लोगों की राय

व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> आप ही बनिए कृष्ण

आप ही बनिए कृष्ण

गिरीश पी. जाखोटिया

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6110
आईएसबीएन :978-81-263-1503

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

69 पाठक हैं

लेखक ने बहुमुखी प्रतिभासंपन्न, रणछोड़ रणनीति के प्रणेता, अजेय नायक सर्वश्रेष्ठ सलाहकार, क्रांतिकारी और दार्शनिक का भूमिका में कृष्ण को प्रबन्ध के अचूते कोण से विश्लेशित किया है।

Aap Hi Baniye Krishna -A Hindi Book by Girish P. Jakhotiya - आप ही बनिए कृष्ण - गिरीश पी. जाखोटिया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महाभारत के चरित्रों में अकेले कृष्ण हैं, जिनका किसी न किसी रूप में प्रायः सभी चरित्रों से जुड़ाव रहा। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे सिंहासनपर विराजमान सम्राट से लेकर गली-कूचों में घूमनेवाली ग्वालिनों तक सबसे उनके स्तर पर जाकर संवाद ही नहीं कर लेते थे, उन्हें अपनी नीति और राजनीति का पोषक भी बना लेते थे। बचपन से लेकर प्रौढ़ावस्था तक देश-भर में उन्होंने जो किया और जैसे किया, उनके सिवा और कौन कर सका ?

अपने हर काम से वे विपक्षी को पस्त-परास्त और निरस्त्र ही नहीं कर देते थे, उसे अपना अनुरक्त भी बना लिया करते थे। जो भी मिला, जहाँ मिला, कृष्ण ने उसे अपना बना लिया। इसके लिए फिर चाहे उन्हें कई पत्नियों का पति और हजारों स्त्रियों का स्वामी ही क्यों न बनना पड़ा। बहन सुभद्रा को अर्जुन के साथ भगा देना जरूरी समझा तो रिश्ते के भाई शिशुपाल का वध करने से भी वे नहीं झिझके। अपने कारनामों के औचित्य के अद्भुत्-अपूर्व तर्क भी वे जुटा लिया करते थे। धरती के भविष्य को सँवारने और पर्यावरण को बचाने के साथ-साथ सबको प्यार देने और सबका प्यार पाने में कृष्ण पूर्णतः सफल सिद्ध हुए। योगेश्वर कृष्ण की क्रान्तिकारी नीतियों, सफल रणनीतियों, दार्शनिक विचारों और नेतृत्व की अद्भुत शैलियों को प्रबन्ध की दृष्टि से विवेचित-विश्लेषित करनेवाली हिन्दी की ऐसी पहली पुस्तक, जिसे पढ़कर आप भी अपने जीवन को कृष्ण की तरह एक विजेता के रूप में ढाल सकते हैं।

आप ही बनिए कृष्ण

कृष्ण कौन थे ?

भारत को पाँच हजार साल पहले आर्यावर्त कहा जाता था, जहाँ अनेक छोटे-बड़े राजा शासन करते थे। इन राजवंशों में सबसे अधिक प्रसिद्ध थे हस्तिनापुर का कुरुवंश, मगध का राजवंश और मथुरा का यदु वंश। तब अफगानिस्तान (गन्धार) म्यांमार (ब्रह्मदेश) और श्रीलंका भी इसी आर्यावरक्त के अन्तर्गत आते थे। मथुरा के राजा उग्रसेन को उनके पुत्र कंस ने गद्दी से उतारकर बन्दीगृह में डाल दिया था। उनकी बहन देवकी का विवाह उसी के एक सैन्य अधिकारी वसुदेव से हुआ था एक दैवी आकाशवाणी के अनुसार देवकी के आठवें पुत्र के हाथों कंस की हत्या होनी थी। आत्मरक्षार्थ उसने देवकी और वसुदेव को भी कारागृह में डाल दिया था लेकिन किसी भी तरह आठवें शिशु को कुछ विशेष अवसर था। कंस का एक अन्य सेनापति अक्रूर आध्यात्मिक प्रवृत्ति का था, जो वसुदेव का अभिन्न मित्र था। इन दोनों ने अपने एक अन्य मित्र गोकुलवासी नन्द के साथ मिलकर इस आठवें शिशु को बचाने के लिए एक योजना बनायी। श्रावण माह (अगस्त) के आठवें दिन देवकी ने अपने आठवें बच्चे को जन्म दिया। इस शिशु में दैवीय लक्षण थे। योजना के अनुसार अक्रूर ने आधी रात को बन्दीगृह से निकलने, यमुना को पार करने तथा नवजात शिशु को नन्द के घर ले जाने में वसुदेव की सहायता की। उसी समय नन्द की पत्नी यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया। इन दोनों बच्चों की अदला-बदली हुई और वसुदेव नन्द की पुत्री सहित कारागृह में लौट आए।

