नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
अनसूया : जाग तो गई हूं। किन्तु क्या करूं? आज तो अपने नित्य कर्म करने के लिए भी मेरे हाथ-पैरों में सामर्थ्य नहीं है?
मेरी प्रिय सखी शकुन्तला उस झूठे राजा का इतना विश्वास कर बैठी तो अब तो इससे कामदेव का चित्त प्रसन्न हो गया होगा? अथवा कौन जाने यह दुर्वासा के ही शाप का फल हो कि जो उस राजा ने अब तक भी शकुन्तला की सुधि नहीं ली है। अन्यथा वह राजर्षि तो बड़ी ही मीठी-मीठी बातें करने वाला था। तब क्या इतने दिन बीत जाने पर भी अपनी प्रियतमा के पास एक पत्र भी नहीं भेज सकता था?
तब तो उसको स्मरण दिलाने के लिए उसके पास वह अंगूठी भेजनी ही होगी जो उसने शकुन्तला को दी थी। किन्तु यह भी समझ में नहीं आता कि इन तपस्वियों में से किसको राजधानी भेजा जाये। ये तो लोग वनचर हैं, राजधानी के तौर-तरीके क्या जानें? बाहर से लौटते हुए तात कण्व से मैं अपनी प्रिय सखी के अपराध की बात तो कह सकती हूं कि दुर्वासा ऋषि के आने पर ऐसा हुआ था, किन्तु यह कहना मेरे लिए असम्भव-सा है कि शकुन्तला का राजा दुष्यन्त के साथ गान्धर्व रीति से विवाह हो गया है और इस समय वह गर्भवती भी है।
ऐसी स्थिति में अब हमको क्या करना चाहिए?
[प्रियंवदा का प्रवेश]
प्रियंवदा : (हर्ष प्रकट करती हुई) सखी! चलो उठो, जल्दी करो।
अनसूया : (विस्मय से) क्यों, ऐसी क्या बात है?
प्रियंवदा : सखि! उठो! शकुन्तला की विदाई की व्यवस्था करनी है।
अनसूया : (अत्यधिक विस्मय प्रकट करती हुई) यह सब किस प्रकार सम्भव हो गया?
प्रियंवदा : सुनो! मैं अभी शकुन्तला के पास गई थी। मैंने उससे पूछा कि
रात को वह सुख से तो सोई?
अनसूया : तो फिर?
प्रियंवदा : तब तक वहां पूज्य पिता कण्व आ पहुंचे। उन्होंने लाज में गड़ी शकुन्तला को गले लगाया। उसे प्यार देते हुए बोले, वत्से! आज आंखों में यज्ञधूम के भरे जाने पर भी यजमान की आहुति सौभाग्य से ठीक उसी स्थान पर पड़ी जहां कि पड़नी चाहिए थी। इसलिए जिस प्रकार योग्य शिष्य को विद्या दान करने से मन में दुःख नहीं होता वैसे तुझे भी योग्य पति के हाथ में देते हुए मुझे भी दुःख नहीं है। मैं आज ही तुझे ऋषियों के साथ तेरे पति के पास भेजने की व्यवस्था करवाता हूं।
अनसूया : परन्तु तात कण्व को यह सारा वृत्तान्त बताया किसने?
प्रियंवदा : जैसे ही तात कण्व यज्ञशाला में प्रवष्टि हुए उसी समय छन्दोवद्ध यह आकाशवाणी सुनाई दी-
अनसूया : (विस्मय से बीच में ही टोककर) क्या?
प्रियंवदा : (दत्तचित्त गाकर) जिस प्रकार शमी वृक्ष के भीतर अग्नि का वास होता है वैसे ही हे ब्रह्मर्षि! तुम्हारी इस कन्या के भीतर पुरुराज दुष्यन्त का तेज निवास करता है। इसको इसके स्थान पर पहुंचाने की व्यवस्था करो।
अनसूया : (प्रियंवदा के गले से लिपटकर) सखि! यह तो बड़ा ही उत्तम कार्य हो गया है। किन्तु शकुन्तला आज ही हम लोगों से विदा हो जायेगी, इससे इस हर्ष में कुछ कमी भी आने लगी है।
प्रियंवदा : सखि! हम तो अपने मन को किसी प्रकार समझा-बुझा लेंगी। किन्तु यह सुखी रहे, बस इतनी ही हमारी कामना है।
अनसूया : यह जो उधर आम की डाली पर नारियल लटका रखा है, उस पर मैंने बहुत दिनों तक सुगन्धित रहने वाली केसर की माला आज के जैसे शुभ दिन के लिए ही तो लटकाकर रखी हुई है। उसको वहां से उतारकर तो ले आ। तुम जब तक लाती हो तब तक मैं गोरोचन, तीर्थ की मिट्टी, कोमल दूब के तिनके आदि मंगल सामग्री का जुगाड़ करती हूं।
प्रियंवदा : ठीक है, तुम यह सब जुटाओ। मैं जाती हूं।
[अनसूया जाती है]
[प्रियंवदा माला उतारने का अभिनय करती है।]
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