नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
कण्व : (ऋग्वेद के छन्द में आशीर्वाद देते हैं)-
अमी वेदि परित: क्लृप्तधिष्ण्या-समिद्वन्त: प्रान्तसंस्तीर्णदर्भा:
अपघ्नतौ दुरितं हव्यगन्धैर्वैतानास्त्वां वहनय: पावयन्तु।। अब चलो।
[इधर-उधर देखकर]
शर्ङरव आदि कहां हैं?
शिष्य : (प्रवेश करके) भगवन्! हम लोग तैयार खड़े हैं।
कण्व : जाओ! अपनी बहन को पहुंचा आओ।
शार्ङरव : इधर से आओ देवी! इधर से।
[सब घूमते हैं]
कण्व : वन-देवताओं से भरे हुए तपोवन के वृक्षों! जो तुम्हें जल पिलाये बिना स्वयं कभी पहले जल नहीं पीती थी, जो आभूषण पहनने का शौक होने पर भी, तुम्हारे स्नेह के कारण तुम्हारे कोमल पत्तों को हाथ नहीं लगाती थी, जो तुम्हारी नुई कलियों को देख-देखकर फूली नहीं समाती थी, वही शकुन्तला आज अपने घर जा रही है। तुम सब इसको प्रेम से विदा करो।
[कोयल की कूक सुनाई पड़ती है।]
[उसकी ओर संकेत करके]
कण्व : शकुन्तला के वन के साथी इन वृक्षों ने और अन्यान्य पक्षियों ने कोयल के शब्दों के माध्यम से उसको जाने की अनुमति दे दी है।
[आकाश में]
कल्याणमय हो इस शकुन्तला की यात्रा। इसके मार्ग में बीच-बीच में नीली कमलिनियों से भरे हुए ताल हों, नियम से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लगे हुए धूप से बचाने वाली घनी छांह वाले वृक्ष हों। धूल में कमल के पराग की कोमलता हो और मार्ग पर सुख देने वाला पवन बहता रहे।
[सब आश्चर्य से सुनते हैं।]
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