हमेशा की भाँति कंस ने इस आठवें शिशु को उठाया और उसे मारने का यत्न किया। शिशु उसके हाथों से छूटकर भीषण गर्जन के साथ अन्तर्ध्यान हो गया। तभी दूसरी आकाशवाणी हुई कि भगवान् विष्णु ने पहले ही कंस का नाश करने के लिए अवतार ले लिया है वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी जो गोकुल में रहती थी की कोख से जन्मा एक पुत्र बलराम था। वसुदेव के आठवें पुत्र का नाम कृष्ण रखा गया। अब गोकुल में दोनों भाई बड़े होने लगे।
अपने मुखबिरों से कंस को पता चल गया कि कृष्ण ही वह दैवी शिशु है जो शीघ्र ही उसका संहार करनेवाला है। कंस ने अपने अनेक निर्दयी सहायकों को एक के बाद एक कृष्ण की हत्या करने के लिए भेजा परन्तु कृष्ण किसी न किसी प्रकार या तो बच गए या फिर उन्होंने कंस के सहायकों को मार डाला। कृष्ण और बलराम के इन कारनामों का विस्तृत वर्णन महाकाव्य ‘भागवत्’ में किया गया है।

भागवत में गोकुल वासियों के कृष्ण के प्रति दैवी प्रेम का भी वर्णन है उनमें एक राधा थीं, जिनकी आयु कृष्ण से तीन वर्ष अधिक थी। राधा का कृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण जगविदित है और वह राधा-भक्ति के नाम से प्रसिद्ध हैं जो नौ प्रकार की भक्तियों में से एक है। राधा-कृष्ण भक्ति की ईश्वरीय जोड़ी है, जिसकी पूजा करोड़ों भारतीय करते हैं।
कृष्ण बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे। ग्रामीण देवराज इन्द्र की पूजा अच्छी वर्षा के लिए करते थे। कृष्ण ने उन्हें विश्वास दिलाया कि ‘गोवर्धन’ पर्वत के कारण अच्छी वर्षा होती है। इतः इन्द्र की नहीं, गोवर्धन की पूजा करना अधिक तर्कसंगत होगा उन्होंने इस पर भी सवाल उठाया कि कंस को भारी कर देने में क्या तुक है, क्योंकि कंस प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर रहा। कृष्ण ने नन्द को भी समझाया कि वे एक उपयुक्त सैन्य बल का गठन करें जो कंस सैनिकों की ज्यादतियों के खिलाफ उनसे लड़े।

नेतृत्व करने के गुण कृष्ण में बचपन से ही परिलक्षित होने लगे थे। उनकी संचार व्यवस्था उत्तम थी। विभिन्न प्रकार के लोगों से तालमेल बिठाने में उनका लचीलापन आश्चर्यजनक था। संगीत, साहित्य एवं अध्यात्म पर उनकी पकड़ लाजवाब थी। उनकी कूटनीति का सारतत्त्व चालाकी और माधुर्य का अद्भुत मिश्रण था। इसलिए आज भी उनकी कूटनीति ‘कृष्णनीति’ के नाम से लोकप्रिय है। एक कुशल प्रबन्धक की भाँति उन्होंने अनेक बार नाजुक स्थितियों का बड़ी कुशलता से प्रबन्ध किया। उनकी मौलिक सूझ-बूझ एवं विचारों से वे विवादास्पद मामलों को अलग ढंग से निबटाते थे। इसलिए भारत के हिन्दू उन्हें भगवान् विष्णु के अवतार के रूप में पूजते हैं। विष्णु हिन्दुओं के महान् ईश्वर हैं। भगवान् ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हैं, विष्णु संरक्षक तथा शिव संहारक हैं। जन्म, उत्तरजीविता एवं भंगुरता, प्रत्येक के जीवन चक्र के तीन अवश्यम्भावी घटक हैं। आवश्कता इस बात की है कि मानवी धरातल पर कृष्ण के जीवन के उद्देश्य का हम विश्लेषण करें। उनके जीवन वृत्त का विवेकयुक्त विवरण उनके अद्वितीय व्यक्तित्व को समझने में कारगर होता। कोई चाहे तो उन्हें भगवान या महामानव की संज्ञा दे सकता है। वास्तविकता यह है कि वे हमारे लिए एक आदर्श हैं —विशेषतः हमारे सामाजिक तथा पेशेवर जीवन के लिए।

कंस के लिए अन्ततः कृष्ण और बलराम को एक तथाकथित खेलकूद समारोह में भाग लेने के लिए मथुरा बुलाना आवश्यक हो गया। उसने कुटिलतापूर्वक, अक्रूर को दोनों भाइयों को लिवा लाने के लिए भेजा। दोनों ही किशोरवय थे। नन्द, यशोदा, रोहिणी, राधा एवं समस्त गोपियाँ (गोकुल के निवासी) भयभीत थे। अक्रूर ने उन्हें भरोसा दिलाया कि कृष्ण और बलराम सुरक्षित तथा नायकों की भाँति लौटकर आएँगे। कृष्ण का गोकुल से जाना एक बड़ी घटना थी, जिसमें उनके परिवर्तन-प्रबन्धन के विलक्षण गुण की झलक मिलती है। उनकी यह यात्रा एक लघु परिवेश से विशाल परिवेश, निश्चितता से अनिश्चितता और निर्दोष देवतत्त्व से संकल्पित कर्त्तव्य के पथ पर जाने की यात्रा थी।

दोनों भाइयों ने सभी प्रतियोगिताओं में भाग लिया। कंस के इरादे तभी स्पष्ट हो गए, जब उसके पहलवानों ने दोनों भाइयों को मारने की चेष्टा की। कृष्ण और बलराम ने उनकी अच्छी खबर ली तथा कंस की ओर उन्मुख हुए। कंस की चालों का जैसा जबाव कृष्ण दे चुके थे, उसके कारण कंस मनोवैज्ञानिक रूप से शिथिल हो चुका था। इससे कृष्ण का काम आसान हो गया और उन्होंने कंस का वध कर दिया। अब मथुरा के निवासी, खासतौर पर उग्रसेन को फिर से मथुरा के राजसिंहासन पर बिठा दिया।

