नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
राजा : (चिन्तित-सा सांसे भरता हुआ) तपस्वियों की शक्ति को मैं भली प्रकार जानता हूं। इसीलिए मैं अपनी प्रिया को हरकर भी तो नहीं ले जा सकता और यह भी जानता हूं कि विवाह करना अथवा न करना उस कुमारी के वश की बात नहीं है। वह परवश है, इस कारण वह स्वयं भी मेरे साथ नहीं जा सकती। फिर भी न जाने क्या बात है कि मैं अपना मन उस पर से हटा ही नहीं पा रहा हूं।
[काम-पीड़ा का-सा अनुभव करते हुए।]
हे पुष्पों के शस्त्र धारण करने वाले कामदेव भगवान्! आपने चन्द्रमा की सहायता से उन सब कामियों के साथ बड़ा विश्वासघात किया है जो आप पर विश्वास किये हुए थे।
क्योंकि-
तुम्हारा फूलों के बाण वाला कहा जाना और चन्द्रमा का ठण्डी किरणों वाला कहा जाना, ये दोनों ही बातें मुझ सरीखे विरहियों को सब झूठी-सी जान पड़ती हैं। क्योंकि मुझे तो ऐसा लग रहा है कि चन्द्र अपनी ठण्डी किरणों से आग बरसा रहा है और तुमने भी अपने पुष्प-शरों में वज्र की कठोरता को भर लिया है।
अथवा-
यदि तुम मदभरी और बड़ी-बड़ी आंखों वाली शकुन्तला के कारण मेरे चित्त को बार-बार दुखाने का उपक्रम कर रहे हो तुम ठीक ही कर रहे हो, मैं इसको ऐसा ही समझता हूं।
[खेद से परिक्रमा करके]
यज्ञ पूर्ण हो जाने पर जब ये ऋषि लोग मुझे विदा कर देंगे तब मैं अपने ये दुःखी प्राण लेकर अपना मन कहां बहलाऊंगा? तब तक तो उसको ही खोजता हूं।
[ठण्डी सांस भरकर]
प्रिया के दर्शन के अतिरिक्त अब मेरे लिए अन्य आश्रय ही क्या रह गया है। चलता हूं, उसको ढूंढ़ता हूं।
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