नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
राजा : आप मुझे कोई और न समझ बैठिएगा। वास्तव में यह अंगूठी तो मुझे महाराज से पुररकार में प्राप्त हुई है। आप मुझे राजपुरुष ही समझिए, कोई अन्य नहीं।
प्रियंवदा : तब तो इस अंगूठी को आपको अपनी अंगुली से अलग नहीं करना चाहिए। आपने ऋण चुकाने की बात कह दी, बरन इतने मात्र से हमारी राखी का ऋण चुकता हो गयासमझिए। शकुन्तला इनकी या यों कहो, कि महाराज की कृपा से तुम ऋण से मुक्त हो गई हो, अब तुम जाना चाहो तो जा सकती हो।
शकुन्तला : (मन-ही-मन) मेरा अपना मन अपने हाथ में हो तब तो जाऊं। (प्रकट) मुझे जाने देने वाली अथवा रोकने वाली तुम कौन होती हो?
राजा : (शकुन्तला को देखकट मन-ही-मन) कहीं, यह भी तो हम पर वैसे ही नहीं रीझ गई, जैसे हम इस पर रीझे हैं। या फिर जान पड़ता है कि हमारे मनोरथों के फलने के दिन अ गये हैं। क्योकि-
यद्यपि यह स्वयं मुझसे बातचीत नहीं करती, फिर भी जब मैं बोलने लगता हूं तो उस समय कान लगाकर मेरी बातें सुनने लगती है। और यद्यपि यह मेरे सामने मुंह करके नहीं बैठती फिर भी इसकी आंखें मुझ पर ही लगी रहती हैं।
[नेपथ्य में]
हे तपस्वियो! अकर तपोवन के प्राणियों को बचाओ। आखेट का प्रेमी राजा दुष्यन्त पास ही आ पहुंचा है। उसके घोड़ों की टापों से उड़ी हुई और सांझ की ललाई के समान लाल-लाल धूल टिड्डी दल के समान उड़कर आश्रम के उन वृक्षों पर फैली पड़ रही है जिनकी शाखाओं पर गीले वल्कल के वस्त्र फैलाये हुए हैं।
और देखो-
राजा के रथ से डरा हुआ यह वन्य हाथी हमारी तपस्या के लिए साक्षात् विघ्न बना हुआ हरिणों के झुण्ड को तितर-बितर करता हुआ इस तपोवन में घुसा चला आ रहा है। इसने अपने तीव्र आघात से एक वृक्ष को ही उखाड़ लिया है और उसकी शाखा में उसका एक दांत फंस गया है। उस वृक्ष की टूटी हुई लताएं भी फन्दे के समान उसके पैरों में उलझ गई हैं।
[सभी यह सुनकर घबरा-सी जाती हैं।]
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