कंस मगध के महान योद्धा एवं शासक जरासंध का दामाद था। वह उस समय के भारत के पूर्वी भाग का बड़ा शक्तिसम्पन्न सम्राट था। कंस को मारकर कृष्ण ने जरासंध के कोप को आमंत्रित कर लिया। अब जरासंध का एकमात्र लक्ष्य कृष्ण को समाप्त करना था उसने कृष्ण को पकड़ने का कई बार प्रयत्न किया परन्तु हर बार असफल रहा। कृष्ण ने जरासंध की विशाल सेना के प्रहार और आमने-सामने की लड़ाई से बचने के लिए ‘गुरिल्ला पद्धति’ का उपयोग किया। इसी पद्धति का उपयोग शिवाजी ने मुगलों से लड़ने के लिए किया था। कृष्ण के युद्ध कौशल के कारण जरासंध को सदैव मुँह की खानी पड़ी। कृष्ण अपनी छोटी सैन्य टुकड़ी को ठीक ठीक समय पर रणक्षेत्र से हटा लेते थे। यह ‘हमला करो, नष्ट-भ्रष्ट करो और भाग जाओ’ वाली रणनीति थी। भारतीय साहित्य ने कृष्ण को युद्धक्षेत्र में नमनीयता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें ‘रण-छोड़-दास’ कहा है जिसका अर्थ है पुनः वापस आने के लिए समरक्षेत्र से पलायन करना।

अब समय आ गया था कि कृष्ण अपना स्वयं राज्य स्थापित करें और उसे पुष्ट करें। उन्हें विरासत में अपने पिता से कोई राज्य नहीं मिला था। सामरिक दृष्टि से विचार कर उन्होंने भारत के पश्चिमी छोर पर द्वारका का निर्माण किया, जो वर्तमान गुजरात राज्य के समुद्री तट पर स्थित है। द्वारका का संरचना विलक्षण थी। यह भारत का श्रेष्ठतम नगर बन गया। द्वारका का निर्माण बहुत बड़ा कार्य था, किन्तु, अपने लोगों की सहायता से कृष्ण ने यह काम पूरा किया। द्वारका जरासंध से सुरक्षित दूरी पर था।

राजा रुक्की की बहन को कृष्ण से प्यार हो गया। सुप्रसिद्ध अन्य कई राजघरानों की कन्याएँ भी कृष्ण से विवाह के सपने देखती थीं। वे उन्हें अपना ईश्वर मानकर पूजती थीं। कृष्ण ने रुक्की की इच्छा के विरुद्ध रुक्मिणी से विवाह कर लिया। मानवीय तथा दैवीय दोनों दृष्टियों से कृष्ण के प्रत्येक कार्य के पीछे कोई-न-कोई रणनीतिक आधार होता था। वह ऐसा समय था, जब लगातार लड़ाइयाँ होती रहती थीं। अतः सहस्रों सैनिकों के रणभूमि में मारे जाने के कारण पुरुष-महिला औसत नीचे गिर गया था और कृष्ण जैसे महत्त्वाकांक्षी राजा के लिए यह सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था कि नामी राजवंशों से मैत्री स्थापित की जाए और उस मैत्री को सुदृढ़ किया जाए। कृष्ण ने सत्यभामा से भी विवाह किया।
कुरु राजवंश में अनेक घटनाएँ एक साथ घट रही थीं। शान्तनु के प्रतापी पुत्र भीष्म दुष्यन्त की द्वितीय आदिवासी पत्नी की इच्छा का सम्मान करते हुए विवाह नहीं किया। उनकी यह शर्त थी कि केवल उसका पुत्र ही शान्तनु के राज्य का उत्तराधिकारी होगा। बाद में कुरु वंश में दो पुत्र हुए, पांडु कनिष्ठ और धृतराष्ट्र ज्येष्ठ था। ये दोनों तथा तीसरा, विदुर प्रसिद्ध संत एवं विद्वान व्यास मुनि द्वारा दो रानियों और नौकरानी की कोख से पैदा हुए। मुनि का अर्थ आध्यात्मिक संत होता है। अन्धा होने के कारण धृतराष्ट्र को युवराज नहीं बनाया जा सकता था। उसके स्थान पर पांडु को युवराज घोषित किया गया। इससे धृतराष्ट्र के मन में पांडु के प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हुई।

श्राप के कारण पांडु अपनी दो पत्नियों कुंती और माद्री के साथ संभोग नहीं कर सकते थे। कुंती वसुदेव की बहन और राजा कुंतिभोज की पुत्री थी राजकुमारी रहते हुए उसने दुर्वासा मुनि की तब पड़ी सेवा की थी, जब वे उसके पिता के अतिथि थे। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उसे एक मंत्र आशीर्वाद के बतौर दिया। इस मंत्र के द्वारा वह किसी भी देवता का आह्वान कर उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थीं। अतः कुंती के तीन पुत्र युद्धिष्ठिर भगवान यम से, भीम वायु देवता से और अर्जुन इन्द्र से पैदा हुए थे। कुंती ने अपना मंत्र माद्री को भी दे दिया तो उसके भी दो पुत्र नकुल और सहदेव अन्य देवताओं से उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने सौ पुत्रों और एक पुत्री को जन्म दिया। इस घटना से इसकी पुष्टि होती है कि उन दिनों वैज्ञानिक प्रगति कितनी हो चुकी थी, शायद यह परखनली शिशु का प्रकरण है।
गांधारी का ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन था जिसने बाद में कृष्ण के अग्रज बलराम से मल्लयुद्ध और गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की। तथा उसका अनुज दुःशासन पांडु पुत्रों से –विशेषतः भीम से घृणा करते थे। धृतराष्ट के पुत्र कौरव और पांडु के पुत्र पांडव कहलाए गुरु द्रोणाचार्य ने इस सभी को उन समस्त कौशलों और ज्ञान की शिक्षा दी जो एक क्षत्रिय योद्धा के लिए अनिवार्य हैं। अर्जुन उनका सबसे प्रिय शिष्य था।

पांडु का आसामयिक निधन हो गया और धृतराष्ट्र राजा हो गए। युधिष्ठिर को कुरुवंश का युवराज मनोनीत किया गया क्योंकि पांडवों और कौरवों में सबसे बड़ा था। इसके कारण दुर्योधन और उसके पिता की ईर्ष्या और अधिक पढ़ गई। शकुनि (गांधारी का भाई) आग में ईंधन झोंकता रहा और सुनिश्चित करता था कि दोनों समूहों के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ती चली जाए।
गुरु द्रोणाचार्य को एक बार राजा द्रुपद ने अपमानित किया था, यद्यपि पहले दोनों मित्र थे। द्रोणाचार्य ने उससे बदला लेने का निर्णय किया। अपनी दक्षिणा (शिक्षा शुल्क) के रूप में उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि वे द्रुपद को पकड़ कर ले आएँ। अर्जुन और भीम ने यह काम कर दिया। द्रोणाचार्य ने वैसा ही अपमानजनक व्यवहार द्रुपद के साथ किया जैसा द्रुपद ने उनके साथ किया था। द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने प्रतिज्ञा की कि वह द्रोणाचार्य का वध करेगा।

द्रुपद की बुद्धिमती और सुन्दर कन्या द्रौपदी थी। द्रुपद के यज्ञ करने से उनका पुत्र व पुत्री यज्ञ कुंड से निकले थे। कृष्ण द्रुपद के पारिवारिक मित्र थे। अतः उन्होंने सलाह दी कि द्रुपद अपनी कन्या का विवाह अर्जुन से करें। द्रौपदी कृष्ण को अपना मित्र, दार्शनिक व मार्गदर्शक मानती व उनका बड़ा आदर करती थी। यह कृष्ण की ही दूरदृष्टि थी कि पांडवों और द्रुपद को एक सूत्र में बाँध दिया, कदाचित यह शतरंज की एक जरूरी चाल थी जिससे वांछित परिणाम प्राप्त हों।

शकुनि की चालाकी के कारण कौरवों ने पांडवों को जंगल में बने एक सुन्दर घर में मौज-मस्ती के लिए भेजा। विदुर ने उन्हें सावधान कर दिया कि कौरव मकान में आग लगाकर उन्हें मारना चाहते हैं। पांडव सकुशल निकलने में सफल हो गए। विदुर कृष्ण के समर्पित प्रशंसक थे। उनके आपसी सम्बन्ध भगवान और भक्त के समान थे

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai