिका होती है, यह शायद सबसे ज्यादा गौरतलब मुद्दा है। बंकिमचंद्र में बहुत बार एक और रचनाकार को इस सवाल का सामना करना पड़ा और इस रचनाकार का नाम था रवीन्द्रनाथ टौगोर। रवीन्द्रनाथ टौगोर का उत्तर था कि बौद्धिक आजादी और लेखकीय स्वायत्तता का उल्लंघन होता हो तो इसका जबर्दस्त विरोध किया जाना चाहिए। अपने एक प्रसिद्ध निबंध ‘द कॉल ऑव द ट्रुथ’ (सत्य की पुकार) में उन्होंने बड़े धारदार शब्दों में किसी की ‘जोर-जबर्दस्ती के आगे बुद्धि की मर्यादा को तिलांजलि देने से इंकार करने के महत्त्व को रेखांकित किया है। उनका तर्क है कि भारत जब तक यह नहीं जान लेता कि ‘उसकी बुनियाद उसका मन है जो अपनी बहुविधि शक्तियों और इन शक्तियों पर विश्वास करके हर समय अपने लिए स्वराज्य रचता है’, तब तक सच्ची आजादी हासिल नहीं कर सकता। बंकिम ने कभी इस सवाल का सामना नहीं किया क्योंकि जो गीत उन्होंने रचा था उस पर राजनीतिक विवाद उनकी मृत्यु के बहुत बाद पैदा हुआ।

मैंने इस कथा को सिंहावलोकी यानी एक-एक करके पीछे दूर तक देखने के अंदाज में लिखा है, प्राचीन संस्कृत-परंपरा में (जैसे, कथासहित्यसागर में) कथाएं श्रृंखलाबद्ध होती थीं। इसमें एक कथा दूसरी कथा के द्वार तक ले आती है और इस तरह कथाओं की एक कड़ी तैयार हो जाती है। ऐसा करने का एक कारण तो उस पाठक की रुचि को संतुष्ट करना है जिसका दिलचस्पी ‘अब’ और ‘यहाँ’ में है। जब आप पूछते हैं कि स्थित अब यहाँ तक कैसे आ पहुँची तो अतीत अपने पन्ने खोलता है। इस तरह सहम इतिहास की पड़ताल ऐसे नहीं कर सकते मानो वह पहले से सजे-सजाये तथ्यों का पुलिंदा हो। हम इतिहास की पड़ताल वर्तमान की दहलीज पर खड़े होकर करते हैं। यह वर्तमान खुद भी गुजरे हुए वक्त की एक छाया होता है। ऐसे में अतीत के विभिन्न परिप्रेक्ष्य और बहुविध स्मृतियों को देखने के दरवाजे खुलने लगते हैं। यह कथा आपको एक-एक कदम बढ़ाते हुए आज से 130 साल पहले के समय में ले जाएगी—जब यह गीत रचा गया। निकट अतीत में इस गीत को लेकर हुए सांप्रदायिक तेवर वाले संघर्ष को बयान करते हुए इस कहानी की शुरुआत (अध्याय-1) करेंगे।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai